विकृत विमर्श को ध्वस्त करता सेंगोल
बलबीर पुंज
विकृत विमर्श को ध्वस्त करता सेंगोल
नए संसद भवन में स्थापित सेंगोल (राजदंड) का विरोध क्यों हो रहा है? कांग्रेस ने जहां इस राजदंड के पीछे के इतिहास को ‘व्हाट्सएप विश्वविद्यालय’ से जनित बताकर इसे ‘फर्जी’, तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने वैदिक मंत्रों के साथ राजदंड की स्थापना को ‘देश को पीछे धकेलने वाला’ बता दिया। वामपंथियों ने सेंगोल को ‘मध्यकालीन सामंतवादी व्यवस्था’, तो समाजवादी पार्टी ने इसे ‘ब्राह्मणवादी आधिपत्य’ का प्रतीक कह दिया। इस बौखलाहट के मुख्य दो कारण हैं। एक तो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अधिकतर विरोधी दलों की घृणा और दूसरा, सत्ता-हस्तांतरण हेतु ‘सेंगोल’ की महती भूमिका और उसका गौरवशाली इतिहास है। ‘सेंगोल’ आधारित परंपरा समाज में मिथकों पर आधारित कई वैचारिक अधिष्ठानों को ध्वस्त करती है।
ब्रितानियों ने भारत में अपने राज को शाश्वत बनाने हेतु कई कमजोर कड़ियों पर काम करते हुए विभाजनकारी नैरेटिव स्थापित किए थे। इसी में फर्जी ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ के आधार पर ‘दक्षिण भारत बनाम उत्तर भारत’ और हिंदू समाज को कमजोर करने हेतु ‘ब्राह्मण बनाम गैर-ब्राह्मण’ का दूषित नैरेटिव भी शामिल था। स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक नेतृत्व को ब्रितानी कुटिलता से छुटकारा पा लेना चाहिए था। परंतु जिन लोगों के कंधों पर राष्ट्र के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी थी, उसका एक बड़ा वर्ग दुर्भाग्य से उसी औपनिवेशिक शिक्षा पद्धति का उत्पाद था। तत्कालीन सरकारों की अनुकंपा से शैक्षणिक आदि महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त वामपंथियों, जिनका वैचारिक उद्देश्य ही भारतीय संस्कृति का समूल नाश करना है और इसके परिणामस्वरूप उन्होंने पाकिस्तान के जन्म में ब्रितानियों और मुस्लिम लीग की सहायता भी की— उन्होंने इन विषैले नैरेटिव को ‘सेकुलरवाद’ के नाम पर और अधिक मजबूत बना दिया।
हिंदू समाज अपने मूल सर्वस्पर्शी और समरसपूर्ण अधिष्ठान को भूलकर अस्पृश्यता जैसी कुप्रथाओं का शिकार हो गया था। इसके परिमार्जन हेतु समाज के भीतर कई आंदोलन चलाए गए। संविधान निर्माता डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर के अनुसार, छुआछूत के लिए ब्राह्मण जिम्मेदार नहीं थे। परंतु फिर भी इन सामाजिक कुरीतियों को बढ़ावा देने का आरोप ब्राह्मणों पर ही लगाया गया। यह स्थिति तब है, जब इस्लामी व्यवस्था में अनुसूचित समाज भी शेष गैर-मुस्लिमों की भांति अंततोगत्वा ‘काफिर’ ही है। विभाजन के बाद पाकिस्तान जाकर मंत्री बने और त्यागपत्र देकर पुन: भारत लौटे जोगेंद्रनाथ मंडल की हृदय विदारक चिट्ठी इसका प्रमाण है।
