असंख्य लोगों की घर वापसी कराने वाले संत स्वामी श्रद्धानंद

असंख्य लोगों की घर वापसी कराने वाले संत स्वामी श्रद्धानंद

22 फरवरी 1856 / संत स्वामी श्रद्धानंद की जयंती

रमेश शर्मा

असंख्य लोगों की घर वापसी कराने वाले संत स्वामी श्रद्धानंद असंख्य लोगों की घर वापसी कराने वाले संत स्वामी श्रद्धानंद

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में हमें चार प्रकार के संघर्ष पढ़ने को मिलते हैं। एक स्वत्व और स्वाभिमान का संघर्ष, दूसरा समाज उत्थान के लिये संघर्ष, तीसरा पराधीनता से मुक्ति या सत्ता में सहभागिता के लिये संघर्ष और चौथा राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष व बलिदान। स्वामी श्रद्धानंद उन बलिदानियों में अग्रणी हैं, जिन्होंने तीन प्रकार के संघर्ष किए। स्वत्व और स्वाभिमान जागरण का संघर्ष, समाज उत्थान का संघर्ष एवं राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष। इसी राह में उनका जीवन समर्पित रहा और इसी राह पर उनके प्राणों का बलिदान हुआ।

स्वामी श्रद्धानंद का जन्म 22 फरवरी 1856 जालंधर में हुआ था। उनके पिता उत्तरप्रदेश में पुलिस अधिकारी थे। वे स्वामी दयानंद सरस्वती के संपर्क में थे। इस नाते उनके घर का वातावरण शुद्ध वैदिक सनातनी था। पिता नानक राम विंज ने अंग्रेजों द्वारा 1857 का दमन अपनी आँखों से देखा था, जिसके बाद उनके मन में अंग्रेजों और अंग्रेजी राज्य के प्रति घृणा का भाव आ गया था। वे इसकी जड़ में भारतीयों में आत्मबोध संगठन और दूरदर्शिता का अभाव मानते थे। इसलिये वे चाहते थे कि उनका पुत्र बड़ा होकर भारतीय परंपराओं के अनुरूप ढले। उन्होंने अपने पुत्र का नाम मुंशीराम विंज रखा। पुलिस अधिकारी पिता नानक राम विंज की मानसिकता से तत्कालीन प्रशासनिक अधिकारी अवगत थे, इसलिए उनके बार बार स्थानांतरण हुए। इस कारण बालक मुंशीराम की आरंभिक पढ़ाई उत्तर प्रदेश और पंजाब के विभिन्न नगरों में हुई। इससे मुंशी राम विंज अलग-अलग नगरों के अलग-अलग मनोविज्ञान से अवगत होते गये और उनके मन में भारतीय जनों की दुर्दशा का दर्द पनपता गया। समय के साथ उन्होंने वकालत पास की। वे चाहते तो वकालत से अपना भविष्य बना सकते थे। लेकिन उन्होंने पिता के प्रोत्साहन के बाद भारत को समझने के लिये हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत तथा उर्दू भाषा का आधिकारिक ज्ञान भी प्राप्त किया। उनकी यह विशेषता थी कि वे जिस भाषा में लिखते या बोलते थे तो केवल उसी भाषा के शब्द उपयोग करते थे। किसी और भाषा का कोई शब्द उपयोग नहीं करते थे। समय के साथ विवाह हुआ। उनकी पत्नी का नाम शिवादेवी था।

एक दिन पिता अपने युवा पुत्र मुंशी राम को स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रवचन सुनने के लिये साथ ले गये। प्रवचन में तर्क सहित भारतीय वैदिक परंपरा सुनकर युवा वकील मुंशीराम बहुत प्रभावित हुए और आर्य समाज से जुड़ गये। यद्यपि उन्होंने अभी सन्यास नहीं लिया था, पर स्वामी दयानंद सरस्वती ने उन्हें श्रद्धानंद नाम दिया चूँकि वे श्रद्धा से जुड़े थे। इसके साथ जालंधर में आर्य समाज के जिला अध्यक्ष का भी दायित्व मिला। 1891 में पत्नी शिवादेवी का निधन हो गया। उन दिनों उनकी आयु 35 वर्ष थी। दो पुत्र थे। परिवार ने दूसरा विवाह करने का प्रस्ताव किया, परंतु वे न माने और अपना पूरा जीवन राष्ट्र और संस्कृति को समर्पित करने के संकल्प के साथ उन्होंने विधिवत सन्यास ले लिया और स्वामी दयानन्द द्वारा दिया गया नाम ही अपनी पहचान बनाया। अब उनके जीवन, चिंतन और लेखन की दिशा बदल गई। उन्होंने समाज सेवा, वैदिक संस्कृति के प्रचार, कुरीतियों के निवारण और समाज में फैली भ्रांतियों के निवारण का अभियान चलाया। अनेक शिक्षा संस्थान स्थापित किए। उन्होंने 1901 में हरिद्वार में गुरुकुल काँगड़ी की स्थापना की। यह उस समय की बात है, जब गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष कर रहे थे। तब यह जानकारी में आया कि गाँधी जी को अपने संघर्ष के लिये अर्थाभाव हो रहा है। स्वामी श्रृद्धानंद जी ने गुरुकुल में पढ़ रहे अपने विद्यार्थी परिवारों से धन संग्रह किया। पन्द्रह सौ रुपए गाँधी जी को भेजे। अपने इतने सभी कार्यों के साथ वे स्वाधीनता संग्राम में भी सक्रिय हिस्सा लेने लगे। वे कांग्रेस के सदस्य बने और सन्यासी वेष में ही कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लेते थे। स्वामी श्रद्धानंद कांग्रेस में कितने महत्वपूर्ण थे, इसका संकेत इस बात से मिलता है कि 1919 में काँग्रेस के 34वें अधिवेशन में वे स्वागत अध्यक्ष थे और उन्होंने अपना स्वागत भाषण हिन्दी में दिया था।

