मुस्लिमों पर क्या सोचता है संघ..?

मुस्लिमों पर क्या सोचता है संघ..?

अरुण आनंद

मुस्लिमों पर क्या सोचता है संघ..?मुस्लिमों पर क्या सोचता है संघ..?

समान नागरिक संहिता को लेकर जो चर्चा इन दिनों चल रही है, उसका एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की अल्पसंख्यकों को लेकर क्या सोच है? क्या संघ मुस्लिम विरोधी है और इसीलिए केंद्र में सरकार में बैठे समविचारी लोग समान नागरिक संहिता को लाना चाहते हैं? लंबे समय से संघ के विरोधी उस पर अल्पसंख्यक विरोधी होने का आरोप लगाते रहे हैं। संघ की ओर से इसका स्पष्ट उत्तर भी नहीं आया। अस्सी के दशक के मध्य तक तो संघ में कोई प्रचार विभाग ही नहीं था। बाद में प्रचार विभाग की स्थापना हुई, लेकिन फिर भी बात नहीं बनी। संघ की कार्यशैली कुछ ऐसी रही है, जिसमें कार्यकर्ता बेकार की बहसों में उलझने या आरोप-प्रत्यारोप में समय गंवाने के बजाए खामोशी से संगठन का काम करने की ओर अधिक ध्यान देते हैं। इसलिए संघ का दृष्टिकोण इस विषय में पर्याप्त स्पष्टता से कभी सामने आ ही नहीं पाया।

आजकल UCC पर बहस छिड़ी है। अल्पसंख्यकों के बारे में RSS की सोच क्या है? आइए समझने का प्रयास करते हैं।

● 1925 में अपनी स्थापना के बाद से संघ की सोच यही रही है कि भारत में कोई भी पूजा पद्धति आप अपना सकते हैं और किसी को भी ‘बहुसंख्यक’ या ‘अल्पसंख्यक’ के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए।

● संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघः स्वर्णिम भारत के दिशा सूत्र’ में इस विषय पर विस्तार से चर्चा की है। उनका कहना है, भारत में मुस्लिमों और ईसाइयों के पूर्वज भी, हिंदू जीवन शैली का पालन करते थे। हमारे देश में, कई सहस्राब्दी में पूजा के कई रूप विकसित हुए और यहां आस्था या पूजा के स्वरूप और तरीकों के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था।

• एक भारतीय के रूप में जन्म लेने का अर्थ है भारतीय संस्कृति का वंशज होना; यह केवल जन्म लेने की शारीरिक क्रिया नहीं है, यह हमारे पूर्वजों द्वारा निर्धारित सांस्कृतिक लोकाचार के प्रति सचेत होना है।

● मातृभूमि कोई प्रादेशिक नक्शा नहीं है, वह एक महान आध्यात्मिक जीव है। भारत का सामाजिक-राजनीतिक केंद्र बिंदु हिंदू राष्ट्र है। इसलिए इस्लाम, ईसाई और अन्य मतों के संप्रदाय अभी भी भारत में खुले तौर पर और स्वतंत्र रूप से अपनी आस्था और कर्मकांडों का पालन करते हैं। इसलिए हिंदुत्व को एक संकीर्ण विचार के रूप में पेश करना बिल्कुल गलत है।

● संघ का हमेशा से मानना रहा है कि पूजा पद्धति के आधार पर समाज को विभाजित करना ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ और ‘वोट बैंक की राजनीति का मूल कारण है, जिसने समाज को बहुत नुकसान पहुंचाया है। अब तक के सभी छह सरसंघचालक इसी तर्ज पर बात करते रहे हैं। वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत भी स्पष्ट कह चुके हैं कि पूजा पद्धति कोई भी हो सकती है, पर इस देश में रहने वाले सभी लोगों का डीएनए एक है।

वर्तमान में संघ के सह सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य ने 2017 में एक साक्षात्कार में इस मुद्दे पर संघ के दृष्टिकोण को विस्तार से साझा किया था — ‘भारत में परंपरागत रूप से हम मानते हैं कि सभी रिलीजन एक ही गंतव्य की ओर ले जाते हैं, इसलिए समान हैं। भारत में 99 प्रतिशत मुसलमान और ईसाई मतांतरित हैं, जिनका मूल भारतीय है। फिर केवल मत परिवर्तन (रिलीजियस कन्वर्जन) करके उन्हें अल्पसंख्यक की श्रेणी में भला कैसे डाला जा सकता है?’

