स्वाधीनता के बाद का परिदृश्य

स्वाधीनता के बाद का परिदृश्य

कैप्टेन आर. विक्रम सिंह

स्वाधीनता के बाद का परिदृश्यस्वाधीनता के बाद का परिदृश्य

जब लॉर्ड माउंटबेटन का जहाज 21 जून 1948 को पालम एयरपोर्ट से इंग्लैंड रवाना हुआ तब कहीं जाकर हमारी पराधीनता का वह आखिरी चिराग बुझा, जिसे हमारे नेताओं ने स्वयं ही बड़े जतन से जला रखा था। वे रोके क्यों गये थे? यह प्रश्न आश्चर्यचकित करता है। विश्व इतिहास में शायद ही ऐसा कोई दूसरा उदाहरण हो जब पराधीन शोषितों के नेताओं ने स्वयं साम्राज्यवाद के प्रतिनिधि शासक को स्वाधीन होने के बाद भी अपने यहां राज्याध्यक्ष की हैसियत में रोक लिया हो। यह एक अजूबा है। क्या हमारे अपने नेता विभाजन की विभीषिका, उसके परिणामों के सामने नर्वस या अक्षम हो रहे थे? यदि ऐसा था तो हमारे नेताओं ने क्या जॉन स्टैची और रुडयार्ड किपलिंग का वह कथन सत्य साबित नहीं कर दिया कि भारतीयों में स्वशासन की क्षमता ही नहीं है? जिस देश ने अपना राज्याध्यक्ष औपनिवेशक गुलामी काल से चले आ रहे राजा को ही मान लिया हो, उसकी स्वाधीनता का अर्थ क्या बना? हमें अपनी स्वाधीनता में गर्व का अनुभव क्यों नहीं था? सही मायनों में देखें तो हम 21 जून 1948 को औपनिवेशक शासक की विदाई के बाद स्वाधीन हुए।

माउंटबेटन का पहला दायित्व तो प्रत्येक दशा में ब्रिटिश हितों की रक्षा करना ही था। जब संविधान नहीं था, तो 15 अगस्त को गवर्नर जनरल माउंटबेटन व प्रधानमंत्री नेहरू का शपथग्रहण ब्रिटिश महारानी के प्रति स्वामिभक्त सेवक के रूप में ही हुआ। अब स्वाधीनता के बाद के भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश हित क्या थे? सोवियत यूनियन के कम्युनिस्ट आतंक का विस्तार एक बड़ी जियो-पालिटिकल समस्या थी। अफगानिस्तान एक बफर की हैसियत में था। सोवियत संघ को अफगानिस्तान पाकिस्तान की ओर बढ़ने से रोकना अब द्विध्रुवीय विश्व में शीत युद्ध का एक मुख्य लक्ष्य बन गया था। अब तो यह स्पष्ट हो चुका है कि पाकिस्तान का निर्माण ब्रिटिश उपनिवेशवाद की प्रयोगशाला में ही हुआ। 1940 में लाहौर प्रस्ताव द्वारा पाकिस्तान के विचार की आधारशिला रखी गयी और 14 अगस्त 1947 को बतौर इस्लामिक देश पाकिस्तान बन भी गया। सात वर्षों में नये देश नहीं बना करते। ब्रिटेन के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक था कि इस नये बनाए गये देश की कहीं भ्रूणहत्या न हो जाए। इसीलिए पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी व सरहदी सूबे में कांग्रेसी सरकारें बरखास्त की गयीं। कनिंघम को बुला कर पुनः गवर्नर बनाया गया। भारत-पाकिस्तान की सीमा का निर्धारण होना था। रेडक्लिफ अपने काम में लगे थे। कश्मीर का एजेंडा अभी लंबित था। कश्मीर यात्रा में माउंटबेटन ने महाराजा हरिसिंह से कहा था कि यदि कश्मीर पाकिस्तान में शामिल होने का विकल्प देता है तो भारत के नेताओं को आपत्ति न होगी। हरिसिंह की अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं। पाकिस्तान का इस्लाम के अलावा कोई वैचारिक आधार था ही नहीं, अतः वह कम्युनिस्ट विस्तार के विरुद्ध एक स्वाभाविक मोहरा था। इस दृष्टि से कश्मीर विशेषकर गिलगिट-बालटिस्तान का पाकिस्तान में जाना ब्रिटिश हित के अनुकूल था।

जब रेडक्लिफ एवार्ड ने गुरुदासपुर भारत में शामिल किया तो यह स्पष्ट हो गया कि माउंटबेटन ने नेहरू के प्रभाव में आकर कश्मीर के लिए यह सड़क मार्ग भारत को उपलब्ध करा दिया है। यदि यह गुरुदासपुर कॉरीडोर भारत को न मिलता तो भारत का कश्मीर के लिए कोई अभियान भी चलाना संभव न होता। बलोचिस्तान की तरह कश्मीर भी पाकिस्तान का अंग हो जाता। लेकिन इस तरह कश्मीर विभाजन की भूमिका लिख गयी। 23 अक्टूबर 1947 को हुए कबाइली आक्रमण के समय भारत पाकिस्तान दोनों में ब्रिटिश सेनाध्यक्ष थे। प्रत्येक घटना की जानकारी माउंटबेटन को हो रही थी। नेहरू जी भ्रम अनिर्णय के शिकार थे। वह तो सरदार पटेल का हस्तक्षेप था कि विलय हस्ताक्षरित हुआ व सेनाएं श्रीनगर में 27 को उतरने लगीं। तब कश्मीर घाटी बच सकी। घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि कश्मीर घाटी का भारत में रह जाना एक चमत्कार से कम नहीं है। यह ब्रिटिश एजेंडे के विपरीत रहा होगा, फिर भी माउंटबेटन ने यह सुनिश्चित किया कि घाटी में उरी से आगे उत्तर में स्कर्दू की ओर भारतीय सेना न बढ़े।

