कुछ संस्कार जन्म से प्राप्त होते हैं, कुछ संस्कार सत्संग से प्राप्त होते हैं – डॉ. मोहन भागवत
मंचासीन आचार्यश्री महाश्रमण एवं सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत
भीलवाड़ा, 20 सितंबर। आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भीलवाड़ा के तेरापंथ नगर, आदित्य विहार में चातुर्मास प्रवास के दौरान धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कि हमारे जीवन में तीन तत्वों का महत्व है – विचार, आचार और संस्कार। विचार व आचार नदी के किनारों के समान हैं। इस पर संस्कार पुल का काम करता है। संस्कार आस्था का विषय है, अच्छे आचार, अच्छे विचार से व्यक्ति के संस्कार बदले जा सकते हैं।
आचार्यश्री ने श्रीमद् भगवत् गीता में वर्णित अर्जुन श्री कृष्ण संवाद को स्मरण करते हुए कहा कि दुनिया में पाप बढ़ने के दो ही कारण हैं काम और क्रोध। जिसके कारण व्यक्ति पाप की ओर अग्रसर होता है। मनुष्य राग, द्वेष, काम, क्रोध को नियंत्रित कर मनुष्यत्व की ओर बढ़ कर अपने पतन से बचाव कर सकता है। जीवन में स्वाध्याय के कारण ही हमारा संस्कार उच्च होता है, यह निरंतर अभ्यास से ही संभव है। यदि अच्छे विचारों का प्रभाव संपूर्ण देश में फैलता है तो देश का गौरव पूरे विश्व में फैलता है। सच्चाई और अच्छाई जहां से मिले, जिस माध्यम से मिले, जिस तरीके से मिले हमें उसे ग्रहण करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि आस्था तथा आचार जीवन में महत्वपूर्ण तत्व हैं। आत्मा जितनी निर्मल रहती है, व्यक्ति का आचार भी उतना ही निर्मल रहता है। हमारी तो पांच इंद्रियां हैं, उनमें से दो इंद्रियां ज्ञान की पुष्टि के लिए हैं। देखना व सुनना, यह दो इंद्रियां हमारे मन के अंदर जिस प्रकार की चीजें डालेंगी हमारा आचार- विचार उसी प्रकार से बनेगा। जिस प्रकार हमारा संकल्प होता है, उसी प्रकार से हमारा आचरण बन जाता है।
कुछ संस्कार जन्म से प्राप्त होते हैं, कुछ संस्कार सत्संग से प्राप्त होते हैं
धर्म सभा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि गुरु का सान्निध्य व आशीर्वाद पाकर शिष्य गुरु से दो कदम आगे बना रह सकता है, इसका प्रयास गुरु द्वारा किया जाता है। आचार्य श्री का कार्यक्षेत्र आध्यात्मिक है जो सभी बातों का आधार है। हमारा कार्य क्षेत्र मुख्यतः भौतिक संसार है। संसार में एक दूसरे के साथ आत्मीयता महत्वपूर्ण है।
एक दूसरे की सहायता करते हुए आगे बढ़ना यह कार्य है धर्म का। सनातन धर्म में हम सब एक दूसरे के दुश्मन नहीं हैं, हमारा सब का नाता आपस में भाई का है। जो मेरे लिए अच्छा है, वह दूसरों के लिए भी अच्छा है। जो मुझे अच्छा नहीं लग रहा, वह दूसरों को भी अच्छा नहीं लगेगा। इससे मन में करुणा उत्पन्न होती।
सत्य अहिंसा अस्तेय का विचार हमारे यहां सर्वत्र है। मन को अगर हमने सही दिशा में लगाया तो वह पूर्ण शक्ति के साथ वाणी विचार और दर्शन में प्रकट होगा। कुछ संस्कार जन्म से प्राप्त होते हैं, कुछ संस्कार सत्संग से प्राप्त होते हैं।
गुरु अथवा किसी को अगर कुछ परिवर्तन करवाना है तो उसको उसी प्रकार बन करके इस समाज जीवन में रहना पड़ता है जैसा वह अन्य व्यक्तियों से करवाना चाहता है। गुरु को अपने शिष्यों से दो कदम आगे रहकर उन सब सद्गुणों में अपने को एक आदर्श रूप में प्रस्तुत करना होता है।
शिष्य को भी लगे की गुरु के सान्निध्य में मैं खड़ा हूं तो मेरे सिर पर उनका हाथ है। मैं पहले से कुछ ऊंचा उठ रहा हूं। अपने कारण दूसरों को कष्ट नहीं हो, यही आचार है। यह आचार बनता कैसे हैं, अपने जीवन में छोटे-छोटे आचरणों में ही आचार बनता है।
उत्तम आचार के लिए अपनी छोटी-छोटी बातों को आदतों में लाना इसे सरलता से अपने जीवन में उतारना, अगर यह प्रारंभ हुआ तो आचरण में आचार आ जाएगा। वह व्यक्ति सतपथ पर जाने अनजाने में भी बढ़ता रहता है। माता की अगर पुत्र से ममता है तो पुत्र हमेशा माता से जुड़ा रहता है।
आज दुनिया में पहली समस्या है संस्कारों की. इसके लिए मैं कितना मजबूत हूं, दुनिया में चलने वाले सभी प्रपंच मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, इसके लिए स्वयं को मजबूत होना पड़ेगा। बच्चों को जो सही है वह बताना पड़ेगा। अच्छा सुनना, अच्छा देखना, अच्छा पहनना, यही संस्कारों की सीढ़ी है। मेरा परिवार आचरण का केंद्र बने।
कार्यक्रम के अंत में भीलवाड़ा के तेरापंथ समाज द्वारा सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत व उनके साथ पधारे सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं का सम्मान स्मृति चिन्ह देकर किया।