वास्तव में, ब्राह्मण विरोधी प्रपंच का लक्ष्य हिंदू समाज के मेरुदंड को ध्वस्त करना है। यह वैरभाव केवल सवर्णों के विरुद्ध ही नहीं, अपितु समस्त हिंदुओं के विरुद्ध भी है। इसकी जड़ें ‘जेसुइट मिशनरी’ फ्रांसिस ज़ेवियर के 16वीं शताब्दी में भारत आगमन में भी मिलती है। तब ब्राह्मण ही हिंदू समाज में चर्च प्रेरित मतांतरण अभियान में सबसे बड़े बाधक थे। इसका प्रमाण ज़ेवियर द्वारा 31 दिसंबर 1543 को रोम के तत्कालीन शासक को लिखे पत्र में मिलता है, जिसमें उसने कहा था, “यदि ब्राह्मण विरोध नहीं करते, तो हम वहां सभी (हिंदुओं) को ईसा मसीह के शरण में ले आते।” कालांतर में, जोवियर मानसबंधुओं ने ब्रितानियों के साथ मिलकर अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु ब्राह्मणों का दानवीकरण करना प्रारंभ किया। इसके लिए उन्होंने कई हिंदू शास्त्रों-ग्रंथों की विकृत व्याख्या की। इसी तत्कालीन चर्च-ब्रितानी संयोजन से कालांतर में ‘द्रविड़ आंदोलन’ का उदय हुआ, जिसने ब्राह्मण विरोधी उपक्रम को स्वतंत्रता पूर्व भारत-विरोधी और फिर विशुद्ध हिंदू-विरोधी बना दिया। परंतु ‘सेंगोल’ घटनाक्रम ने इस नैरेटिव को एकाएक ध्वस्त कर दिया।
‘सेंगोल’ का संबंध चोल साम्राज्य से रहा है। प्रत्येक चोल शासक द्वारा अपने उत्तराधिकारी को ‘सेंगोल’ सौंपना, सत्ता-हस्तांतरण का शक्तिशाली प्रतीक था। इसे संपन्न कराने का दायित्व भगवान शिव के परमभक्त गैर-ब्राह्मण अधीनमों (मठों) पर रहा। 14 अगस्त 1947 में जिस थिरुवावदुथुरई अधीनम के आशीर्वाद से ब्रितानियों से भारत को सत्ता-हस्तांतरण का संस्कार कराया था, वह मठ 16वीं शताब्दी से सेवारत है। गत 28 मई को नए संसद भवन में ‘सेंगोल’ की विधिवत स्थापना हेतु तमिलनाडु से जिन अधीनम् संतों को आमंत्रित किया गया था, वे सभी शिवभक्त गैर-ब्राह्मण हैं। इस परंपरा से स्थापित होता है कि हिंदू संस्कृति के केंद्र में ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य जातियों की भी बराबरी की हिस्सेदारी है।
स्पष्ट है कि भारत में जिनके राजनीतिक विमर्श में हिंदुओं को जातियों के नाम पर बांटने और ब्राह्मणों का दानवीकरण करना है, उनके लिए ‘सेंगोल’ की अमृतकाल यात्रा और वर्ष 1947 में तत्कालीन दिल्ली शासन द्वारा अनुष्ठान के लिए तमिलनाडु में गैर-ब्राह्मण अधीनम से सामाजिक-सांस्कृतिक सत्यापन लेना— बिल्कुल भी उनके विषैले एजेंडे के अनुकूल नहीं। ऐसे में उनकी बौखलाहट स्वाभाविक प्रतीत होती है।
नए संसद भवन में स्थापित ‘सेंगोल’ को स्वतंत्र भारत ने भले ही भुला दिया था, परंतु 1947 में तत्कालीन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं, कई पुस्तकों और थिरुवावदुथुरई अधीनम के अभिलेखों में स्पष्ट रूप से अंकित है। 22 जुलाई 2022 को इसी प्रसिद्ध दैनिक में ‘वैदिक संस्कृति और परंपराओं की अनदेखी’ शीर्षक से प्रकाशित मेरे आलेख में इन सभी वृतांतों का विस्तृत उल्लेख है। अब जो समूह अक्सर कुतर्क करते हुए भारत को ‘एक राष्ट्र’ मानने से इनकार करता है और इसके लिए वे ‘तमिल/कन्नड़ बनाम संस्कृत/हिंदी’ और ‘दक्षिण बनाम उत्तर भारत’ को आधार भी बनाता है, उस नैरेटिव को भी ‘सेंगोल’ ने जमींदोज कर दिया है।
