भारतीय संस्कृति और वीरता की प्रतिमान महारानी अहिल्याबाई होल्कर

भारतीय संस्कृति और वीरता की प्रतिमान महारानी अहिल्याबाई होल्कर

मृत्युंजय दीक्षित

भारतीय संस्कृति और वीरता की प्रतिमान महारानी अहिल्याबाई होल्करभारतीय संस्कृति और वीरता की प्रतिमान महारानी अहिल्याबाई होल्कर

राष्ट्र और धर्म के लिए समर्पित, भारतीय संस्कृति और वीरता की प्रतिमान महारानी अहिल्याबाई होल्कर सशक्त भारतीय नारी का पर्याय हैं। रानी अहिल्याबाई होल्कर का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के चौंढ़ी नामक गांव में एक साधारण कृषक माणिकोजी शिंदे के परिवार में हुआ था।अहिल्या जी की माता का नाम सुशीला शिंदे था। उनके पिता शिवभक्त माणिकोजी कृषक होने के साथ ही एक विचारवान व्यक्ति भी थे। उन्होंने अपनी पुत्री अहिल्याबाई को बचपन से ही शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिया था। यह उस कालखंड की बात है, जिसमें मराठा साम्राज्य में महिलाओें को शिक्षा नहीं दी जाती थी। अहिल्याबाई दयाभाव वाली और चंचल स्वभाव की थीं। पिता की शिव भक्ति का संस्कार भी बालिका अहिल्या पड़ा।

विवाह और पति – एक बार राजा मल्हार राव होल्कर उनके गाँव से होकर जा रहे थे और उन्होंने मंदिर में आरती होते हुए देखा कि पुजारी के साथ एक बालिका भी पूर्ण मनोयोग से आरती कर रही है। इससे राजा मल्हार राव होल्कर बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने गांव वालों से पूछकर उनके पिता को बुलाया और उनसे आग्रह किया कि वे उनकी बेटी को पुत्रवधू बनाना चाहते हैं। राजा के आग्रह पर उनके पिता ने अपना सिर झुका दिया। इस प्रकार आठ वर्षीय बालिका इंदौर के राजकुंवर खाण्डेराव होल्कर की पत्नी बनकर राजमहल में आ गयी।

इंदौर में अपने ससुराल आकर भी अहिल्याबाई पूजा एवं आराधना में रत रहती थीं। विवाह के उपरांत उन्हें दो पुत्रियां तथा एक पुत्र की प्राप्ति हुई। पति के अचानक किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित होकर 1746 में देह त्यागने के बाद अहिल्याबाई पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। किन्तु इस संकटकाल में रानी ने धैर्य के साथ, तपस्वी की भांति श्वेत वस्त्र धारण कर राजकाज चलाया। कुछ समय बाद ही उनके पुत्र, पुत्री तथा पुत्रवधू का भी देहांत हो गया। इस वज्राघात के बाद भी रानी अविचलित रहते हुए अपने कर्तव्यपथ पर डटी रहीं।

18वीं सदी में वह अपनी राजधानी महेश्वर ले गयीं और सदी का श्रेष्ठ अहिल्या महल बनवाया। उस समय महेश्वर साहित्य, मूर्तिकला, संगीत और कला के क्षेत्र में एक बड़ा गढ़ बन चुका था। मराठी कवि मोरोपंत और संस्कृत विद्वान खुलासी राम उनके समय में महान व्यक्तित्व थे।

महारानी के दुख की घड़ी में पड़ोसी राजा पेशवा राघोबा ने उनके विरुद्ध एक भारी षड्यंत्र रचा। उसने इंदौर दीवान गंगाधर यशवंत चंद्रचूड़ को अपने जाल में फंसाकर अचानक इंदौर पर आक्रमण कर दिया। रानी ने साहस नहीं छोड़ा। उन्होंने धैर्य न खोते हुए पेशवा को एक चेतावनी भरा पत्र लिखा। रानी ने लिखा कि यदि इस युद्ध में आप विजयी होते हैं तो एक स्त्री को जीतकर आपकी कीर्ति नहीं बढ़ेगी और यदि आपकी पराजय होती है तो आपके मुख पर सदा के लिए कालिख पुत जाएगी। आगे उन्होंने यह भी लिखा कि मैं मृत्यु या युद्ध से भयभीत होने वाली नारी नहीं हूं। यद्यपि मुझे राज्य का कोई लोभ नहीं है, फिर भी मैं जीवन के अंतिम क्षणों तक महासंग्राम करूंगी।

इस पत्र को पाकर पेशवा राघोबा चकित रह गया। इसमें जहां एक ओर रानी ने उस पर कूटनीतिक चोट की थी, वहीं दूसरी ओर अपनी कठोर संकल्पशक्ति का परिचय भी दिया था।

