सावरकर : एक श्रेष्ठ साहित्यकार
सावरकर की जयंती के अवसर पर सप्त दिवसीय शृंखला
भाग दो
अनन्य
सावरकर के द्वारा इंडिया हाउस का प्रबंधन सम्भालने के कारण, अंग्रेजी मीडिया में श्यामजी के सहयोगी के रूप में उनकी पहचान होने लगी। इसी समय भारत से बमबारी की रोमांचकारी घटनाओं के समाचार आने लगे। इसी कारण लंदन, रूस, फ्रांस, तुर्की आदि देशों में भारतीय स्वतंत्रता के पूर्व की गूंज सुनाई देने लगी।
सावरकर जानते थे, शस्त्रों के साथ साथ क्रान्ति के लिए तेज़स्वी विचार भी आवश्यक हैं। जैसे पिस्तौल-बम की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार शब्द-साहित्य की भी आवश्यकता रहेगी। उन्होंने लंदन में एक ओर संगठन का, तो दूसरी ओर शोध परक साहित्य सृजन का श्रम साध्य काम पूर्ण मनोयोग से किया।
उन्होंने मैज़िनी की जीवनी का मराठी में अनुवाद शुरू किया, इस पुस्तक की भारत के सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने समीक्षा प्रकाशित की। सावरकर की इस पुस्तक को भारत में घर घर पहुंचाने का कार्य विनायक के बड़े भाई बाबाराव की देख रेख में अभिनव भारत की भारतीय टोली ने पूर्ण किया। जिसके चलते बाबाराव और नारायण राव सावरकर दोनों को जेल जाना पड़ा।
यदि सावरकर जी की प्रथम पुस्तक ने भारत में इतनी प्रसिद्धि प्राप्त की, तो उनकी दूसरी पुस्तक “द वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस 1857” ने पूरे भारत में ही नहीं अपितु इंग्लैंड में भी नाम कमाने की तैयारी कर ली थी। लेकिन अंग्रेज सरकार को सावरकर के लेखन की प्रखरता और उसके व्यापक प्रभावों के बारे में इस सीमा तक अनुमान लग गया कि उन्होंने इसके प्रकाशन को ही तत्काल प्रतिबंधित कर दिया। अंग्रेजी पत्रकार और इतिहासकार 1857 के स्वराज्य प्राप्ति के संघर्ष को “विद्रोह” या “सिपाही” युद्ध कहकर संबोधित करते थे। सावरकर का 1857 की वर्गीकृत पाण्डुलिपियों व मूल स्रोतों तक पहुंचने के लिए भारत व ब्रिटेन के अभिलेखागार प्रमुखों व पुस्तकालयाध्यक्ष को प्रोत्साहन देने व अध्ययन में बहुत परिश्रम लगा। फिर भी यह पुस्तक गोपनीय तरीक़े से प्रकाशित होकर एक से दूसरे देश होते हुए भारत में उचित हाथों में सुरक्षित पहुँचती गई।
1907 में 1857 के संघर्ष पर अपनी विजय की 50वीं वर्षगांठ मनाने के लिए अंग्रेजों ने अपने राज्य में उत्सव मनाने का निर्णय किया। अंग्रेजों के इस उत्सव को छोटा करने व सैनिकों के सम्मान में बड़ी रेखा खींचने के लिए विनायक ने सकारात्मक प्रयास किया। उन्होंने वहीं 1857 के बलिदानी नायक नायिकाओं की स्मृति में उन हुतात्माओं के सम्मान का कार्यक्रम करवाया। पुस्तक के आगामी संस्करणों को भगत सिंह व सुभाष चंद्र बोस द्वारा प्रकाशित करवाया गया। इतिहासकारों ने इसे भारतीय क्रांतिकारियों की गीता भी कहा है। जनता के भारी दबाव के बाद अंततः 1946 में इस पुस्तक पर से प्रतिबंध हटा दिया गया। सावरकर द्वारा साहित्य सृजन का यह क्रम जीवन पर्यंत बना रहा जो आज भी कालजयी है।
क्रमश: