साहेब, हू नेवर लेफ्ट

साहेब, हू नेवर लेफ्ट

विजय मनोहर तिवारी

साहेब, हू नेवर लेफ्टसाहेब, हू नेवर लेफ्ट

एक प्रश्न लगातार भारत को मथ रहा है कि क्या हम 15 अगस्त 1947 को सचमुच में स्वतंत्र हुए भी थे या वह केवल “ट्रांसफर ऑफ पावर’ का एक लोक लुभावन एपिसोड ही था? कि बस कुर्सियों पर पहले से जमे बैठे कुछ लोग उठ गए थे और कुछ लोग प्रसन्नतापूर्वक उन खाली हुई कुर्सियों पर विदा लेने वालों से गर्मजोशी से हाथ मिलाकर बैठकर गए थे। कुछ कागजात लिए-दिए गए थे। बाकी इमारतें भी वहीं थीं, सारे के सारे ढाँचे वही थे, कुर्सियाँ भी वहीं थीं, कुछ भी नहीं बदला था, बस इंडिया दैट इज भारत की ड्राइविंग सीट पर बैठने वाले बदल गए थे।

तब बदला क्या था? क्या स्वतंत्रता के नाम पर वह पानी की तरह बहे लाखों विस्थापित हिन्दुओं के रक्त, उनके सम्मान और संपत्ति की बलिवेदी पर नेहरू युगीन सत्ता के आगमन का उत्सव था?

अभी हाल ही में दो भागों में प्रसारित एक विचारोत्तेजक वृत्तचित्र इन ज्वलंत प्रश्नों का साहसपूर्वक सामना करता है, जिनके शीर्षक हैं- “साहेब, हू नेवर लेफ्ट और साहेब, द आफ्टरमाथ।’

भारत से प्रेम करने वाले विश्व के हरेक संवदेनशील नागरिक को यह डॉक्यूमेंट्री देखनी चाहिए। भारत जब स्वाधीन हुआ, विश्व में कम्युनिस्ट, पश्चात्य और मुस्लिम शक्तियों के उभार की उथलपुथल थी। चालीस के दशक में स्वदेशी, स्वराज्य और स्वतंत्रता के नारे चरम पर थे। तथ्यों पर आधारित यह वृत्तचित्र स्वतंत्र भारत की यात्रा का एक निर्मम पोस्टमार्टम प्रस्तुत करता है, जिसमें सप्रमाण और विशेषज्ञ टिप्पणियों के साथ भारत की स्वतंत्रता के साथ घटित हुए फरेब का पर्दाफाश किया गया है।

लोकमान्य तिलक के स्वदेशी आंदोलन की बहती गंगा का प्रवाह कांग्रेस को आगे ले आया था, जिसके घाटों पर गाँधी और नेहरू स्वतंत्रता की इबादत के पहले बड़े आराम से वजू कर रहे थे। हर बात में स्वदेशी पर जोर देने वाले गाँधी जी ने स्वाधीनता आते ही “विदेश में एजूकेटेड एक एंग्लो इंडियन शहजादे” को ताज पहना दिया था। नेहरू की रुचि अपने विदेशी मास्टर से अपनी प्रशंसा सुनने में अधिक थी, जो बिना चुनाव में उतरे उनकी खाली कुर्सियों पर बैठ गए थे।

संविधान सभा में तीन साल तक भविष्य के भारत के लिए बहसें चलीं। साहबों की उस सभा में भारत की पुलिस, प्रशासन, कोर्ट और संसद को ज्यों का त्यों अंगीकार किया गया। भारत का संविधान बन भी गया और ब्रिटिश स्वार्थ सिद्धि के लिए अंग्रेजों का बनाया हुआ शासन का वह क्रूर ढाँचा छुआ ही नहीं गया। स्वतंत्र भारत के वास्तविक शासक ब्यूरोक्रेट ही बने रहे। आईपीसी और क्रिमिनल लॉ भारतीय भावना को कुचलने के लिए बने थे, वे स्वतंत्र भारत में नेहरू के लिए भी वैसे ही बने रहे। यही नहीं नेहरू ने जो खुफिया समझौते किए, उन्हें कभी सार्वजनिक नहीं किया गया।

