बढ़ती जनसंख्या की चुनौतियां
विक्रांत सिंह
विश्व के दूसरे सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश में आखिरकार जनसंख्या विषय चर्चा में आ ही गया। लेकिन अभी भी यह विषय सामाजिक समस्या के रूप में कम व राजनीतिक- सांप्रदायिक-विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों के कारण अधिक चर्चित है। ‘जनसंख्या’ यानि ‘व्यक्तियों की संख्या’ तो इसमें समस्या क्या है? लगभग सभी समाजों में व भारतीय समाज में भी “भरा पूरा परिवार” मंगल सूचक है। नववधू को बुजुर्गों से आशीर्वाद भी “दूधो नहाओ पूतो फलो” जैसे मिलते हैं। संपन्नता व समृद्धि का पर्याय रही “भरा पूरा परिवार” की संकल्पना को हमने डेमोग्राफिक डिविडेंड के रूप में सगर्व प्रचारित भी किया है। फिर अचानक से जनसंख्या वृद्धि, जनसांखिकीय असंतुलन, जनसंख्या नियंत्रण कानून आदि लोक चर्चा के विषय कैसे बन गए?
आइए हम दूसरे पक्ष पर विचार करते हैं ।
गली मोहल्ले में एक दो कुत्ते अथवा बंदर के आने पर सभी उन्हें खाने को रोटी, बिस्किट, केला, चना आदि देते हैं पर वही संख्या 20 -25 हो जाने पर बंदरों का उत्पात शुरू हो जाता है, कुत्तों की आपसी लड़ाई शुरू हो जाती है और मजबूरन नगर निगम को आग्रह कर उनकी संख्या नियंत्रित करने को कहा जाता है । भला क्यों?
सीमित संसाधनों के कारण संघर्ष होता है, जिससे समाज व्यवस्था में अशांति व अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है।रेगिस्तान से आने वाले छोटे हरे रंग के जीव जिसे टिड्डी या ग्रासहॉपर कहा जाता है, उसकी अनियंत्रित तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण वह जहां जाता है संसाधनों को चट कर जाता है। इसी कारण कृषि को होने वाले नुकसान से बचाने के लिए सरकारों को विशेष प्रयास करने पड़ते हैं। स्पष्ट है समस्या संख्यात्मक वृद्धि नहीं है समस्या है अनियंत्रित वृद्धि ।
आइए कुछ आंकड़ों पर चर्चा करते हैं।
1871 में प्रथम जनगणना में ग्रेटर भारत की जनसंख्या 23.8 करोड़ थी। जो 1941 में (ब्रिटिश भारत की अंतिम जनगणना तक) 38 करोड़ हो गई थी। 1951 में 36.1 करोड़ की विभाजित भारत की संख्या 1981 में 68 करोड़ (30 वर्षों में लगभग दोगुनी) तथा 2021 तक आते-आते 100 करोड़ से अधिक (1951 से लगभग 3 गुना) हो गई। 20% से अधिक की वृद्धि दर वाले देश में 2011 में वृद्धि दर तो 17.7% तक गिरी, लेकिन तब तक हमारा आकार इतना बड़ा हो गया कि महज 10 वर्ष में जनसंख्या में 21 करोड़ की विशाल वृद्धि हुई।
ध्यान देने योग्य तथ्य है कि 1921 में अविभाजित विशाल भारत की कुल जनसंख्या 23.8 करोड़ एवं अब प्रति 10 वर्ष में 20 करोड लोगों की वृद्धि। 2021 में भी अनुमानत जनसंख्या पुनः 20 करोड़ की दशकीय वृद्धि के साथ 140 करोड़ हो जाएगी ।
भले ही चीन सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश हो, परंतु अपने विशाल क्षेत्रफल के कारण वहां जन घनत्व 153 प्रति वर्ग किलोमीटर है। वहीं 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में जन घनत्व 382 प्रति वर्ग किलोमीटर है, अर्थात चीन के दोगुने से भी अधिक। भारत अनियंत्रित प्रजनन तथा बढ़ती आयु प्रत्याशा के कारण जनसंख्या विस्फोट की विभीषिका को झेल रहा है।
आप जरा विचार कीजिए 1951 के 36 करोड़, 2021 में 136 करोड़ से भी अधिक हो जाएंगे। इतनी विशाल जनसंख्या की भूख मिटाने को भोजन, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं आदि बुनियादी सुविधाएं कहां से आएंगी? प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन के भी अपने दुष्परिणाम हैं। हरित क्रांति के दौरान प्रचारित रासायनिक खेती, बढ़ता प्रदूषण, घटते जंगल, शहरों में बेतहाशा भीड़, सूखती नदियां, घटता जलस्तर, विलुप्त होती वन्य जंतुओं की प्रजातियां, पारिस्थितिकी असंतुलन जैसी समस्याएं हमारे समक्ष नई चुनौतियां हैं।
