भारत के ‘स्व’ की अवधारणा को समझें और जीवन में धारण करें- डॉ. मनमोहन वैद्य

भारत के ‘स्व’ की अवधारणा को समझें और जीवन में धारण करें- डॉ. मनमोहन वैद्य

भारत के ‘स्व’ की अवधारणा को समझें और जीवन में धारण करें- डॉ. मनमोहन वैद्यभारत के ‘स्व’ की अवधारणा को समझें और जीवन में धारण करें- डॉ. मनमोहन वैद्य

  • ब्रज साहित्योत्सव – 60 शोधार्थी और 50 से अधिक विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने लिया भाग

आगरा। विश्व संवाद केन्द्र ब्रज प्रांत द्वारा आयोजित ब्रज साहित्योत्सव के दूसरे दिन तीन सत्रों में राष्ट्र की समृद्धि में हिन्दू अर्थशास्त्र की प्रासंगिकता, पर्यावरण संरक्षण की भारतीय अवधारणा और ‘स्व’ आधारित राष्ट्र के नवोत्थान का संकल्प विषयों पर चर्चा हुई।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. मनमोहन वैद्य ने कहा कि ‘स्व’ आधारित राष्ट्र के नवोत्थान का संकल्प लेकर भारत के ‘स्व’ की अवधारणा को समझें और जीवन में धारण करें। भारत का दृष्टिकोण सम्पूर्ण है। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना है। किसी के विरुद्ध होने का प्रश्न ही नहीं है। भारत की मान्यता है कि ईश्वर एक है, उसके नाम अनेक हो सकते हैं और उस तक पहुँचने के मार्ग भी भिन्न हो सकते हैं। इसी ‘स्व’ के प्रकाश में दिशा तय होनी चाहिए।

उन्होंने बताया कि दूसरे विश्व युद्ध में सन् 1945 में इंग्लैण्ड, जर्मनी, जापान को क्षति हुई। सन् 1948 में इज़रायल संघर्ष कर आगे बढ़ा। सन् 1947 में भारत स्वाधीन हुआ। उन देशों की तुलना में भारत की प्रगति को देख सकते हैं। स्वाधीनता के बाद केवल जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर को छोड़कर सभी स्टेट भारत में स्वेच्छा से विलय हुए। सरदार वल्लभभाई पटेल जब जूनागढ़ स्टेट विलय हेतु गए तो उन्होंने सोमनाथ मन्दिर के दर्शन कर पीड़ा का अनुभव किया और मन्दिर जीर्णोद्धार हेतु के.एम. मुंशी को उत्तरदायित्व सौंपा। गाँधीजी ने भी मन्दिर निर्माण हेतु इस सुझाव के साथ सहर्ष सहमति दी कि मन्दिर का निर्माण जनता से धन से किया जाए। सन् 1951 में मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद सम्मिलित हुए।

मनमोहन वैद्य ने कहा कि सन् 1700 तक भारत का निर्यात विश्व में उन्नत था और भारत उद्योग प्रधान देश था। यहाँ कपड़ा उद्योग, मेटलर्जी, मसाले, टैनरी आदि घरेलू उद्योग गाँव-गाँव में थे। पुरुष व्यापार हेतु देश-विदेश में जाते और महिलाओं के पास धन रहता था, वे घरेलू व्यवस्थाएं संभालती थीं। यहाँ के लोग बाहर व्यापार करने तो गए, परन्तु उन्होंने कॉलोनी खड़ी नहीं कीं, कन्वर्जन नहीं कराया। लोगों को गुलाम नहीं बनाया और ना ही वहाँ के संसाधनों को लूटा।