संघ के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर का कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों और प्रतिष्ठित मुस्लिम हस्तियों के साथ पत्रों का नियमित आदान प्रदान स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि अल्पसंख्यकों के साथ संघ का जुड़ाव कोई नई प्रक्रिया नहीं है। गोलवलकर ने कई साक्षात्कारों और भाषणों के साथ-साथ समाज के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के साथ प्रश्नोत्तर सत्रों में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया कि एक मुस्लिम या ईसाई होना ‘हिंदू राष्ट्र’ के लिए बाधा पैदा नहीं करता है क्योंकि मुस्लिम व ईसाई भी हिंदू राष्ट्र का उतना ही हिस्सा है जितना कोई अन्य हिंदू।

इतना स्पष्ट होते हुए भी संघ के विचारों को लेकर भ्रम की स्थिति बनी। शायद इसका कारण है कि विशुद्ध भारतीय विचार को समझने के लिए हमने पश्चिमी शब्दकोष और अवधारणाओं का उपयोग किया।

इसके कुछ उदाहरण देखिए। अंग्रेजी में ‘राष्ट्र को अक्सर राष्ट्र राज्य या नेशन-स्टेट शब्द से जोड़ा जाता है। यूरोप में राष्ट्र राज्य और विशेष रूप से एक ‘सेकुलर’ राष्ट्र राज्य का विकास मध्यकालीन युग की घटना है। यह सेकुलर नेशन स्टेट यानी पंथनिरपेक्ष राष्ट्र राज्य की अवधारणा चर्च की तानाशाही के विरुद्ध समाज की प्रतिक्रिया थी। दूसरी ओर भारत में ‘राष्ट्र’ की अवधारणा बहुत पुरानी है। यह यहां रहने वाले सभी लोगों की एक विशिष्ट और साझा संस्कृति पर आधारित थी।

यूरोप में जो देश पिछले 500 साल में अस्तित्व में आए वे समाज के कुछ वर्गों के राजनीतिक संघ थे जबकि भारत में ‘राष्ट्र’ का अर्थ ऐसे लोगों का संघ था जो सामान्य सांस्कृतिक मूल्यों को साझा करते थे। इन्हें लोकप्रिय रूप से हिंदू सांस्कृतिक मूल्यों के रूप में जाना जाता है। इसे वैकल्पिक रूप से ‘सनातन धर्म’ के सांस्कृतिक मूल्य भी कहते हैं। ये दोनों पर्यायवाची हैं। यानी ‘हिंदू राष्ट्र’ कुछ सभ्यतागत और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर जीवन जीने के उस तरीके को दर्शाता है, जिसका अभ्यास भारत के लोग अपने दैनिक जीवन में करते हैं। ये परंपराएं और सभ्यतागत व सांस्कृतिक मूल्य ‘हिंदुत्व’ की अभिव्यक्ति हैं। अंग्रेजी में इसका अनुवाद ‘हिंदूनेस’ है।

RSS की विश्वदृष्टि यह है कि हिंदुत्व प्रत्येक मनुष्य के भीतर दिव्यता को पहचानने और साथ ही यह स्वीकार करने में निहित है कि पूजा पद्धति एक व्यक्तिगत मामला है। और रिलीजन या पंथ केवल पूजा के एक विशिष्ट तरीके को दर्शाता है जो नितांत व्यक्तिगत मामला है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और RSS के जानकार हैं)

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1 thought on “मुस्लिमों पर क्या सोचता है संघ..?

  1. ऐसे विचार एक हिंदू के हो सकते हैं। ये राय हिंदू लेखक की हो सकती है। ये विचार हम अपने को संतुष्ट करने के लिए व्यक्त कर रहे हैं। लेकिन इस्लाम में ऐसी बातों के लिए कोई स्थान नहीं है। इस्लाम की मूल सोच कभी नहीं बदली ना किसी को अलग राय रखने का हक है। यदि कोई मुसलमान, लेखक महोदय और अन्य संघ अधिकारी गुणों की की राय से सहमति जताते तो उसे इस्लामीक लोग ईमान का सच्चा नहीं मानेंगे।‌

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