उन्होंने पूरे देश में सामाजिक समरसता का अभियान चलाया। यह अभियान हिन्दू समाज में कुरीतियों के निवारण और जाति भेद समाप्त करने तक ही सीमित न था। वे हिन्दू और मुसलमानों के बीच भी समरस वातावरण बनाना चाहते थे। उनका तर्क था कि भारत में निवासरत मुसलमानों के पूर्वज भी वैदिक आर्य हैं। इसके लिये उन्होंने मुस्लिम समाज में अनेक सभाएं कीं और समझाया कि पूजा पद्धति बदलने से पूर्वज नहीं बदलते। लोग अपने पंथ में अपनी पद्धति से जिएं, लेकिन यह ध्यान रखें कि पूजा-उपासना पद्धति के बदलाव से संस्कृति और राष्ट्र का क्षय नहीं होना चाहिए। उन्होंने तर्कों, तथ्यों के संदर्भों से प्रमाणित किया कि भारत में निवास करने वाले सभी लोगों के पूर्वज एक हैं। वे अकेले विद्वान थे, जिन्होंने 1919 में दिल्ली की जामा मस्जिद प्रांगण में वेद की ऋचाओं से अपना संबोधन प्रारंभ किया और समापन अल्लाह हो अकबर के उद्घोष से हुआ। तभी मलकान राजपूतों ने उनसे संपर्क किया। इस समाज ने समय के साथ इस्लाम तो अपनाया परंतु पूर्व संस्कार छोड़ न सका। समाज के आग्रह पर स्वामी जी ने 1920 में शुद्धिकरण अभियान आरंभ किया। उत्तर प्रदेश, गुजरात, बंगाल, पंजाब, राजस्थान आदि अनेक प्रांतों में असंख्य लोगों की घर वापसी हुई। इससे कुछ कट्टरपंथी उनसे भयभीत हो गये और उन्हें मार्ग से हटाने का षड्यंत्र रचने लगे। तभी 1922 आया। गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन के साथ खिलाफत आँदोलन को जोड़ने का निर्णय ले लिया। स्वामी जी इससे सहमत नहीं हुए। उनके अतिरिक्त कांग्रेस में ऐसे अनेक नेता थे, जिनके इस विषय पर मतभेद हुए। स्वामी जी का तर्क था खलीफा परंपरा का भारत से कोई संबंध नहीं है। हमें सभी वर्गों को एक करके राष्ट्र व संस्कृति के लिये काम करना चाहिए। तभी मालाबार में भयानक हिंसा हुई। वह हिंसा एकतरफा थी। मरने वाले हिन्दू थे, जिन पर योजना बनाकर सशस्त्र हमला किया गया था। गाँव के गाँव लाशों से पट गये थे। लूट के साथ स्त्रियों का अपहरण भी हुआ। स्वामी श्रद्धानंद ने डॉ. हेडगेवार और डॉ. मिन्जे के साथ मालाबार की यात्रा की। सत्य को सबके सामने रखा, लेकिन बात न बनी। इस घटना के बाद वे कांग्रेस से दूर हो गये और पूरी तरह साँस्कृतिक जागरण और शुद्धि आंदोलन में लग गये। जो लोग भय या लालच में मतांतरित हो गये थे, ऐसे हजारों लोगों को वे सनातन धर्म में वापस लाये। स्वामी जी को मार्ग से हटाने के लिये कट्टरपंथियों ने एक योजना बनाई। अब्दुल रशीद नामक युवक को तैयार किया। मुस्लिम युवक अब्दुल रशीद ने स्वामी जी के पास आना जाना आरंभ किया, परिचय बढ़ाया और विश्वास भी अर्जित कर लिया। फिर अवसर देखकर 27 दिसम्बर 1926 को उसने गोली मारकर स्वामीजी की हत्या कर दी। इस प्रकार इस राष्ट्र और संस्कृति की रक्षार्थ उनका बलिदान हो गया।

स्वामी श्रद्धानन्द ने वैदिक सिद्धांतों से सम्बंधित अनेक आलेख लिखे, व्याख्यान दिये और पुस्तकें लिखीं। उनमें प्रमुख रूप से आर्य संगीतमाला, भारत की वर्ण व्यवस्था, वेदानुकूल संक्षिप्त मनुस्मृति, पारसी मत और वैदिक धर्म, वेद और आर्यसमाज, पंच महायज्ञों की विधि, संध्या विधि, आर्यों की नित्यकर्म विधि, मानव धर्म शास्त्र तथा शासन पद्धति, यज्ञ का पहला अंग आदि हैं। इसके अतिरिक्त उर्दू में उन्होंने ‘सुबहे उम्मीद’ लिखी है। अंग्रेजी में द फ्यूचर ऑफ आर्यसमाज – ए फोरकास्ट पुस्तक में स्वामी जी ने आर्यसमाज के भविष्य की योजनाओं पर विचार प्रकट किए हैं। स्वामी जी ने उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी में पत्र-पत्रिकाएं निकालीं, जिनमें सद्-धर्म प्रचारक, श्रद्धा, तेज, लिबरेटर आदि प्रमुख हैं।

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