उन्होंने कहा कि भारत उदारता की भावना में विश्वास करता है। पराए को भी दुश्मन नहीं मानता। उन्होंने ईशावास्यं… का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत विविधता को सेलीब्रेट करता है। रविन्द्र नाथ टैगोर का उल्लेख करते हुए कहा कि सबको साथ लेकर गंगा की भांति आगे बढ़ते रहना है। कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग और ज्ञानयोग की चर्चा करते हुए कहा कि भारत में सबको अपनी उपासना चुनने की स्वतंत्रता है। यह भारत की विशेषता है। लोग इसी ‘स्व’ आधारित प्रेरणा से सेवा हेतु आगे आए।

उन्होंने कहा कि धर्म सबको जोड़ता है। धर्म की अवधारणा कर्तव्य से है, जबकि रिलीजन को उपासना पद्धति के सम्बन्ध में समझा जाता है। धर्म अध्यात्म की अवधारणा और भारत का प्राण है।

अर्थशास्त्री प्रोफेसर विनायक गोविलकर ने भारतीय और अभारतीय अर्थशास्त्र का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि भारतीय अर्थशास्त्र के दृष्टिकोण की प्रासंगिकता विश्व स्तर पर स्वीकार की जा रही है। उन्होंने नोबल पुरस्कार विजेता रिचर्ड आदि के कार्यों का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि भारतीय चिन्तन संसाधनों के मर्यादित उपभोग पर बल देता है। वर्तमान परिस्थिति में केवल भारतीय हिन्दू आर्थिक विचार ही शांति और सुख दे सकता है। अर्थशास्त्र के ग्रंथों और श्री सूक्त के श्लोक का संदर्भ देते हुए कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था में पर्यावरण की महत्ता भी बतायी गयी है।

प्रोफेसर वेद प्रकाश त्रिपाठी तथा प्रख्यात लेखक डॉ. सरवन बघेल ने हिन्दू धर्मशास्त्र और पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय और एकात्मकता पर विस्तार से चर्चा की।

पर्यावरण संरक्षण की भारतीय अवधारणा पर रेणुका पुंडरीक गोस्वामी ने हरे राम संकीर्तन के साथ उद्धबोधन प्रारम्भ किया। उन्होंने अध्यात्म के विभिन्न पहलुओं की चर्चा करते हुए कहा कि पंचमहाभूत भगवान का विस्तार है। उन्होंने भ से भूमि, ग से गगन, वा से वायु, अ से अग्नि और न से नीर पर व्याख्या करते हुए कहा कि पंचमहाभूतों की सेवा भगवान की सेवा है। आहार, विचार और व्यवहार के सुधार से पर्यावरण संरक्षण पर विस्तार से बताया।

पर्यावरणविद् डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य ने कहा कि भारतीय जनमानस पेड़, पौधों, पशु-पक्षियों और प्रकृति का पूजक है। अनियंत्रित विकास के कारण नदी, नाले, तालाब, पोखर आदि प्रदूषित हो रहे हैं। पक्षी विलुप्त हो रहे हैं। जानवर हिंसक हो रहे हैं।

विकास सारस्वत ने कहा कि भारतीय साहित्य संस्कृति में पर्यावरण जोड़ा है। भारतीय चिंतन में पर्यावरण का चिंतन विस्तार से हुआ है।

दो द्विवसीय साहित्योत्सव की अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा के कुलपति प्रोफेसर आशू रानी ने कहा कि ‘स्व’ को समझना आवश्यक है। ‘स्व’ सम्पूर्ण मनोवैज्ञानिक अवधारणा है। उन्होंने युवा पीढ़ी का आह्वान किया कि अपने कर्तव्यों को समझते हुए सभी क्षेत्रों में आगे आएँ।

कार्यक्रम में एक दर्जन से अधिक व्याख्यान हुए, 60 शोधार्थी और 50 से अधिक विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने भाग लिया। ब्रज प्रान्त के विभिन्न जिलों से प्रतिनिधियों ने भाग लिया। अतिथियों का स्वागत साहित्योत्सव के सर्व व्यवस्था प्रमुख मनमोहन निरंकारी और संचालन साहित्योत्सव के संयोजक मधुकर चतुर्वेदी ने किया।

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