यह युद्ध ऐसी शतरंज की तरह था, जिसमें दोनों ओर से ब्रिटिश सेनाध्यक्ष फ्रेंडली मैच खेल रहे थे। उनका उद्देश्य अपनी अपनी सेनाओं को इच्छित सीमाओं तक सीमित करने का था। गिलगिट एजेंसी जुलाई 1947 में महाराजा के पास वापस आती है। कबाइली आक्रमण से भारत पाकिस्तान युद्ध 26 अक्टूबर 1947 को प्रारंभ हो जाता है। 1 नवंबर 1947 को गिलगिट में महाराजा की सेना में कार्यरत मेजर ब्राउन जो मूलतः ब्रिटिश एजेंट था, विद्रोह कर पाकिस्तान में शामिल होने की घोषणा कर देता है। आश्चर्य यह है कि गिलगिट भारत का भाग हो चुका है, लेकिन भारत का ब्रिटिश सेनाध्यक्ष व माउंटबेटन वहां कोई सैन्य कार्यवाही नहीं करते। गिलगिट बालटिस्तान को स्वाधीन नहीं कराते। स्कर्दू में भारतीय सेना की स्टेट फोर्सेज की कम्पनी को जानबूझकर कोई सपोर्ट नहीं करते। वह क्षेत्र बिना किसी प्रतिरोध के पाकिस्तान को चला जाता है।

जम्मू में युद्ध चल रहा है। सैनिक बलिदान हो रहे हैं। इधर हमारे प्रधानमंत्री नेहरू उस युद्ध के दौरान पंजाब के मुख्यमंत्री को डांटकर उनके द्वारा पाकिस्तान का रोक दिया गया पानी फिर से चालू कराते हैं, पाकिस्तान के कैबिनेट मंत्री यहां आये हैं। युद्ध चल रहा है और जल वितरण समझौता भी हो रहा है। उसी युद्ध के दौरान पाकिस्तान की सेना बलोचिस्तान पर कब्जा कर लेती है और कोई कुछ नहीं बोलता। जैसे कि यह सब कोई खेल हो रहा हो। माउंटबेटन व नेहरू यदि इतने मेहरबान न रहे होते तो पाकिस्तान का अस्तित्व बतौर एक देश बना रह पाना अत्यंत ही दुष्कर था।

मार्च 1946 में नेहरू की भेंट सिंगापुर में माउंटबेटन से हुई थी, जब वे साउथ ईस्ट एशिया कमांड में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुप्रीम एलाइड कमांडर थे। माउंटबेटन को अनुमान था कि नेहरू प्रधानमंत्री हो सकते हैं। फिर वे अप्रैल के अंत में कांग्रेस कार्यकारिणी में सरदार पटेल के लिए बहुमत को दरकिनार कर गांधीजी द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष बनवा दिये जाते हैं। यहां यह स्पष्ट होने लगता है कि नेहरू का कांग्रेस अध्यक्ष बनना पहले से नियत एजेंडा था, जिससे कि वे वायसराय द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किये जा सकें। यह एक बड़ी योजना का हिस्सा था, जिसके तार एक दूसरे से जुड़े दिखते हैं। फिर 2 सितंबर को नेहरू लॉर्ड बेवल द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिये गये। नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष फिर प्रधानमंत्री बनने से लेकर माउंटबेटन के बतौर वायसराय भारत आगमन व स्वाधीनता के बाद भी भारत में राज्याध्यक्ष बने रहने, कश्मीर में युद्ध, जनमत संग्रह प्रस्ताव व संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में विवाद ले जाने तथा युद्ध-विराम प्रस्ताव तक माउंटबेटन का भारत में रुके रहना, एक पैटर्न की ओर इशारा करता है। लगता है कि माउंटबेटन का भारत में रुकना कश्मीर विभाजन के एक तयशुदा एजेंडे के अंतर्गत था। माउंटबेटन को न रोका गया होता तो देश में ब्रिटिश सेनाध्यक्ष के स्थान पर जनरल करियप्पा या जनरल नाथू सिंह होते। सेना पूरी शक्ति से युद्ध करती। पाकिस्तान के कश्मीर स्वप्न का अंत हो जाता। लेकिन यह वह काल था जब भारत में किसी भी स्तर पर राष्ट्रीय हित की समझ ही विकसित न हो सकी थी, वरना कौन स्वाभिमानी देश होता, जो अपने शत्रु को ही अपना राज्याध्यक्ष बना कर गर्व का अनुभव करता।

हमारे नेताओं में राष्ट्र की चुनौतियों के सम्मुख क्या आत्मविश्वास की कमी थी? हम स्वाधीन तो हुए पर राष्ट्र-निर्माण के वो जनअभियान जो द्वितीय विश्वयुद्ध में यूरोप व जापान में चले थे, यहां नहीं चले। देश को साम्यवाद, समाजवाद की बहसों, पूंजीविरोध, यूनियनबाजी से होते हुए जाति-सम्प्रदायों के सशक्तीकरण फिर परिवारवादी सत्ताओं की दिशा में ले जाया गया। विभाजनकारी शक्तियों से मुकाबला न करके उनसे समझौते होने लगे। गांधीवाद से रक्षा-विदेश नीतियां चलने लगीं और देश बहुत सीमित विकास दर के साथ अक्षम विकलांगता की ओर बढ़ता गया। स्वाधीनता थी पर स्वप्न खंडित हो गये थे। अब आज हम उन दिशाओं में उन रास्तों पर चलना प्रारंभ कर रहे हैं, जिस ओर हमें स्वाधीनता के तुरंत बाद से चलना था।

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