भगवान सूर्य के प्रति आभार का प्रकटीकरण का पर्व है मकर संक्रांति

भगवान सूर्य के प्रति आभार का प्रकटीकरण का पर्व है मकर संक्रांति

भगवान सूर्य के प्रति आभार का प्रकटीकरण का पर्व है मकर संक्रांति

हमारा भारत एक विशाल राजनीतिक तथा भौगोलिक इकाई तो है ही, किंतु उससे बढ़कर यह उन असंख्य सांस्कृतिक तंतुओं का घनीभूत पुंज है जो इस राष्ट्र के हर कोने को आपस में जोड़ते हैं। ऐसा ही एक तंतु है- मकर संक्रांति पर्व, जो पूरे भारत में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है। यह पौष माह में सूर्य के धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश को इंगित करता है। इसे बहुत शुभ माना जाता है। तभी दान पुण्य हेतु इसका विशेष महत्व है।

संक्रांति, खिचड़ी, बिहू, पोंगल, माघी, शेषुर संक्रांत, उत्तरैन- देश के भिन्न-भिन्न भागों में इसके भिन्न नाम हैं, भिन्न रीतियाँ हैं, अलग-अलग कथाएँ भी हैं किंतु हर जगह यह कृषि से जुड़ा पर्व है तथा भगवान सूर्य के प्रति आभार का प्रकटीकरण है। देश के कई भागों में इस दिन तिल गुड़ के पकवानों के साथ खिचड़ी बनाकर भोग अर्पित किया जाता है। आकाश में ऊपर उठती पतंग मानो उत्तरी गोलार्ध में आगे बढ़ते सूर्यदेव को नमस्कार करती है। कहीं-कहीं गिल्ली डंडा और सतौलिया जैसे पारंपरिक खेल खेलने का भी प्रचलन है।

कई जगह इसे उत्तरायण के रूप में भी मनाया जाता है यद्यपि उत्तरायण तथा संक्रांति ये दोनों ही स्वतंत्र घटनाएँ हैं। उत्तरायण में सूर्यदेव मकर रेखा से आगे निकलकर उत्तरी गोलार्ध की ओर बढ़ने लगते हैं। अब यह घटना दिनांक 22 दिसंबर के निकट होती है। 23 दिसंबर से सूर्य भगवान उत्तरायण होने लगते हैं।

अब मकर संक्रांति खगोलीय उत्तरायण के 23 दिन बाद आने लगी है। किंतु लगभग छठी शताब्दी में उत्तरायण तथा मकर संक्रांति एक ही समय पड़ते थे। 12वीं शताब्दी के शिलालेख इत्यादि साक्ष्यों के आधार पर ग्रेगोरियन कैलेंडर से तुलना करें तो तब मकर संक्रांति 25 दिसंबर को घटित हो रही थी। लंबे कालखंड तक दोनों घटनाएँ एक साथ घटित होने के कारण इन्हें जोड़कर देखा जाने लगा। वर्तमान में मकर संक्रांति लगभग 23 दिन आगे है, धीरे-धीरे यह और आगे चलती जाएगी।

ऐसा पृथ्वी के अक्षीय दोलन के कारण होता है जिसका एक घूर्णन काल लगभग 25920 वर्ष है। इस दोलन के कारण नक्षत्र व राशियाँ सापेक्ष रूप से आगे की ओर बढ़ती हैं। आधुनिक विज्ञान में पृथ्वी की गतियों के इस प्रभाव को Milankovitch Cycles के अध्ययन से समझ सकते हैं। यह ज्ञान हमारे प्राचीन आचार्यों को भी स्पष्ट था, किंतु हमने मैकाले प्रभाव में ज्योतिष व नक्षत्र विज्ञान को अंधविश्वास कहकर नकार दिया। जबकि फलित या सामान्य भाषा में ‘भाग्य का अनुमान’ लगाने की विद्या ज्योतिष का एक भाग मात्र है। वास्तव में यह ग्रह-नक्षत्रों का विशद अध्ययन है। हमारी कृषि, उद्यम, आवागमन, कुंभ जैसे महोत्सव इसी प्रेक्षण पर आधारित थे। जयपुर स्थित जंतर-मंतर से अनुमान लगाया जा सकता है कि कुछ शताब्दियों पहले तक यह विद्या कितनी उन्नत रही होगी।

पुरातन वैदिक संस्कृति में उत्तरायण का दिन सूर्य देवता ‘मित्र’ के जन्म के रूप में मनाया जाता था। आज भी ईरान में यह पर्व ‘यालदा’ नाम से मनाया जाता है, यद्यपि अर्थ खो गए हैं। 25 दिसंबर को ‘बड़ा दिन’ कहकर उत्सव मनाने के पीछे वास्तविक अभिप्राय क्या रहा होगा? कब इसे ईसाई मत से मिला लिया गया होगा? ऐसे प्रश्नों के उत्तर पुरातन साक्ष्य व आधुनिक विज्ञान तो दे ही रहे हैं, हमें अध्ययन कर इन्हें टटोलने की आवश्यकता है।

मकर संक्रांति पर हार्दिक शुभकामनाएँ।

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