सनातन धर्म- एक सॉफ्ट टार्गेट
निवेदिता
गत 21 जून को महत्वपूर्ण बताए गए सदी के दूसरे सूर्यग्रहण का दिन था। दो राष्ट्रीय समाचार चैनलों पर इसकी वैज्ञानिक और धार्मिक मान्यताओं को लेकर बहस करवाई जा रही थी। इसके प्रतिभागियों में वैज्ञानिक, एक दो नास्तिक प्रजाति के हिन्दू और कुछ ज्योतिषी (खगोलविद् नहीं) थे। मीडिया में ऐसी बहस खगोलीय घटना के समय बरसों से करवाई जा रही है। इसमें कुछ नया नहीं होता, सिवाय इसके कि वैज्ञानिक ऐसा चयनित होगा, जो हिन्दू मान्यताओं का विज्ञान से सम्बन्ध समझना – जानना नहीं चाहता हो और नास्तिक प्रजाति का हिन्दू ऐसा होगा (महिला हो यह विशेष ध्यान रखा जाता है) जो ज्योतिषविदों की बात को अंध विश्वास ठहराने वाला हो। इन सभी पर सवाये वार्ता संयोजक, जिन्हें एंकर कहना भी उचित तब हो जब वह विषय पर चर्चा को बहस की अपेक्षा विमर्श बनाने की भूमिका निभा सके। एंकर ज्योतिषविदों को यह कह कर मुंह चिढ़ा रहे थे कि ये …”.मैडम तो आपकी बात ही नहीं मानतीं, इन्हें विश्वास ही नहीं है आपकी बात का। क्या करेंगे, आप इनका?” आप सोच रहे होंगे कि मैं इस विषय को क्यूँ उठा रही हूँ? इसमें अनहोना क्या है?
आप सही समझ रहे हैं, अनहोना तो तब होता जब चैनल वाले इन बहसों में सनातन धर्म के साथ अन्य मजहबों के प्रतिनिधियों को भी बुलाते जो गत 2000 साल के कथित आधुनिककाल और वैज्ञानिक अवधारणाओं के साये में ही पैदा हुए हैं। जिनके बारे में यह अवधारणा बनाई गई है कि इनमें किसी तरह के अन्धविश्वास का अस्तित्व नहीं हैं। ऐसे मतावलम्बी भी यदि विमर्श में उपस्थित हो कर अपना पक्ष रखते तो विमर्श की व्यापकता तो बनती ही, साथ ही यह तुलना भी हो पाती कि इन खगोलीय घटनाओं पर किस मजहब/संप्रदाय का चिंतन क्या है। पर ऐसा जोखिम समाचार चैनल वाले कभी नहीं उठाते। विशेष रूप से वे चैनल जिनका उद्देश्य ही हिन्दू मान्यताओं का खंडन करना अथवा करवाना होता है।
एंकर चूँकि ‘सर्वज्ञानी’ होते हैं और उनको आप कुछ बताने की भूल नहीं कर सकते। वे जानने के लिए बहस का संचालन नहीं करते बल्कि जनवाने के लिए करते हैं। यही कारण है कि इन बहसों में निष्कर्ष नहीं होते, कुतर्क ज्यादा होते हैं। भले ही एंकर के घर में धार्मिक मान्यताओं को महत्व दिया जाता हो, पर वे परदे पर ऐसा अभिनय करते हैं जैसे उनका दूर दूर तक इन मान्यताओं से कोई लेना देना नहीं है। वे भारत भूमि को पूर्णतः ‘माइथोलॉजी’ से मुक्त करा कर ही दम लेंगे।
पत्रकारिता को निष्पक्ष होना चाहिए यह तो समझ आने की बात है पर उसे निरंकुश क्यूँ होना चाहिए? साथ ही एकांगी क्यूँ होना चाहिए? सनातनी मान्यताओं के वैज्ञानिक पक्ष की जानकारी न होने का तात्पर्य यह तो नहीं कि उनका खंडन करना ही बुद्धिमान होने का प्रमाण है। परन्तु यह विषय अज्ञानता तक ही सीमित नहीं है, पत्रकारिता की हिन्दू धर्म के प्रति नकारात्मक मानसिकता और अन्य धर्म/संप्रदायों से ‘नाराजगी का भय’ इसका महत्वपूर्ण आधार है।
यह बात तब और उजागर होती है जब विभिन्न चैनल, हिन्दू मंदिरों और तीर्थस्थलों की पौराणिक मान्यताओं की ‘हकीकत’ का जायजा लेने कैमरा लेकर रातों वहां पहरा देते हैं और भगवान की उपस्थिति का ‘निष्कर्ष’ निकालते हैं। यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या वे कभी, किसी मजहबी उपासना स्थल पर जाकर ऐसा जायजा लेने की “हिमाकत” करते हैं? नहीं? तो क्यों? निष्पक्षता उन्हें वहां जाने को प्रेरित क्यों नहीं करती? क्योंकि वहां न तो उन्हें कोई अनुमति देता है और न ही वे यह हिम्मत रखते हैं कि धार्मिक मान्यता को ‘फ़साना “ कह कर चलते बनें।
हिन्दू धर्म अंग्रेजी शासन के समय से उन लोगों के लिए ‘सॉफ्ट टारगेट’ रहा है जो स्वयं को आधुनिक/तार्किक और पढ़ा लिखा दिखाना चाहते हैं।
आलोचना की यह प्रवृत्ति पत्रकारिता को विरासत में मिली ऐसा नहीं है, वरन् षड्यंत्रकारी तरीके से इसे न्यूज चैनल में धन निवेश के माध्यम से प्रवेश कराया गया है। परिवर्तित समय के बीच हमें इस मानसिकता को पराजित करना ही चाहिए वरना दीमक की तरह हमारे आस्था तंत्र को यह निरंतर चाटती ही रहेगी।
(लेखिका स्तम्भ लेखन, सामाजिक सुधार और जनजागरण के क्षेत्र में सक्रिय हैं)