मात्र राजदंड नहीं, भारत की विरासत है सेंगोल

मात्र राजदंड नहीं, भारत की विरासत है सेंगोल

बलबीर पुंज

मात्र राजदंड नहीं, भारत की विरासत है सेंगोलमात्र राजदंड नहीं, भारत की विरासत है सेंगोल

आज देश के नए संसद भवन का उद्घाटन है। इसमें चोल साम्राज्य के जिस ‘सेंगोल’ (राजदंड) की चर्चा हो रही है, उसका सदियों की परतंत्रता के पश्चात स्वाधीनता की पूर्व संध्या पर उदय, फिर उसका साढ़े सात दशक तक विस्मृत होना और अब स्वाधीनता के अमृत महोत्सव में उसका प्रकटीकरण— वह भारत की विचार यात्रा का प्रतिनिधित्व करता है।

देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में दिए प्रसिद्ध भाषण से पहले जो कुछ हुआ था, उसका अविस्मरणीय उल्लेख देश-विदेश के कई समाचारपत्रों-पत्रिकाओं की मीडिया रिपोर्टों के साथ लैरी कॉलिंस-डॉमिनिक लैपियर द्वारा लिखित “फ्रीडम एट मिडनाइट” (1975) आदि पुस्तकों में किया गया है। इन वृतांतों के अनुसार, जब लॉर्ड माउंटबेटन ने नेहरू से पूछा कि वे किस अनुष्ठान से सत्ता-हस्तांतरण करना चाहेंगे, तब नेहरू ने सी.राजगोपालाचारी (राजाजी) से परामर्श लिया और राजाजी ने तत्कालीन तमिलनाडु स्थित शैव परंपरा के गैर-ब्राह्मण ‘थिरुवावदुथुरई आधीनम्‌’ से पांरपरिक कर्मकांड हेतु संपर्क किया। राजाजी के अनुरोध पर आधीनम्‌ ने स्वर्ण मढ़ित, पांच फीट लंबे और दो इंच मोटे ‘राजदंड’ को तैयार करवाया, जिसके शीर्ष पर न्याय के रक्षक और प्रतीक— नंदी विद्यमान थे।

विशेष विमान से आधीनम्‌ के दो विशेष मुनि ‘राजदंड’ के साथ दिल्ली पहुंचे। बकौल तत्कालीन मीडिया रिपोर्ट, 14 अगस्त को पहले ‘राजदंड’ को माउंटबेटन को दिया गया, फिर उनसे वापस लेकर उसे गंगाजल से पवित्र किया गया। दोनों सन्यासी अपने अन्य अनुचरों के साथ वैदिक मंत्रोच्चारण और अनुष्ठानिक वाद्ययंत्र ‘नादस्वरम’ से सुशोभित अन्य देशज परंपराओं का निर्वाहन करते हुए पं.नेहरू के तत्कालीन निवास स्थान— 17, यॉर्क मार्ग (वर्तमान मोतीलाल नेहरू मार्ग) पहुंचे। तब पुजारियों के पास एक बड़ी चांदी की थाली थी, जिसमें भगवान को अर्पित पीतांबरम रखा था। वैदिक छंदों के साथ नेहरू को पीतांबरम ओढ़ाकर ‘राजदंड’ सौंपा गया। एक पुजारी ने तंजौर से लाए पवित्र जल को नेहरू पर छिड़ककर उनके माथे पर तिलक लगाया और उन्हें भगवान शिव को अर्पित कुछ पके हुए चावल दिए।

अमेरिकी पत्रिका ‘टाइम’ में 25 अगस्त 1947 को प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, उसी शाम संविधान सभा के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ.राजेंद्र प्रसाद के आवास पर चार केले के पेड़ों के बीच बनाए अस्थायी मंदिर में पवित्र अग्नि प्रज्वलित की गई थी। सैकड़ों महिलाओं द्वारा वैदिक स्तोत्र के बीच पुजारी ने पवित्र जल छिड़ककर देश के भावी मंत्रियों को तिलक लगाया। इसके बाद नेहरू का भाषण हुआ और फिर कक्ष अलौकिक शंखनाद से गूंज उठा।