महारानी ने कराया मंदिरों का जीर्णोद्धार और समाज सेवा में रहीं रत- महारानी अहिल्याबाई होल्कर एक बहुत ही योग्य व कुशल प्रशासक थीं, जिन्होंने सोमनाथ मंदिर, वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर सहित अनेक हिंदू मंदिरों का पुननिर्माण कराने में अहम योगदान दिया। ये दोनों ही मंदिर शिव के द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से हैं। सोमनाथ का मंदिर ईसा से पूर्व स्थित था। इस पर मुगलों ने बार -बार आक्रमण किए। प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईसवी में इसका पुनर्निर्माण कराया और फिर गजनी के सुल्तान महमूद गजनवी ने इस पर आक्रमण कर दिया और मंदिर को तहस- नहस कर लूट लिया गया। इसके 750 वर्षों के बाद 1783 में महारानी अहिल्याबाई ने पुणे के पेशवा के साथ मिलकर ध्वस्त मंदिर के पास अलग मंदिर का निर्माण कराया। इसी तरह काशी के विश्वनाथ मंदिर को नया स्वरूप देने में भी अहिल्याबाई का योगदान था। काशी विश्वनाथ मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण 1780 में अहिल्याबाई ने ही करवाया था।

रानी अहिल्याबाई ने अपने राज्य के अंदर और राज्य के बाहर बहुत से निर्माण कार्य करवाये, जिनमें कई प्रसिद्ध मंदिर, घाट, किले और बावड़ियां प्रमुख हैं। उन्होंने बहुत सी धर्मशालाओं का भी निर्माण कराया। रानी अहिल्याबाई ने हिमालय से लेकर दक्षिण भारत तक कई नये मंदिरों का निर्माण करवाया। उन्होंने गया के विष्णु मंदिर, महेश्वर का किला, महल नर्मदा घाट बनारस के घाट, द्वारका के मंदिरों तथा उज्जैन के मंदिरों का जीर्णोद्धार व निर्माण करवाया। देवी अहिल्याबाई ने न केवल मंदिरों का निर्माण करवाया अपितु रास्तों में धर्मशालाओं और बावड़ियों का भी निर्माण करवाया, जिससे श्रद्धालुओें की यात्रा सुगम हो सके। अहिल्याबाई ने शास्त्रों के मनन चिंतन और प्रवचन हेतु मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति की।

अहिल्याबाई का मत था कि धन, वैभव तथा राजसत्ता प्रजा व ईश्वर की दी हुई वह धरोहर स्वरूप निधि है, जिसकी मैं प्रजाहित में उपयोग किए जाने हेतु संरक्षक हूं। प्रजा के सुख दुख की जानकारी वे स्वयं प्रत्यक्ष रूप से प्रजा से मिलकर लेती थीं तथा न्यायपूर्वक निर्णय देती थीं। उनके राज्य में जाति भेद को कोई मान्यता नहीं थी व समस्त प्रजा समान रूप से न्याय व आदर की पात्र थी। इसके परिणामस्वरूप अनेक बार लोग निजामशाही व पेशवाशाही शासन छोड़कर इनके राज्य में आकर बसने की इच्छा व्यक्त किया करते थे।अहिल्याबाई के राज्य में प्रजा सुखी व संतुष्ट थी। महारानी अहिल्याबाई का मत था कि प्रजा का पालन संतान की तरह करना ही राजधर्म है। रानी अहिल्याबाई एक धर्म परायण शासक थीं। उन्होंने जीवन भर अपने संपूर्ण साम्राज्य की मुगल आक्रमणकारियों से सुरक्षा की, अनेक युद्ध लड़े और विजयी हुईं।

भगवान शिव के प्रति समर्पण भाव- शिव के प्रति उनके समर्पण भाव का पता इस बात से चलता है कि महारानी राजाज्ञाओं पर हस्ताक्षर करते समय अपना नाम नहीं लिखती थीं अपितु पत्र के नीचे केवल श्रीशंकर लिख देती थीं। उनके रुपयों पर शिवलिंग और बिल्वपत्र का चित्र अंकित है। कहा जाता है कि तब से लेकर इंदौर के सिंहासन पर आये सभी राजाओं की राजाज्ञाएं जब तक कि श्रीशंकर के नाम से जारी नहीं होती थीं तब तक वह राजाज्ञा नहीं मानी जाती थी।

महिला हित के प्रति उनका योगदान- महारानी अहिल्याबाई ने महिलाओं के हित में कई कानून बनाये तथा उनकी शिक्षा पर बल देते हुए उस पर भी बहुत कार्य किया। उन्होंने स्त्रियों की भी बड़ी सेना बनायी थी आगे चलकर जिसका परिपालन रानी लक्ष्मीबाई ने भी किया।

अहिल्याबाई का व्यक्तिगत जीवन दुखों का सागर था, किंतु उनका त्याग इतना अनुपम, साहस इतना असीम, प्रतिभा इतनी उत्कृष्ट, संयम इतना कठिन और उदारता इतनी विशाल थी कि उनका नाम इतिहास के स्वर्णाक्षरों में लिखा जा चुका है। भारतीय संस्कृति जब तक जाग्रत है, तब तक अहिल्याबाई के चरित्र से हम सभी को प्रेरणा मिलती रहेगी।अहिल्याबाई होल्कर की मृत्यु भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी तदनुसार 13 अगस्त सन 1795 ईसवी को इंदौर राज्य में हुई थी।

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