स्वामी विवेकानंद का शिकागो भाषण आज भी क्यों प्रासंगिक है?
डॉ. नेहा सिन्हा/ निखिल यादव
समस्त विश्व में किंचित ही ऐसे कोई उदाहरण होंगे, जहां किसी व्यक्ति द्वारा बोले गए परिचयात्मक शब्दों ने दर्शकों को उतना उत्साहित किया हो, जितना कि स्वामी विवेकानंद के 1893 के विश्व धर्म संसद के अभूतपूर्व भाषण ने। “मेरे अमेरिकी बहनो और भाइयो” शब्दों से शुरुआत ने, स्वामी जी के एक विशिष्ट राष्ट्र या धर्म के न होकर सम्पूर्ण विश्व के नागरिक होने का परिचय दिया। इसने लोगों को यह भी अनुभव कराया कि वे किसी ऐसे व्यक्ति के समक्ष हैं जो उन्हें सार्वभौमिक भाईचारे का मार्ग दिखा सकता है।
इस आधुनिक समय में, स्वामीजी का भाषण राष्ट्र और नेताओं के लिए एक प्रकाश–स्तंभ और सत्य के स्रोत के रूप में कार्य करता है। इससे उन्हें रणनीतियों को लागू करने, नीतियों को तैयार करने और अपने नागरिकों को एकजुट करने के लिए व्यापक कदम उठाने में सहायता मिलती है।स्वामी विवेकानंद के भाषण को अक्सर दुनिया भर के नेताओं द्वारा वर्तमान समय में लोगों को उन मूल्यों की याद दिलाने के लिए संदर्भित किया जाता है जो स्वामी जी के भाषण के लिए खड़े थे और आज के समय में सबसे महत्वपूर्ण हैं – करुणा, भाईचारा, सहिष्णुता, स्वीकृति। स्वामी विवेकानंद ने अपने भाषण में विश्व शांति के लिए दो महत्वपूर्ण आवश्यकताओं पर जोर दिया – भाईचारा और सार्वभौमिक स्वीकृति; और यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ये वही हैं जिनकी दुनिया को आज सबसे ज्यादा आवश्यकता है। जिस समय दुनिया धार्मिक, वैचारिक श्रेष्ठता के लिए लड़ रही थी और एक–दूसरे की जमीन हड़पने में व्यस्त थी, स्वामी जी ने “मानव सेवा ही भगवान की सेवा” का संदेश दिया – क्योंकि वे प्रत्येक मानव में ईश्वर को देख सकते थे। उन्होंने न केवल भाईचारे की अवधारणा को व्यापक बनाया, बल्कि “सार्वभौमिक भाईचारे” के प्रारूप को उठाकर इसकी प्रासंगिकता को भी समझाया, जो किसी भी प्रकार के भेदभाव के बावजूद प्रत्येक मानव आत्मा को शामिल करता है। विश्व धर्म संसद, जो 11 सितंबर से 27 सितंबर 1893 तक चली, में स्वामी जी के छह व्याख्यान हुए जिसमें अंतिम दिन अपने अंतिम सत्र के दौरान उन्होंने मानवता के लिए आगे की राह के बारे में बात की और कहा – “ईसाई को हिन्दू या बुद्ध नहीं बनना है, इसी प्रकार हिन्दू या बुद्ध को ईसाई नहीं बनना है, प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को बनाये रखते हुए, दूसरों की भावना को आत्मसात कर विकास के अपने नियम के अनुसार विकसित होना चाहिए।”
यह कहना उचित होगा कि स्वामी जी का पूरा जीवन और शिक्षा लोगों को उठने और खुद का एक बेहतर संस्करण बनने का आह्वान करती रही हैं। शिकागो का भाषण इस बात की एक झलक है कि स्वामी जी वास्तव में किसके लिए खड़े थे और यह सुनिश्चित करना हम सभी का दायित्व है कि हम भारत के सबसे सम्मानित पुत्रों में से एक की शिक्षाओं से लाभान्वित हों। यह भारत है जो हमेशा ‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ में विश्वास करता है और दुनिया को सार्वभौमिक भाईचारे की ओर ले जा सकता है और सही मायने में ‘विश्व गुरु‘ बन सकता है।
(डॉ. नेहा, एमिटी इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, नोएडा में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं एवं निखिल यादव विवेकानंद केंद्र के दिल्ली प्रांत युवा प्रमुख हैं)