विचार के लिए नौकरी से त्यागपत्र देकर आपातकाल में जेल काटने वाले स्वयंसेवक रामरतन कोली
सुरेश बुन्देल
विचार के लिए सरकारी नौकरी को लात मारकर अपने परिवार को दांव पर लगाने की हिम्मत बहुत कम लोगों में होती है। मामला तब अत्यंत नाजुक हो जाता है, जब गुज़र- बसर का अन्य ज़रिया ना हो। परिवार के लिए तो हर कोई जीता है, किन्तु सामाजिक हित के लिए जीने वाला व्यक्ति मर कर भी अमर हो जाता है।
यह कहानी उस स्वयंसेवक की है, जिसने जुनून की अनेक सीमाओं को पार करते हुए सरकारी नौकरी तो छोड़ी ही, आपातकाल में जेल भी काटी। स्वतंत्रता के बाद टोंक जिले के प्रसिद्ध कम्पाउंडर रामदेव कोली के घर 1 जुलाई 1939 को पैदा हुए ‘रामरतन’ ने अपने नाम को सार्थक करते हुए अपना सम्पूर्ण जीवन समाज को अर्पित कर दिया। ‘भाई साहब’ के नाम से विख्यात रामरतन की पढ़ने- लिखने में बहुत रुचि थी, लिहाजा उन्होंने इण्टरमीडिएट तक की शिक्षा ग्रहण की और पढ़ते- पढ़ते ही वे मई 1962 को गवर्नमेन्ट कॉलेज- टोंक में लिपिक पद पर नियुक्त हो गए।
स्थानांतरण की प्रताड़ना, नौकरी से त्यागपत्र, आपात काल में जेल
बचपन से ही गीत-संगीत में गहरी रुचि होने के कारण उन्होंने गायन, वादन और नर्तन (कत्थक) सीखा और बहुत जल्दी महारत हासिल कर ली! वे हारमोनियम और तबला- ढोलक बजाने के तज्ञ थे। शास्त्रीय नृत्य कत्थक करने में उनका कोई सानी नहीं था, यही कारण रहा कि उनके गाने- बजाने के शौक को लेकर उनके पिता हमेशा परेशान रहे क्योंकि हर पिता की कामना होती है कि उसकी संतान पढ़- लिखकर जल्दी नौकरी लगे। वे लगभग सारे खेल खेला करते थे। उन्हें कबड्डी, फुटबॉल, वॉलीबॉल का विशेषज्ञ खिलाड़ी माना जाता था। किशोरावस्था से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में नियमित जाने का शौक रहा। धीरे- धीरे संघ कार्य को ही जीवन का ध्येय बना लिया। उस दौर की कांग्रेस सरकार ने संघ कार्य करने के कारण उनका बार- बार स्थानांतरण भी किया। उन्हें जल्दी- जल्दी स्थानांतरित कर टोंक कॉलेज के बाद 1970 में ब्यावर कॉलेज, 1971 में सांभर कॉलेज और सवाई माधोपुर कॉलेज, 1972 में रामगढ़ कॉलेज, 1973 में फिर सांभर कॉलेज और 1975 में बारां कॉलेज भेजकर प्रताड़ित करने का काम किया। इसके बावजूद उनका स्वाभिमान हार मानने को तैयार ना था, लिहाजा उन्हें 1975 में नौकरी से त्यागपत्र देना पड़ा और संघ का स्वयंसेवक होने के कारण उन्हें जेल में डाल दिया गया।
असली मायनों में मौन समाज सुधारक
जेल में उनके साथ पूर्व मुख्य सचेतक महावीर प्रसाद जैन भी रहे। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने अपना सारा जीवन समाज सुधार में झोंक दिया। उनकी पहचान टोंक में किसी तरह के परिचय की मोहताज नहीं रही, सब लोग उनकी संत प्रवृति, ईमानदारी, स्वाभिमान, संगीतकारी, गीतकारी, समाज सेवा और प्रतिभाओं से परिचित रहे। नजदीकी लोग आज भी उनके प्रशंसक हैं। उन्होंने संघ के कई लोकप्रिय देशभक्ति गीतों की रचना की। संघ के स्वयंसेवक के तौर पर उनकी छाप बहुत अमिट और अविस्मरणीय है। यहां तक कि वे अपने हस्ताक्षर में भी ‘S’ वर्ण का उपयोग किया करते थे, जिसका तात्पर्य ‘स्वयंसेवक’ होता है। उन्होंने ‘समाज सुधार’ का बीड़ा भी उठाया, सामाजिक बदहाली, अशिक्षा व पिछड़ेपन को वे जड़ से दूर करना चाहते थे। उन्होंने हमेशा बाल विवाह, मृत्यु भोज, नशे, अंधविश्वास, कुरीतियों, कुप्रथाओं आदि बुराइयों के विरुद्ध जबरदस्त मुहिम चलाई। उन्होंने अपने समाज की बुराइयों को दूर करने के लिए ‘कोली समाज समिति’ के माध्यम से अभियान भी चलाया। कोली नवयुवकों को संगठित कर ‘महावर नवयुवक मंडल’ की स्थापना की। ‘श्री कृष्ण सामूहिक विवाह संघ’ का गठन करके कोली समाज के दो बड़े सामूहिक विवाह सम्मलेन भी कराए, अजमेर की शंकर बीड़ी के मालिक उनकी ईमानदारी से प्रभावित थे तथा उनके आग्रह पर लाखों रुपए का दान कर दिया करते थे।
शिक्षा की अलख जगाने वाली अग्रिम पंक्ति के पुरोधा
मासिक पत्रिका ‘कोली विवेक’ का सम्पादन किया! ‘बाल शिक्षा सदन’ और ‘भगवान गौतम बुद्ध विद्यापीठ’ नामक विद्यालय चलाकर शिक्षा की अलख भी जगाई। कत्थक, गायन, वादन, भजन गायिकी और संगीत के क्षेत्र में उनके शिष्यों की लंबी सूची है, जो आज भी बड़ी संख्या में मौजूद है। बाबा साहब की तरह ही उनके विचार बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित रहे। पैसा कमाने का उद्देश्य कभी नहीं रहा लिहाज़ा परिवार के आर्थिक हालात हमेशा खराब ही बने रहे। राजनीतिक क्षेत्र में भाजपा ने उन्हें जिलाध्यक्ष का दायित्व भी सौंपा लेकिन राजनीतिक दांव पेंच नहीं जानने के कारण से पटरी नहीं बैठी। समाज सेवा सर्वोपरि रही। जीवन के आख़िरी पड़ाव पर भी उन्होंने लोगों की भलाई की चिन्ता की।
दुनिया को अलविदा कहने से पूर्व उन्होंने एक अंतिम इच्छा पत्र लिखा, जिसके प्रमुख अंश अत्यंत मार्मिक हैं——
- जिस किसी भी स्थान पर मेरी मृत्यु हो, वहीँ पर मेरा अंतिम संस्कार कर दिया जाए।
- मेरी मृत्यु की सूचना जिन रिश्तेदारों और शुभचिंतकों को देनी है, उन्हें मृत्यु के समय तथा शव ले जाने के समय से अवगत कराया जाए ताकि लोगों का अनावश्यक समय खराब ना हो!
- मेरी मौत के बाद घरवालों को रोने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जीने के समान ही मरने की क्रिया हुई है। मोह त्याग कर सम्यक दृष्टि अपनाएं।
- मरने के तुरंत पश्चात नेत्रों को दान कर दिया जाए।
- देश की समस्त नदियां पवित्र हैं, बनास नदी में ही अस्थियां विसर्जित कर दी जाएं। पानी ना होने की स्थिति में रेत में ही गाड़ दें।
- अग्नि दाह संस्कार ही श्रेष्ठ है, किसी भी प्रकार के मृत्यु भोज का आयोजन ना करें।
- मुझसे दुश्मनी रखने वालों को भी शव यात्रा में शामिल होने से ना रोकें।
- सभी लोग ‘विपश्यना’ को अपनाएं, यह कोई सम्प्रदाय विशेष में दीक्षित होना नहीं बल्कि जीवन का कल्याणकारी मार्ग है।
अंततोगत्वा अस्वस्थता उन पर भारी पड़ी, सबको जाना पड़ता है। उन्हें भी 27 अक्टूबर 1996 को नियति के क्रूर हाथों ने छीन लिया।
( पुत्र सुरेश बुन्देल की लेखनी से…)