नए संसद भवन में वैदिक मंत्रोच्चार के साथ पवित्र ‘सेंगोल’ की स्थापना मजहबी नहीं, अपितु अनादिकाल से चली आ रही लोकतांत्रिक, बहुलतावादी और पंथनिरपेक्षी भारतीय संस्कृति का प्रतिरूप है। सेंगोल उसी भावना का विस्तार है, जिसके अंतर्गत संविधान की हस्तलिखित मूल प्रतियों में रामायण, महाभारत आदि वैदिक परंपरा के चित्र बनाए गए थे। ‘सेंगोल’ दर्शाता है कि शासक, विधि-नियम के अधीन है, तो जनसेवा उसका एकमात्र धर्म। युगों-युगों से भारत ‘धर्म’-प्रधान रहा है। यहां धर्म का अर्थ ‘मजहब’ (रिलीजन) से नहीं है। भारतीय संस्कृति में ‘धर्म’ अति व्यापक और उदार है। इसका आलोक ‘सहिष्णु’ या ‘सहनशील’ नहीं, अपितु वह विशाल मनोभाव है, जहां मतभिन्नता को स्वीकार्यता मिलती है। भगवान गौतम बुद्ध और सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानकदेव साहिब- इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है।
स्वतंत्र भारत में वैदिक अनुष्ठान से किसी भी राजकीय कार्यक्रम का संचालन ‘सेकुलर मूल्यों का अपमान’ नहीं, अपितु समरस और मानवीय बहुलतावादी दर्शन की अभिव्यक्ति है। सदियों पहले जब पारसी, यहूदी, सीरियाई ईसाई अपने उद्गमस्थान पर मजहबी प्रताड़ना का शिकार होकर भारत में शरण लेने आए, तब उनका न केवल स्थानीय हिंदू शासकों और समाज द्वारा स्वागत किया गया, साथ ही उन्हें उनकी पूजा-पद्धति का अनुसरण करने की सुविधा भी दी। यही नहीं, भारत में पैगंबर साहब के जीवनकाल में अरब के बाहर विश्व की पहली मस्जिद— ‘चेरामन जुमा मस्जिद’ का निर्माण भी वर्ष 629 में तत्कालीन केरल के हिंदू राजा चेरामन पेरुमल भास्कर रवि वर्मा ने कोडुंगल्लूर में करवाया था। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि समावेशी वैदिक दर्शन न तो ‘काफिर-कुफ्र’ और ‘हीथन/पेगन’ अवधारणा जैसा असहिष्णु है और ना ही अनिश्वरवादी वामपंथ जैसा संकुचित। विगत सहस्राब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप के जिन क्षेत्रों में मजहबी ‘एकेश्वरवाद’ का कब्जा हुआ, वहां स्थानीय हिंदू-बौद्ध-सिख-जैन अनुयायी नगण्य हो गए और बहुलतावाद-लोकतंत्र रूपी जीवनमूल्यों का ह्रास हो गया। पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और शेष खंडित भारत में कश्मीर— इसका प्रमाण है।
सच तो यह है कि नई संसद में ‘सेंगोल’ के अनुष्ठान का विरोध और आलोचना उसी मानसिकता का विस्तार है, जो प्रभु श्रीराम के व्यक्तित्व और उनके समय बने रामसेतु को काल्पनिक, तो भारत को सनातन राष्ट्र नहीं, अपितु अलग-अलग राज्यों का समूह मात्र मानता है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)