भारतीयता से ही भारतीयों में स्व का बोध सम्भव : जे. नंदकुमार

भारतीयता से ही भारतीयों में स्व का बोध सम्भव : जे. नंदकुमार

भारतीयता से ही भारतीयों में स्व का बोध सम्भव : जे. नंदकुमारभारतीयता से ही भारतीयों में स्व का बोध सम्भव : जे. नंदकुमार

जयपुर। शुक्रवार को सार्थक संवाद, प्रज्ञा प्रवाह जयपुर प्रान्त इकाई की ओर से पुस्तक विमोचन एवं भारतीय ज्ञान परम्परा केंद्र के लोकार्पण कार्यक्रम का आयोजन स्वास्थ्य कल्याण कॉलेज ऑफ फार्मा मेडिकल टेक्नोलॉजी में हुआ। कार्यक्रम में मुख्य वक्ता जे. नंदकुमार ने कहा कि हम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे विचार को ‘स्व’ (हमारा स्वयं का होना) के दृष्टिकोण से देखें। इसमें हमारे लोगों को बहुविध प्रेरित करने की सामर्थ्य है और जो संभवत: हमारे दौर के लोगों के सामने अपना सही अर्थ व्यक्त करता है। हमें स्वतंत्रता संग्राम के अपने खोए हुए ‘सामूहिक सत्य’ पर फिर से विचार करने, परिष्कृत करने और स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायकों का नए सिरे से पता लगाने और उन्हें स्वीकार करने के साथ-साथ अपना दृष्टिकोण बदलते हुए अपने अतीत तथा सामूहिक पहचान के बारे में सामने आने वाली सच्चाइयों का विश्लेषण करना चाहिए। अंग्रेजों ने भारत पर लगभग दो सौ वर्षों तक शासन किया। भारत को ब्रिटिश राज से 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता मिली। भारतीय जनता और भारतीय अर्थव्यवस्था का शोषण ब्रिटिश राज का एक हिस्सा भर था, जबकि सांस्कृतिक और बौद्धिक उपनिवेशन इसका बड़ा संदर्भ था। यह तथ्य है कि भारतीय जनता ने बिना प्रतिरोध के कभी भी विदेशी आधिपत्य को स्वीकार नहीं किया। 15वीं शताब्दी के बाद से ही, भारत के विभिन्न हिस्सों में समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा औपनिवेशिक शासन के विस्तार के विरुद्ध कई व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए हैं। ये विरोध स्थानीय और अलग-थलग लग सकते हैं, लेकिन इनकी प्रकृति निश्चित रूप से राष्ट्रीय है।

स्वतंत्रता के इस लंबे संघर्ष के दौरान हमारे लोगों ने स्व के विचार के लिए संघर्ष किया। उनका मानना था कि केंद्रीकृत, शोषक और हिंसक शासन प्रणाली और इसके मूल में बैठे लालच के अर्थशास्त्र से छुटकारा पाए बिना अंग्रेजों से छुटकारा पाने का कोई अर्थ नहीं होगा। श्री अरबिंदो और महात्मा गांधी ने सर्वोदय, स्वराज और स्वदेशी के विचार के साथ इस सामाजिक-दार्शनिक निर्मिति का नेतृत्व किया। इस त्रयी की पहली अवधारणा थी सर्वोदय, अर्थात् सभी का उत्थान; इसमें पृथ्वी, जानवरों, जंगलों, नदियों और भूमि का ख्याल रखने का भाव समाहित है। दूसरी अवधारणा है स्वराज, यानी स्वशासन। स्वराज शासन की एक छोटे पैमाने पर, विकेंद्रीकृत, स्व-संगठित और स्व-निर्देशित भागीदारी संरचना के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाने का काम करता है। इसका अर्थ आत्म-परिवर्तन, आत्मानुशासन और आत्म-संयम से भी है। इस प्रकार, स्वराज एक नैतिक, नीति-विषयक, पारिस्थितिक और आध्यात्मिक अवधारणा तथा शासन की पद्धति है।