भारत अब दो प्रकार के कॉलोनाइजेशन की गिरफ्त में पड़ गया- एक, अंग्रेजों का और दूसरा इस्लामियों का। भारत को समान कानून के दायरे में लाने की बजाए नेहरू के तंत्र में सेक्युलरिज्म और रिलीजियस माइनॉरिटी के आविष्कार हुए जो अंतत: भारत को गर्त में ले गए। यह फिल्म स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल माउंटबेटन और दूसरे राजगोपालाचारी के चयन पर भी तीखी टिप्पणी करती है। पहले शिक्षा मंत्री के रूप में मौलाना अबुल कलाम आजाद की भूमिका पर नए सिरे से विचार और अध्ययन की आवश्यकता बताती है, जिनका चयन भारत के लिए एक विडंबना ही थी, क्योंकि इसके साथ ही स्वतंत्र भारत में मदरसों पर प्रश्न करना कम्युनल हो गया और गाजियों के नाम की सड़कें भारत के सेक्युलर परिचय बन गए। अब मुसलमानों से किसी प्रकार के बदलाव की अपेक्षा गुनाह थी, क्योंकि कुरान इसकी आज्ञा नहीं देती!

नेहरू के बाद शास्त्री, शास्त्रीजी की संदिग्ध मृत्यु (वृत्तचित्र में हत्या) और इंदिरा गाँधी के अवतरण के समय सोवियत कम्युनिस्ट ब्लॉक ने भारत के राजनीतिक गलियारों में अपनी कैसी पैठ बनाई, इसका खुलासा आँखें खोलने वाला है कि किस तरह कृष्ण मेनन, हक्सर और ललित नारायण मिश्र तो सोवियत इंटेलीजेंस की गोद में ही जा बैठे थे। केजीबी जनरल ओलेग कॉलुगिन और चर्चित मित्रोखिन आर्काइव के हवाले से बताया गया है कि 1970 का दशक आते-आते सोवियत एजेंट भारत में खुलकर खेल रहे थे। यह फिल्म इंदिरा गाँधी को 20 मिलियन रुपए के एक भुगतान के संदर्भ में बाकायदा राजीव और सोनिया गाँधी के परिवार का उल्लेख नाम से करती है। कांग्रेस और केजीबी की मिलीभगत कभी समाचार माध्यमों तक अपने सच्चे रूप में लाने नहीं दी गई।

क्या आज कोई विश्वास करेगा कि सोवियत रूस के प्रभाव में भारत के सिनेमा, साहित्य, मीडिया, बौद्धिक और अकादमिक सर्कल को खुलकर साधने की “राजनीतिक वेश्यावृत्ति’ जमकर की गई। रूस यह समझ गया था कि भारत के समाज में किसी हिंसक क्रांति या आंदोलन की गुंजाइश नहीं है। उसे हिन्दू समाज को जातियों के दमनकारी झुंड के रूप में ही चित्रित करना था। इसके लिए इंडो-सोवियत फ्रेंडशिप सोसायटियाँ बनीं। सिनेमा में और साहित्य में बिल्कुल योजनाबद्ध ढँग से यही नेरेटिव सेट किया गया।

इतिहासकारों के नाम पर इरफान हबीब, आरएस शर्मा और रोमिला थापर जैसे पुतले खड़े किए गए। वे समझते होंगे कि वे बड़े विद्वान हैं, जबकि सोवियत एजेंटों के लिए उनकी औकात “यूजफुल इडियट्स’ से अधिक नहीं थी! मजे की बात यह है कि मार्क्सवाद और इस्लाम दुनिया में हर कहीं एक दूसरे के कट्‌टर दुश्मन हैं। लेकिन साहबों के इंडिया में वे एक ही इबादत के लिए एक ही घाट पर एक दूसरे से सटकर वजू कर रहे हैं! यह विश्व के इतिहास की एक अनूठी घटना है।

इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस और कम्युनिस्टों के गठबंधन का भयावह दुष्परिणाम यह हुआ कि शिक्षा के दरवाजों पर कम्युनिस्टों के लिए वंदनवार सजा दिए गए। यह भारत का तीसरा कॉलोनाइजेशन था। वॉइस ओवर में वृत्तचित्र के निर्माता और कल्पनाकार प्रवीण चतुर्वेदी की गहन-गंभीर आवाज में एक संवाद है- “सारे शहर को मारना है तो वॉटर सप्लाई में जहर घोलना एक आसान विकल्प है।”

