अब राजस्थान की पहचान बनेगा मेवाड़ का लोकनाट्य गवरी
उदयपुर, 17 सितम्बर। उदयपुर संभाग के बांसवाड़ा, डूंगरपुर, राजसमंद और उदयपुर के गांवों में किया जाने वाला लोकनाट्य गवरी मेवाड़ की शान है। यह लोकनाट्य यहॉं के जनजाति समुदाय में आदिमकाल से होता आ रहा है। अब यह पूरे राजस्थान प्रदेश की पहचान बनेगा।
माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान ने कक्षा 10वीं के पाठ्यक्रम में गवरी लोकनाट्य पर एक पाठ शामिल किया है। बोर्ड ने ‘राजस्थान का इतिहास एवं संस्कृति’ नामक इतिहास की पुस्तक में इसे शामिल किया है। इस पुस्तक के अध्याय आठ में राजस्थान के लोकनाट्य में गवरी का विस्तार से वर्णन किया है। यूं तो राजस्थान के मेवाड़ के जनजाति क्षेत्र का हर व्यक्ति बचपन से गवरी में शामिल होता आया है। किन्तु अब इसे पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने से उन्हें इस लोकनाट्य का सैद्धांतिक ज्ञान भी मिल पाएगा।
शिक्षा विभाग के सहायक निदेशक नरेंद्र टांक का कहना है कि- “नए सत्र से कक्षा दसवीं में गवरी लोकनृत्य से संबंधित अध्याय शामिल किया गया है। इससे गवरी को प्रादेशिक पहचान मिलेगी। मेवाड़ के कई स्कूलों में दूसरे अंचल तथा संभागों के शिक्षक सेवा दे रहे हैं। वह भी गवरी के बारे में पूरी जानकारी नहीं रखते। शिक्षा में गवरी को शामिल किए जाने के बाद अब उन्हें इसका अध्ययन तथा अध्यापन आसान होगा।”
पुस्तक से मिलेगी यह जानकारी
वादन, संवाद, प्रस्तुतिकरण और लोक-संस्कृति के प्रतीकों में मेवाड़ के भीलों की गवरी अनूठी है। इसमें पौराणिक कथाओं, लोक-गाथाओं और लोक-जीवन की विभिन्न झांकियों पर आधारित नृत्य नाटिकाएं होती हैं। गवरी एक धार्मिक लोकनाट्य है, जो शिव भस्मासुर की कथा पर आधारित है। रक्षाबंधन के दूसरे दिन कृष्णा एकम् को खेड़ा देवी से भोपा गवरी मंचन की आज्ञा लेता है। इसके बाद पात्रों के वस्त्र बनते हैं। पात्र मंदिरों में ‘धोक’ देकर नव-लाख देवी-देवता, चौसठ योगिनी और बावन भैरू को स्मरण करते हैं। गवरी सवा महीने तक खेली जाती है। इस अवधि में शराब, मांस और हरी सब्जी का निषेध होता है। जिस गांव से गवरी आरम्भ होती है वह इसका खर्च वहन करता है।
गवरी का मुख्य पात्र बूढिय़ा भस्मासुर का जप होता है। ‘राया’ स्त्री रूप में पार्वती और विष्णु की प्रतीक होती है। झामट्या लोकभाषा में कविता पाठ करता है। खड्कड्या उसे दोहराते हुए जोकर का काम करता है। बूढिय़ा खट्कड्ये के संवाद में पूरक बनता है। अन्य पात्र ‘खेला’ कहलाते हैं। गवरी में केवल पुरूष पात्र होते हैं। इसमें गणपति, भमरिया, भेआवड़, मीणा, कान-गूजरी, जोगी, खाड़लिया भूत, लाखा बणजारा, नट्ड़ी तथा माता और शेर के खेल होते है। इन नाटकों की कथाएं भागवत, मार्कण्डेय पुराण, इतिहास, लोक परम्परा और जन संस्कृति पर आधारित होती हैं।
भील समाज की पौराणिक मान्यता है कि गवरी के मंचन से गांव में प्राकृतिक आपदा नहीं आती। राजस्थान के पश्चिम क्षेत्र में स्थित वनवासी अंचल का यह लोकनाट्य गवरी वाकई में अनूठा है। अंचल के गांवों का यह पारम्परिक लोकनाट्य न सिर्फ भील समाज के लोगों में आपसी सामाजिक समरसता बढ़ाता है बल्कि इसके माध्यम से सामाजिक कुरीतियों को भी दूर करने का प्रयास किया जाता है।