महाशक्ति के रूप में उभरता भारत चीन को क्यों रास नहीं आ रहा?

23 जून 2020

कौशल अरोड़ा 

 

उभरती महाशक्ति भारत

दक्षिण एशियाई क्षेत्र में भारत पिछले कुछ वर्षों में नई महाशक्ति के रूप में उभर कर सामने आया है और वह चीन की विस्तारवादी नीतियों पर कड़ा रुख अपना रहा है। चीन को भारत का यह रवैया रास नहीं आ रहा है। 

नरेंद्र मोदी के केंद्रीय सत्ता में आने से पड़ोसी देशों के सम्बन्धों में तेजी से परिवर्तन हुआ। चीन के साथ सम्बन्ध ठीक करने के लिए 2014-2019 तक चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और नरेंद्र मोदी 18 बार मिले। इन बैठकों में राजनयिक स्तर, वन टू वन, सामरिक बैठक, व्यापारिक समिट व औपचारिक महाबलीपुरम की बैठक भी है। 

भारत- चीन सम्बन्धों को जानने के लिये देश में सरकारों के क्रिया कलाप और उनकी कूटनीतिक सोच को समझना अनिवार्य है। 1962-80 तक देश मे सरकारें अपनी स्वतंत्रता की ख्याति से ही चलती रहीं। देश की राजनीति में परिवारवाद की नीति, विरोधियों को शांत रखने व साम दाम दण्ड भेद से स्वयं के यापन में लगी रही। भारत-चीनी भाई भाई के नारे से स्टैपल वीजा पर उपजे विवाद इसी नीति का हिस्सा रहे हैं। 

वर्ष 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की विरासत की अनुभवहीन राजनीति ने चीन यात्रा से इन सम्बन्धों को बनाने की पहल की। वर्ष 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की यात्रा से दोनों देशों के मध्य प्रोटोकॉल, द्विपक्षीय करार, व्यवसायिक शिष्ट मंडल की बैठक उपभोक्तावादी नीति को स्वीकारते हुए प्रारम्भ हुए। इसी समय चीनी प्रीमियर ली पेंग के साथ मेंटेनेंस ऑफ पीस एंड ट्रैंक्विलिटी समझौते पर हस्ताक्षर हुए। यह समझौता बिना रक्षा विशेषज्ञों के सामरिक अध्ययन के अभाव में एलएसी पर शांति बनाये रखने का शीर्षक मात्र ही बनकर रह गये। इसके बाद वर्ष 1996 में चीनी राष्ट्रपति जियांग के साथ तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने एलएसी पर शांति स्थापना के लिये समझौता किया जिसका ड्राफ्ट भारतवंशी वाम समर्थकों द्वारा उन नीतियों के तहत बना। 

देश में पूर्ण बहुमत की सरकार के न होने से भी पड़ोसी राष्ट्रों के लिये अपनी नीतियों को लागू करवा पाना आसान रहा। वर्ष 2003 में अटल बिहारी की सरकार ने सीमा विवाद पर विशेष प्रतिनिधित्व करने वाली कार्यविधि की रचना सामरिक विशेषज्ञों के परामर्श से की, जो दूरगामी परिणाम वाली रही। 
देश में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2005 व 2013 में विवाद को रोकने के लिये तीन समझौते हुए, न कि विवाद रोकने के लिये संवाद बढ़ाने के विशेष प्रतिनिधित्व वाली कार्यविधि को अपनाने के। उस समय चीन में वर्तमान विदेश मंत्री एस जयशंकर भारत के राजदूत थे। इस नीति का परिणाम है कि देश में उपभोक्तावादी नीति फलने फूलने लगी। भारत का व्यापार तेजी से आत्मनिर्भरता की नीति से क्रय करो की नीति में परिवर्तित हो चला। देश के स्वायत्तता के विचारक इस ओर जागृत हुए। सरकार में अपनी सोच पर पहुंच बढ़ाते रहे। 

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेतृत्व में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के साथ रिश्तों में बदलाव लाने की पहल औपचारिक मिलन से प्रारम्भ की। विदेश नीति के मोर्चे पर सक्रिय रही वर्तमान सरकार पुराने हस्ताक्षरित ड्राफ्ट को बदल रही है। 
पंजाब के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह ने घुसपैठ के ख़िलाफ़ देश से एक साथ खड़े होने की अपील अपने ट्वीट से की है। लेकिन विपक्षी कांग्रेस के नेताओं द्वारा बिना कूटनीति को समझे सवाल खड़े करना राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनौती जैसा ही है। इससे न केवल द्विपक्षीय और राजनयिक संबंध प्रभावित होंगे बल्कि सीमा पर भी चुनौतियां बढ़ने की आशंका है। 

आत्मनिर्भर भारत के शंखनाद व कोरोना काल मे चीन की उपभोक्तावादी छवि विश्व के साथ दक्षेस में उजागर हुई है। दक्षेस में भारत चीन का विकल्प बनकर उभरा है। भारत में जितनी भी नेट-बैंकिंग वाली कम्पनियां है उनमें चीन का बड़ा निवेश है। जिनमें तेजी से गिरावट देखने को मिल रही है। बस यही चिन्ता चीन की उसे ऐसे कृत्य के लिये मजबूर कर रही है। यह बदलता भारत है जो ‘श्रेष्ठ भारत समृद्ध भारत’ की ओर बढ़ते अथक कदमों का प्रतिकार है। 

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