अब एनसीईआरटी के कोर्स नए नेरेटिव में ढालने शुरू किए गए। मौलाना अबुल कलाम आजाद के बाद सैयद नूरुल हसन नाम का एक नया शिक्षा मंत्री भारत पर लादा गया, जो पक्का मार्क्सवादी था। आज तक बदनाम जेएनयू की नींव भारत में तभी पड़ी और इस सैयद के समय कार्ड होल्डर कम्युनिस्ट ही जेएनयू में भर्ती हो सकते थे। यहाँ से भारत में एक लेफ्टिस्ट ईको सिस्टम बनना शुरू हुआ, जिसने अकादमियों में नियुक्तियों का बेड़ा गर्क कर दिया।

1975 में इंदिरा गाँधी ने लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाते हुए केवल अपनी सत्ता पर पकड़ कायम रखने के कुत्सित इरादे से इमरजेंसी थोपी और उसी धूल-धक्कड़ में भारत की देह से चिपके परजीवी विचार के कीटों ने संविधान में 47वां सुधार करते हुए सोशलिस्ट और सेक्युलर शब्द घुसा दिए। राष्ट्रवादी शक्तियों को निपटाने और इस्लामियों को खाद-पानी देने में ये शब्द संविधान के स्वागत द्वार बन गए। मुस्लिमों की ओर से ऐसी माँगें की गईं, जो दुनिया के मुस्लिम देशों में भी वे नहीं करते। अस्सी का दशक आते-आते देश भर में मस्जिदों और मदरसों का उभार अकल्पनीय हो गया। संगठित अपराध में डी-कंपनी का उभार सबने देखा। दंगे और आतंकी घटनाएँ भारत का स्थाई सिरदर्द बन गए। सेक्युलरिज्म दीमक की तरह भारत को खोखला करने लगा।

दुनिया ने देखा कि भारत के साथ ही अपनी यात्रा शुरू करने वाले चीन और जापान कहीं के कहीं निकल गए। भारत तब मिल्क पाउडर तक आयात करने में शर्म अनुभव नहीं कर रहा था। रिलीजियस कन्वर्जन में मिशनरियाँ शक्तिशाली बनकर उभरीं और ऑक्टोपस की तरह समाज को जकड़ती गईं। लाइसेंस और परमिट प्रणाली ने भारत के प्रशासनिक ढाँचे में भ्रष्टाचार का घुन भर दिया।

“सफल बनना है तो साहब बनना है।’

नेहरू की नीतियों में असली भारतीयता को भुलाकर जो ढाँचा खड़ा किया गया था, वह इंदिरा गाँधी तक आकर अपनी जड़ें और मजबूत बना रहा था। सिनेमा, साहित्य, शिक्षा, मीडिया और अकादमियाँ सब विदेशी शह और भारतीयता के विरुद्ध विचार पर अपनी जड़ें जमाते गए। हीन भावना से भरी आम जनता के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह यह मान ले कि प्रगति के लिए संस्कृति से घृणा अपरिहार्य है। भारत की मूल सनातन परंपरा हर माध्यम में हेय हो गई, साहब अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल थे। यह वृत्तचित्र बताता है कि जापान में प्रगति के साथ शिंत्रो संस्कृति अपनी भाषा में खूब फली-फूली, उनमें कोई विरोध नहीं था लेकिन भारत में प्रगतिशीलता ने संस्कृति के रास्ते में केवल बाधाएँ ही पैदा कीं।

