शरीफ बनकर पाकिस्तान लौटे ‘नवाज’

शरीफ बनकर पाकिस्तान लौटे ‘नवाज’

बलबीर पुंज

शरीफ बनकर पाकिस्तान लौटे ‘नवाज’शरीफ बनकर पाकिस्तान लौटे ‘नवाज’

क्या भारत-पाकिस्तान के संबंध अमेरिका-कनाडा जैसे हो सकते हैं? यह प्रश्न इसलिए पुन: प्रासंगिक हो गया है, क्योंकि गत शनिवार (21 अक्टूबर) को चार वर्ष के निर्वासन के पश्चात अपने देश लौटे पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भारत सहित सभी पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते बेहतर करने की पैरवी की है। क्या नवाज की बातों पर विश्वास किया जा सकता है? नवाज 2017 के बाद फिर से पाकिस्तान का नेतृत्व पाने का प्रयास कर रहे हैं। क्या वे अपने मुख्य एजेंडे में भारत के साथ संबंधों को मधुर बनाने के प्रयासों से इस इस्लामी देश में किसी राजनीतिक लाभ की अपेक्षा कर सकते हैं?

पाकिस्तान लौटने के बाद लाहौर में रैली करते हुए नवाज ने जो कुछ कहा, उसे तीन बिंदुओं में समाहित किया जा सकता है। पहला— कोई भी देश अपने पड़ोसियों से लड़ते हुए प्रगति नहीं कर सकता। दूसरा— भारत चांद पर पहुंच गया है और हम दूसरे मुल्कों से कुछ अरब डॉलर्स के लिए मिन्नतें कर रहे हैं। तीसरा— 1971 में स्वतंत्रता प्राप्त करने वाला बांग्लादेश भी पाकिस्तान से आर्थिक मामलों में आगे निकल गया है। यह ठीक है कि नवाज शरीफ की छवि और राजनीति, तुलनात्मक रूप से आर्थिक मोर्चे पर अच्छा करने वाले शासक की रही है, जो मुखर तौर पर भारत-विरोधी भी नहीं रहे हैं। नवाज के विचारों से भले ही ‘सकारात्मकता’ की अनुभूति होती हो, परंतु क्या यह पाकिस्तान के ‘डीप स्टेट’ अर्थात्— पाकिस्तानी सेना और मुल्ला-मौलवियों को स्वीकार होगा?

यह सच है कि पाकिस्तानी सेना के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन से नवाज शरीफ अपने मुल्क वापस लौटने में सफल हुए है। क्या इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि पाकिस्तान में सेना की पसंद का प्रधानमंत्री होना या फिर किसी प्रधानमंत्री की पसंद का सेनाध्यक्ष होना, दोनों के लिए लाभकारी होता है? इसका उत्तर पिछले एक दशक के घटनाक्रम में मिल जाता है। जब 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ समारोह में शामिल होने के लिए तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अन्य सार्क देशों की भांति निमंत्रण मिला, तब वे पाकिस्तानी सत्ता-अधिष्ठान (सेना सहित) के विरोध के बाद भी दिल्ली पहुंच गए। यही नहीं, जब जुलाई 2015 में रूस स्थित उफा में ‘शंघाई सहयोग संगठन’ की बैठक से इतर नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री मोदी के साथ चर्चा की, तब कश्मीर का उल्लेख किए बिना साझा वक्तव्य जारी कर दिया गया। जब वर्ष 2016 में नवाज ने, बतौर प्रधानमंत्री, अपने पसंदीदा जनरल कमर जावेद बाजवा को तत्कालीन पाकिस्तानी सेना की कमान सौंपी, तब उन्होंने पाकिस्तानी की छवि सुधारने हेतु सेना से आतंकवादी गतिविधियों को रोकने का आह्वान कर दिया। यह सब पाकिस्तान में सेना, कट्टरपंथी मुसलमानों और जनमानस के बड़े वर्ग को रास नहीं आया।

इसी पृष्ठभूमि में तब नवाज को जुलाई 2017 में पाकिस्तानी सर्वोच्च न्यायालय ने अयोग्य ठहराकर प्रधानमंत्री पद से अपदस्थ कर दिया गया। इसकी पटकथा स्वयं पाकिस्तानी सेना ने लिखी थी, क्योंकि जिस जांच समिति की रिपोर्ट को आधार बनाकर नवाज पर कार्रवाई की गई थी, उसमें आईएसआई और सेना के अधिकारी भी शामिल थे। 1947 से पाकिस्तान का इतिहास बताता है कि उसका सेनाप्रमुख अपने राजनीतिक आकाओं की तुलना में अपनी महत्वकांक्षाओं, संस्था और वैचारिक अधिष्ठान के प्रति अधिक वफादार होता है। नवाज से पहले (1999), इस्कंदर मिर्जा (1958) और जुल्फिकार अली भुट्टो (1977) सेना के तख्तापलट का दंश झेल चुके हैं। लियाकत अली (1951) और बेनजीर भुट्टो (1995) इससे बचने में सफल तो रहे, किंतु कालांतर में अपनी जान से हाथ धो बैठे। जनरल बाजवा के कार्यकाल में इमरान खान को भी अप्रैल 2022 में प्रधानमंत्री पद गंवाना पड़ा था।

जिस प्रकार नवाज को किनारा करके पाकिस्तानी सेना ने वर्ष 2018 में इमरान खान को अपनी कठपुतली बनाकर पाकिस्तानी सत्ता पर थोपा था, वैसे ही पुराना सहयोग नहीं मिलने पर बौखलाए और सेना विरोधी वक्तव्य देने वाले इमरान को जेल पहुंचाकर, सेना भ्रष्टाचार के दो मामलों में दोषी, उपचार के नाम पर लंदन में बसने वाले और अब जमानत मिलने के बाद नवाज शरीफ को फिर से कमान सौंपने की रूपरेखा तैयार कर चुकी है। यह सब पाकिस्तान में खोखले लोकतंत्र और चुनाव ‘प्रबंधन’ में सेना की निर्णायक भूमिका को पुन: उजागर करता है।

यक्ष प्रश्न है कि पाकिस्तानी सेना अपने पुराने ‘दुश्मन’ नवाज शरीफ पर दांव क्यों खेल रही है? पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल असीम मुनीर का पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ लंबा तनाव रहा है। इसलिए इमरान की काट हेतु मुनीर को नवाज की आवश्यकता है। क्या नवाज के समर्थन का अर्थ— पाकिस्तानी सेना का भारत के साथ शांति स्थापित करना है? वास्तव में, यह एक रणनीतिक योजना के अंतर्गत किया जा रहा है, जिसमें जनरल बाजवा के समय भी पाकिस्तानी सेना ने 24-25 फरवरी 2021 की मध्यरात्रि से 2003 का संघर्ष-विराम समझौता लागू करना स्वीकार किया था। इसका एकमात्र उद्देश्य विश्व में अलग-थलग पड़ चुके पाकिस्तान की खस्ताहाल आर्थिकी को संकट से बाहर निकालना है। इसमें भारत के प्रमुख रणनीतिक साझीदारों में शामिल— सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात मुख्य भूमिका निभा रहे हैं।

प्रश्न यह भी है कि क्या नवाज शरीफ के सत्ता में रहते हुए भारत-पाकिस्तान के रिश्ते मधुर हुए हैं? नवाज, तीन बार— 1990-93, 1997-99 और 2013-17 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे हैं। सच तो यह है कि नवाज के शासन के दौरान पाकिस्तानी सत्ता अधिष्ठान के समर्थन से जिहादियों द्वारा कश्मीर में हिंदुओं का नरसंहार (1991), कारगिल युद्ध (1999) और पठानकोट पर आतंकवादी हमला (2016) जैसी घटनाएं हुई थीं। अब पाकिस्तान में क्या होगा, इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में है। परंतु एक बात अकाट्य सत्य है कि पाकिस्तान के वैचारिक अधिष्ठान को जिस ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरणा मिलती है, उसमें ‘काफिर’ हिंदू बहुल भारत से संबंध शांतिपूर्ण करने के विचारों से वहां न तो कोई राजनीतिक दल प्रासंगिक रह सकता है और न ही पाकिस्तान एक राष्ट्र के रूप में अधिक समय तक जीवित रह सकता है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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