विश्व आदिवासी दिवस : इस षड्यंत्र को समझने की आवश्यकता है
जयपुर। मीणा हिन्दू नहीं हैं, भील हिन्दू नहीं है, हमें सरना कोड के नाम पर अलग धर्म चाहिए, अलग पहचान चाहिए। ये नारे पिछले कुछ समय से तेज होते जा रहे हैं और विश्व मूल निवासी दिवस जो हमारे यहां विश्व आदिवासी दिवस (World Tribal Day) के रूप में मनाया जा रहा है, पर तो और भी तेज हो जाते हैं। लेकिन एक विदेशी विचार और परम्परा को हम जिस रूप में यहां स्वीकार कर रहे हैं, उसके दुष्परिणामों और इस विचार के पीछे के षड्यंत्र को समझने की बहुत जरूरत है, क्योंकि यह विचार ना सिर्फ समाज को तोड़ रहा है, बल्कि देश के राजनीतिक, आर्थिक और भौगोलिक ताने-बाने को भी गम्भीर नुकसान पहुंचाने की ओर से बढ़ रहा है।
राजस्थान की ही बात करें तो प्रदेश के दक्षिणी हिस्से के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र से अलग भील प्रदेश बनाने की मांग जोर पकड़ती जा रही है। पहले जहां यह मांग सिर्फ राजस्थान तक सीमित थी, वहीं अब कहा जा रहा है कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के जो आपस में लगते हुए जनजातीय जिले हैं, उन्हें मिला कर एक भील प्रदेश बना दिया जाए। यह विघटन की एक ऐसी शुरूआत है जो आगे जा कर ना जाने कहां थमेगी।
विश्व मूल निवासी दिवस एक विदेशी विचार है जो वहां की परिस्थितियों के अनुसार उपजा है। अमेरिका में तो इसे, वहॉं के मूल निवासियों के नर संहार का दिन मानते हुए विरोध दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में यह विचार कोई महत्व नहीं रखता है क्योंकि यहां सभी मूल निवासी हैं। अंग्रेजी इतिहासकारों ने अपनी सुविधा के अनुसार जो काल्पनिक इतिहास हम पर थोपा है, वह चाहे कुछ भी कहता हो, लेकिन भारतीय पौरााणिक और सनातन इतिहास यह स्पष्ट तौर पर बताता है कि भारत में रहने वाले सभी लोग यहां के मूल निवासी हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि कुछ लोग शहरों में रहते हैं, कुछ गांवों में और कुछ वनों में और यदि रहवास के आधार पर दिवस मनाया जाए तो यह बहुत अजीब संकल्पना लगेगी।
फिर भी कुछ सामाजिक, राजनीतिक कारणों से हमारे यहां आदिवासी दिवस मनाने की परम्परा शुरू हो गई है और हमारी सरकारें इस दिन सरकारी अवकाश भी घोषित करने लगी हैं। राजनीतिक मजबूरियों के अंतर्गत जो कदम उठाए जाते हैं, वे अक्सर बहुत अच्छे परिणाम नहीं देते हैं, क्योंकि उनके पीछे वोट बैंक की सोच होती है। कुछ ऐसा ही इस मामले में भी होता दिख रहा है।
राजस्थान की ही बात करें तो प्रदेश के बांसवाडा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, सिरोही, उदयपुर जैसे शांत और प्राकृतिक दृष्टि से सुरम्य जिले पिछले कुछ समय से ना सिर्फ अशांत हैं, बल्कि एक विघटनकारी विचार के फैलाव के कारण अलग ही दिशा की ओर बढ़ते दिख रहे हैं। यही कारण है कि भील हिन्दू नहीं हैं, मीणा हिन्दू नहीं हैं जैसे नारे इस इलाके में सुनाई देने लगे हैं। यह स्थिति कुछ वर्ष पहले तक नहीं थी और प्रकृति पूजक समाज अपनी मान्यताओं और परम्पराओं के साथ शांतिपूर्ण ढंग से रह रहा था। वामपंथी विचार की विषबेल यहां बोई गई और राजनीतिक कारणों से उसे प्रश्रय दिया गया और अब इसके परिणाम जिस रूप में सामने आने लगे हैं, वे भविष्य के लिए बहुत बडी चुनौती साबित होने वाले हैं।
शिक्षक भर्ती के मामले को लेकर डूंगरपुर में जिस तरह का उग्र आंदोलन हुआ और उस आंदोलन के दौरान हुई सभाओं में जिस तरह के विचार व्यक्त किए गए, वे इस पूरे क्षेत्र के भविष्य का एक भयावह चित्र प्रस्तुत कर रहे थे। इस आंदोलन के बाद ही प्रदेश की विधानसभा तक में हमें यह सुनाई दिया कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं। वे हिन्दू परम्पराओं और देवी-देवताओं को नहीं मानते हैं।
इसके बाद हाल में जयपुर के आमागढ़ किले के विवाद को जिस तरह का रंग देने के प्रयास किए गए, उसने यह स्पष्ट संकेत दे दिए कि प्रदेश के दक्षिणी हिस्से में आकार पा रहा यह विघटनकारी विचार प्रदेश के पूर्वी हिस्से में भी जगह बना रहा है, जहां आदिवासी समाज का एक वर्ग बहुतायत में है। आमागढ़ विवाद की जड़ में जो निर्दलीय विधायक थे, वे इसी पूर्वी क्षेत्र से आते हैं।
अब अपनी तथाकथित अलग पहचान का यह विचार एक अगल राज्य की मांग की ओर बढ़ रहा है। भारतीय ट्राइबल पार्टी पिछले दिनों इस मांग को लेकर चार राज्यों – राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य प्रदेश के जनजातीय जिलों के 30 से ज्यादा उपखण्ड मुख्यालयों पर प्रदर्शन और ज्ञापन आदि देने का काम कर चुकी है। भील प्रदेश की मांग का विचार पहले भी आता रहा है, लेकिन यह अब तक राजस्थान तक ही सीमित था। राजस्थान के जनजाति बाहुल्य वाले जिलों को भील प्रदेश बनाने की मांग उठ चुकी है, लेकिन अब इसका चार राज्यों तक पहुंचना एक अलग ही संकेत दे रहा है जो सामाजिक ताने बाने के लिए अच्छा नहीं है।
देश का पूर्वोत्तर हिस्सा पहले ही ऐसी मांगों के चलते लम्बे समय तक अशांत रह चुका है और अब भी पूरी शांति हुई नहीं है। राजस्थान और गुजरात देश के सीमावर्ती राज्य हैं और सीमापार बैठे लोग इसी ताक में रहते हैं कि कैसे भारत में विघटनकारी ताकतों को आगे बढ़ाया जाए। यह हम पंजाब और कश्मीर में देख चुके हैं।
ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि अलग पहचान के इस विचार को मजबूत ना होने दिया जाए। प्रकृति को पूजने वाले समाज की अपनी परम्पराएं और मान्यताएं हो सकती हैं। भारत में तो हर दस कोस पर भाषा, व्यवहार, जीवनशैली, खान-पान सब बदल जाता है, लेकिन इस आधार पर अलग पहचान की मांग, धर्म की मांग, अलग प्रदेश की मांग उचित नहीं कही जा सकती। भारत का संविधान इस मामले में पहले ही बहुत उदार है और हर व्यक्ति को अपने विचार, परम्परा और मान्यताओं के साथ जीने का अधिकार देता है ऐसे में सिर्फ राजनीतिक कारणों के चलते एक वृहत्तर समाज को खंड-खंड करने के प्रयास निंदनीय हैं।