इस त्रयी में तीसरी अवधारणा स्वदेशी, अर्थात् ‘स्थानीय अर्थव्यवस्था’ है, जो स्थानीय उत्पादों और उपभोक्ताओं के लिए स्थानीय मांग और आपूर्ति शृंखलाएं फिर से बनाने का प्रयास था। पहले स्वदेशी का विचार अर्थशास्त्र तक ही सीमित था, लेकिन बाद में इसका उपयोग सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं में भी किया जाने लगा। सर्वोदय, स्वराज और स्वदेशी को बारीकी से देखें, तो इन तीनों शब्दों का सर्वनिष्ठ मूल स्व है, जिसका अभिप्राय ‘आत्म’ से है। स्व के विचार का विस्तार करें, तो पाएंगे कि औपनिवेशिक संरचना विभिन्न तरीकों और तकनीकों के माध्यम से भारतीय स्व के इस विचार को दबाने का एक उपकरण थी। राम और कृष्ण की भूमि में विदेशी शासन और विदेशी धर्म को लागू करके लोगों की भारतीय पहचान और स्वाभिमान को धूमिल करने का प्रयास किया गया था। इस उपनिवेशवाद को पश्चिम के लोगों द्वारा पूर्व के लोगों पर धार्मिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद थोपने के दृष्टिकोण से देखना महत्वपूर्ण है। नस्लीय श्रेष्ठता और श्वेत लोगों की जिम्मेदारी की धारणा विभिन्न आख्यानों के माध्यम से दिखाई देती है, जिसे इतिहास में नई खोजों के आलोक में फिर से जांचा जाना चाहिए। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस्लामी-वामपंथी इतिहासकारों द्वारा हेरफेर के साथ गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया। स्वाधीनता संग्राम के वास्तविक स्वरूप का विश्लेषण करने से पहले इसके इर्द-गिर्द बनाए गए मिथकों को समझना आवश्यक है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम संबंधी मिथक, प्रचलित धारणा और प्रसार के विपरीत, उपनिवेशन प्रक्रिया केवल आर्थिक प्रक्रिया नहीं थी। वास्तव में, यदि हम स्वतंत्रता के 75 वर्षों की समीक्षा करें, तो पाएंगे कि उपनिवेशन प्रक्रिया के केंद्र में बौद्धिक और सांस्कृतिक दासता है।

नाइजीरियाई उपन्यासकार बेन ओकरी ने एक जगह लिखा कि किसी राष्ट्र को जहर देना हो तो, उसकी कहानियों को जहर दे दें। एक हताश राष्ट्र अपने आप को हताश कहानियाँ सुनाता है। उन कहानीकारों से सावधान रहें जो प्रकृति से स्वयं को मिले उपहारों के महत्व के बारे में पूरी तरह से जागरूक नहीं हैं, और अपनी कला का गैर-जिम्मेदारी से प्रयोग करते हैं; वे अनजाने में अपने लोगों के मानसिक विनाश में सहायता कर रहे हैं।

औपनिवेशिक स्वामियों द्वारा लिखित हमारे देश के इतिहास के बारे में स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ‘अंग्रेजों और अन्य पश्चिमी लेखकों द्वारा लिखा गया हमारे देश का इतिहास हमारे मन-मस्तिष्क को कमजोर ही करता है, क्योंकि वे केवल हमारे पतन के बारे में बात करते हैं। हमारे रीति-रिवाजों, धर्म और दर्शन को बहुत कम समझने वाले विदेशी भारत का ईमानदार और निष्पक्ष इतिहास कैसे लिख सकते हैं?

स्वतंत्रता संग्राम का प्रचलित ऐतिहासिक वर्णन कुछ मिथकों पर निर्मित है: भारत कभी ‘राष्ट्र’ था ही नहीं। जबकि राष्ट्र-राज्य की यह यूरोपीय अवधारणा है, भारतीय नहीं। वास्तव में ब्रिटिश इतिहासकारों की दृष्टि में भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में सर्वनिष्ठ राष्ट्रीयता की अवधारणा कभी थी ही नहीं। तथ्य यह है कि भले ही भारत में राज्य की कोई केंद्रीकृत अवधारणा नहीं थी, फिर भी भू-सांस्कृतिक पहचान पर आधारित राष्ट्र और राष्ट्रीयता का विचार अनादिकाल से उपस्थित था।