1951 में प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता 0.91 हेक्टेयर थी जो अब घटकर मात्र 0.12 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति हो गई है। जबकि वैश्विक स्तर पर यह 0.29 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है। भारत में लगभग 86 प्रतिशत कृषि जोतों का आकार 1 हेक्टेयर से भी कम है अर्थात लघु जोतें हैं।
ऐसे में निरंतर बढ़ती जनसंख्या के लिए भोजन कहां से आएगा? खाद्यान्न की कमी व भुखमरी तथा निरंतर सिकुड़ते खेतों के आकार के कारण गरीबी व बेरोजगारी की समस्या विकराल होती जा रही है। भीड़ भरी बसें -ट्रेनें, राशन की लंबी कतारें, रोजगार के लिए लाखों बेरोजगारों के आवेदनों का अंबार, कोर्ट में लंबित करोड़ों केस, पीने के पानी की किल्लत, झुग्गी -झोपड़ियों- बस्तियों से अटे पड़े शहर यही चीख कर कह रहे हैं कि देश अपनी जनसंख्या का बोझ ढोते ढोते हांफने लगा है। कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिस, जेल न्यायपालिका आदि व्यवस्थाएं ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रही हैं। ऐसा नहीं है कि इस विभीषिका पर राजनीतिक -बौद्धिक विमर्श पहले नहीं हुआ। दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1980 के दशक में जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में प्रयास किए। परंतु दोषपूर्ण क्रियान्वयन व स्पष्ट नीति के अभाव के कारण उनके प्रयास राजनीतिक व सामाजिक त्रासदी ही सिद्ध हुए तथा गठबंधन सरकारों के दौर में पुनः किसी राजनीतिक व्यक्तित्व ने इस विषय पर चर्चा करने तक का साहस नहीं किया। हाल ही में इस विषय पर जागरूकता लाने के लिए विभिन्न संगठनों के प्रयासों, राज्यसभा में लाए गए प्राइवेट बिल, उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिकाएं, यूपी तथा असम सरकार के इस दिशा में की गई पहल के कारण यह विशेष चर्चा में आया है। लेकिन यह समस्या अब इतना विकराल रूप ले चुकी है कि इस पर राज्य के स्तर पर नहीं वरन एक समग्र राष्ट्रीय नीति की अत्यंत आवश्यकता है। जनसंख्या नियंत्रण पर प्रभावी कानून बनाने में नीति निर्माताओं को विभिन्न देशों के अतीत के अनुभव व देश की सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति को भी ध्यान में रखना चाहिए ।
यूपी सरकार द्वारा तैयार जनसंख्या नियंत्रण कानून के मसौदे में ‘एक बच्चा’ की प्रोत्साहन नीति के समाज पर विषम सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक प्रभाव भी हो सकते हैं। जनसंख्या नियंत्रण नीति का उद्देश्य अतिशीघ्र जनसंख्या स्थिरीकरण प्राप्त करना होना चाहिए। देश अब उस मोड़ पर आ चुका है जब जनसंख्या स्थिरीकरण के लिए शिक्षा व जागरूकता के प्रोत्साहनात्मक प्रयासों के अतिरिक्त कड़े प्रतिबंधात्मक विधिक उपायों की भी आवश्यकता है।
विक्रांत जी,सटीक विश्लेषण के लिए साधुवाद। सभी राष्ट्रवादियों ने एक या दो बच्चों का नियम 1975 में ही अपना लिया था। लेकिन टिड्डे अपनी फसल बढ़ाते रहे और टिड्डिदल गाहे ब गाहे खड़ी फसलों पर आक्रमण कर उसे चट करते रहे।
कोई हल निकले, इसकी निकट भविष्य में संभावना कम ही दिखती है। देश आये दिन नई चुनोतियों से जूझ रहा है अतः नेतृत्व उसी के निवारण में लगा है। नेतृत्व में आस्था और आशान्वित रहना ही एकमात्र विकल्प होगा।