1990 में जर्मनी में बर्लिन की दीवार गिरी। सोवियत संघ का स्वयं का ही ढाँचा तहस-नहस हो गया। इससे भारत में मार्क्सवाद बैठे-बैठे ही अनाथ हो गया। लेकिन बीते दशकों में एक फालतू विचार ने भारत का बचपन तबाह कर दिया था। अर्थव्यवस्था रसातल में जा चुकी थी। एक दिन हम अपनी संचित निधि से 47 टन सोना बेचते हुए दुनिया में देखे गए। मगर यह कठिनाइयों का अंत नहीं था। उदारीकरण के नाम पर 1991 में भारत के दुर्भाग्य का एक नया अध्याय आरंभ हुआ। अब अमेरिकन और यूरोपियन कल्चर बाढ़ की तरह चारों तरफ से आया। आधे दिन मार्क्सवादी पाठ्यक्रमों को पढ़कर निकली भारतीयों की वर्तमान पीढ़ी बचे हुए समय में पश्चिम की महानता पर मंत्रमुग्ध होकर आधुनिकता के नए साहबी विकल्पों पर नाच रही थी!

दो वाक्यों में स्वतंत्र भारत के साथ हुए इन षड्यंत्रों का वर्णन समझा जा सकता है- “साहब उनके वायरस हैं, रोज नए वेरिएंट्स में आएँगे” और “साहब उन सबको बदनाम करते हैं, जो उनमें शामिल होने से इंकार करते हैं।”

यह वृत्तचित्र “प्राच्यम्’ नाम के विश्व के पहले सनातनी ओटीटी प्लेटफॉर्म पर फिल्ममेकर 51 वर्षीय प्रवीण चतुर्वेदी लेकर आए हैं। प्रवीण मूलत: वाराणसी के रहने वाले हैं। वे आचार्य शंकर की ही दस नाम संन्यास परंपरा के एक प्रतिष्ठित आध्यात्मिक गुरु स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य हैं। स्वामी शिवानंद काशी में लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे। प्रवीण कॉन्वेंट स्कूल में पढ़े और नेवी में नियुक्त हुए। लेकिन भारतीय ज्ञान परंपरा का पहला और गहरा परिचय उन्हें स्वामी शिवानंद ने कराया।

फोटोग्राफी का शौक प्रवीण चतुर्वेदी को कनाडा के एक प्रसिद्ध फिल्ममेकर मिशेल तक लेकर गया और फिर अमेरिका की कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी में उन्होंने फिल्म मेकिंग की पढ़ाई की और प्रशिक्षण लिया। हॉलीवुड के कई स्टूडियो में उन्होंने फिल्म निर्माण के विविध पक्षों पर ट्रेनिंग ली। 2012 में वे भारत लौटे और अपना “मूनलाइट स्टूडियो’ बनाया।

फिल्म निर्माण एक भारी बजट का खर्चीला काम है। इसलिए उन्हें शुरुआती वर्षों में व्यवसायिक ढंग से ही उतरना पड़ा। लेकिन भारत के इतिहास, संस्कृति, ज्ञान परंपरा के प्रति कुछ मौलिक कंटेंट रचने का सपना उन्हें बेचैन किए रहा। कोविड काल में 2020 में उन्होंने कुछ विषय चुने और कई शॉर्ट फिल्में बनाईं, जो काफी पसंद की गईं। उन्हीं दिनों भारतीय विषयों पर केंद्रित 10 एपिसोड में एक कहानी प्रस्तुत करने का विचार हुआ।

“साहेब’ इसी श्रृंखला के पहले दो भाग हैं, जो प्राच्यम के प्लेटफॉर्म पर हैं। वे इसे सीधे यूट्यूब पर नहीं लाए, जहाँ सनातनी कंटेंट में मनमानी हेरफेर सामान्य है। वे कहते हैं कि “प्राच्यम्’ हजार वर्षों तक कुचली गई भारत की आवाज का एक स्वतंत्र प्लेटफॉर्म है।

इतिहास में केवल गड़े मुरदे नहीं उखड़ते। हम एक सच तक पहुँचते हैं, जिसे छिपाया या दबाया गया है। सच्चे इतिहास के बिना कोई भी इमारत खड़ी करना बिना नींव के आकाश में आगे बढ़ने जैसा है। इसलिए युवा पीढ़ी को इस पहलू से भी देश और दुनिया के इतिहास पर एक दृष्टि रखनी चाहिए। फिर यह तो भारत का ही भोगा हुआ सच है!

इस लिंक से उनकी सारी प्रस्तुतियों तक पहुँचा जा सकता है-
www.prachyam.com

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