अनादिकाल से भारतीय व्यवस्था अपनी वैदिक संस्कृति और परंपराओं से पोषित होती रही है। इस अकाट्य सत्य को सत्ता हस्तांतरण हेतु वैदिक रीतियों की अनुपालना के साथ अन्य तथ्यों से भी रेखांकित किया जा सकता है। राष्ट्रपति भवन (स्वतंत्रता पूर्व ‘वायसराय हाउस’) की छतों-दीवारों पर अब भी स्वर्ण-अक्षरों में श्रीमद्भागवत गीता के कई संस्कृत श्लोकों को देखा जा सकता है। भारतीय संविधान की हस्तलिखित हिंदी-अंग्रेजी मूल प्रतियां वैदिककाल, भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, गुरुकुल, बुद्ध के उपदेश, महावीर के जीवन, छत्रपति शिवाजी और गुरु गोबिंद सिंह इत्यादि की तस्वीरों से अलंकृत हैं। संविधान की मूलप्रतियों में इन सभी के चित्र इसलिए हैं, क्योंकि असंख्य स्वाधीनता संग्रामियों ने इन्हीं से प्रेरणा लेकर अपने प्राणों की आहुति दी या जेल गए, तो उन्हीं की संकल्पना पर देश के पुनर्निर्माण का मार्ग निर्धारित हुआ था।

भारतीय शासकीय व्यवस्था का अपनी संस्कृति से विच्छेदन तब प्रारंभ हुआ, जब नेहरू के आशीर्वाद और कालांतर में इंदिरा गांधी के राजनीतिक समझौते (1969-71) से वे वामपंथी देश के महत्वपूर्ण पदों तक पहुंच गए, जिनका वैचारिक लक्ष्य भारतीय सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करना है। इसी चिंतन से प्रेरित होकर वामपंथियों ने भारत का विभाजन कर पाकिस्तान के जन्म में महती भूमिका निभाई। इसी दर्शन से देश का ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ प्रेरणा पाता है। जब वामपंथ प्रदत्त समाजवादी नीतियों के कारण 1970-80 के दशक में भारत रसातल में पहुंच गया, तब वामपंथी अर्थशास्त्री राजकृष्ण ने तत्कालीन भारतीय आर्थिकी की त्रासिक दशा के लिए सनातन संस्कृति को जिम्मेदार ठहराते हुए ‘हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ’ शब्द को जन्म दे दिया। इसी वामपंथ अभिशप्त राजनीतिक-वैचारिक दर्शन ने ‘राजदंड’ की सांस्कृतिक प्रतिष्ठा को प्रयागराज संग्रहालय स्थित धूल भरे बक्से में नेहरू की ‘चलने में सहायक स्वर्ण छड़ी’ के रूप में संकुचित कर दिया।

आज वामपंथी देश में राजनीतिक रूप से हाशिये पर हैं, जिसका परिणाम यह हुआ है कि भारत, जो सनातन संस्कृति से प्रेरणा लेकर पहली शताब्दी से लेकर 17वीं सदी तक दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था— वह आज विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक-सामरिक शक्तियों में से एक है। स्वतंत्रता की पावन बेला पर आयोजित अनुष्ठान में जिस ‘सेंगोल’ का उपयोग हुआ था, वह भारत की पवित्र परंपराओं और शासक की लौकिक जिम्मेदारियों के बीच संबंध का प्रतिनिधित्व करता है। उस राजदंड को साढ़े सात दशक की उपेक्षा के बाद नए संसद भवन में सभापति आसन के निकट स्थापित किया जाना है, जिसके संपन्न होते ही इतिहास का एक चक्र भी पूरा हो जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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