भारत को अंग्रेजों ने सभ्य बनाया, इस पर जेम्स मिल ने अपनी पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ का लेखन 1806 में शुरू किया था। इसका वर्णन शिक्षा के संदर्भ में पहले किया जा चुका है। इस पुस्तक में उन्होंने इंग्लैंड द्वारा भारतीय साम्राज्य के अधिग्रहण का वर्णन किया है। लेकिन पहले ही बताया जा चुका है कि मिल ने कभी भी भारतीय उपनिवेश का दौरा नहीं किया और अपनी पुस्तक के लिए तथ्य संकलन का काम उन्होंने पूरी तरह से दस्तावेजी सामग्री और सुरक्षित रखे गए अभिलेखों के भरोसे किया। उनकी पुस्तक में भारत और भारत के निवासियों के बारे में उन पूर्वाग्रहों का संग्रह है जो बहुत से ब्रिटिश अधिकारियों के भारत में रहने के दौरान विकसित हुए थे। इस तथ्य को भूलकर कि यह भूमि सदियों तक समृद्ध होने के साथ ही ज्ञान का स्रोत रही थी, उनके आख्यान के केंद्र में भारत को ऐसे पिछड़े समाज के रूप में प्रस्तुत करना था, जिसे अंग्रेज सभ्य बनाने का प्रयास कर रहे थे। ‘गैर-शोषक’ समाज के मसीहा, कार्ल मार्क्स ने भी ‘भारत में ब्रिटिश शासन’ पर अपने निबंध में इसे उचित ठहराया था। ब्रिटिश शासन की प्रकृति आर्थिक साम्राज्यवाद की थी। अंग्रेजों द्वारा आर्थिक शोषण के कई आख्यान हैं, लेकिन वास्तव में यह दुनिया के कई दूसरे हिस्सों की ही तरह धार्मिक-सांस्कृतिक और अमानवीय प्रकृति का शोषण था। अंग्रेजों द्वारा लागू की गई आर्थिक और कराधान नीतियों ने सूखे के दुश्चक्र के माध्यम से लाखों भारतीयों को मार डाला। इसके अलावा, मिशनरियों ने अपनी धार्मिक श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए सभी साधनों का प्रयोग किया और लोगों को बुनियादी अधिकारों से वंचित कर दिया। अठारहवीं शताब्दी में ऐतिहासिक विषयों के उल्लेखनीय लेखकों में से एक चार्ल्स ग्रांट थे, जिन्होंने 1792 में भारत में रहने वाली एशियाई प्रजा के समाज की स्थिति पर प्रेक्षण (आब्जर्वेशन्स आन दि स्टेट आफ सोसाइटी अमंग दि एशियाटिक सब्जेक्ट्स आफ भारत) लिखा था। वे ‘इवेंजिलिकल मत’ से जुड़े थे, उनका मानना था कि आदिम धार्मिक आस्थाओं और अंधविश्वासों के अंधेरे में डूबे भारत में ईसाई धर्म का प्रकाश लाना भारत के ब्रिटिश शासकों की दैवीय नियति थी। स्वतंत्रता संग्राम कुछ क्षेत्रों तक सीमित था, यह अंग्रेजों द्वारा बनाया और मार्क्सवादियों द्वारा स्थापित किया गया एक और मिथक है। राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध को छोटी-छोटी जातियों या सांप्रदायिक श्रेणियों तक सीमित कर दिया गया और उन्हें विद्रोह और प्रतिरोध की संज्ञा दी गई। दुर्भाग्य से, स्वाधीनता के बाद भी हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के संदेश को समझे बिना उन्हें एक क्षेत्र या समूह तक सीमित करने के लिए यह आख्यान जारी रखा जा रहा है। इसके अलावा, भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष केवल शांतिपूर्ण तरीकों से चला था। भारतीय ब्रिटिश शासन का समर्थन करते थे; हम विभाजित थे – अंग्रेजों ने इसका लाभ उठाया; तथा, वे अन्य यूरोपीय उपनिवेशवादियों की तुलना में उदार थे आदि मिथकों को गढ़ा गया और हमारे स्वतंत्रता संग्राम के संबंध में व्यवस्थित रूप से फैलाया गया। नंदकुमार ने कहा कि अपनी  पुस्तक स्वबोध का राष्ट्रीय संघर्ष के माध्यम से यही सब जानकारी पहुँचाने का कार्य मेरे द्वारा किया गया है।

कार्यक्रम अध्यक्ष प्रो. वासुदेव देवनानी विधानसभा अध्यक्ष ने भी स्कूली शिक्षा में अपने शिक्षामंत्री रहते हुए स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम में बदलाव कर किस तरह भारतीयता का बोध युवा विद्यार्थियों में जगाने का प्रयास किया गया, इस सम्बंध में बताया।

कार्यक्रम में प्रान्त संयोजक अधिवक्ता देवेश बंसल ने प्रज्ञा प्रवाह के द्वारा की जाने वाली गतिविधियों और कार्यक्रम का संक्षिप्त परिचय रखा। कार्यक्रम के अंत में महानगर संयोजक डॉ. राजेश मेठी ने धन्यवाद ज्ञापित किया। कार्यक्रम में डॉ. एसएस अग्रवाल अध्यक्ष स्वास्थ्य कल्याण समूह व प्रज्ञा प्रवाह के क्षेत्रीय संयोजक वैद्य कमलेश विद्यार्थी सहित अन्य गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति रही।

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