हम सब के आदर्श भगवान राम

हम सब के आदर्श भगवान राम
रामनवमी विशेष

डॉ. अजय खेमरिया

हम सब के आदर्श भगवान रामहम सब के आदर्श भगवान राम

रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे। रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:॥

राम मानवता की सबसे बड़ी निधि हैं। वे संसार में अद्वितीय प्रेरणापुंज हैं। वे शाश्वत धरोहर हैं सभ्यता, संस्कृति और आदर्श लोकजीवन की। राम जीवन के ऐसे आदर्श हैं जो हर युग में सामयिकता के ज्वलन्त सूर्य की तरह प्रदीप्त हैं।मर्यादा, शील, संयम, त्याग, लोकतंत्र,  राजनय, सामरिक शास्त्र, वैश्विक उत्तरदायित्व, सामाजिक लोकाचार, परिवार प्रबोधन, आदर्श राज्य और राजनीति से लेकर करारोपण तक लोकजीवन के हर पक्ष हमें राम के चरित्र में प्रतिबिंबित और प्रतिध्वनित होते हैं।हमें बस राम की व्याप्ति को समझने की आवश्यकता है। गोस्वामी तुलसीदास ने राम के चरित्र सन्देश की व्याप्ति को स्थाई बनाने का भागीरथी काम किया है।वैसे तो दुनिया में बीसियों रामायण प्रचलित हैं, लेकिन लोकभाषा में राम को घर घर पहुंचाने का काम तुलसीकृत रामचरितमानस ने ही किया है।वस्तुतः राम तो मानवता के सर्वोच्च और सर्वोत्तम आदर्श हैं। उन्हें विष्णु के सर्वश्रेष्ठ अवतारों में एक कहा जाता है। तुलसी ने राम के दोनों अक्षर ‘रा’ और ‘म’ की तुलना ताली से निकलने वाले ध्वनि सन्देश से की है। जो हमें जीवन के सभी संदेह से दूर ले जाकर मर्यादा और शील के प्रति आस्थावान बनाता है। राम उत्तर से दक्षिण सब दिशाओं में समान रूप से समाज के ऊर्जा पुंज हैं। राम सभी दृष्टियों से परिपूर्ण पुरुष हैं। उन्होंने अपने जीवन में जो सांसारिक लीला की है, वह काल की हर मांग को सामयिकता का धरातल देती है। एक पुत्र का पिता के प्रति आज्ञा और आदर भाव, भाइयों के प्रति समभाव, पति के रूप में निष्ठावान अनुरागी चरित्र, प्रजापालक, दुष्टसंहारक अपराजेय योद्धा, मित्र, आदर्श राजा, लोकनीति और राजनीति के अधिष्ठाता से लेकर आज के आधुनिक जीवन की हर परिघटना और समस्या के आदर्श निदान के लिए राम के सिवाय कोई दूसरा विकल्प हमें नजर नहीं आता है।राम ने सत्ता के लिए साधन और साध्य की जो मिसाल प्रस्तुत की है, वह आज भी अपेक्षित है।

नए समाज के नए समाजशास्त्री राम को केवल एक अवतारी पुरुष के रूप में विश्लेषित कर उनकी व्याप्ति को कमजोर करना चाहते हैं। विशेषकर वामपंथी वर्ग के बुद्धिजीवी राम की आलोचना नारीवाद, वंचित और सवर्ण सत्ता को आधार बनाकर करते हैं।सच्चाई तो यह है कि राम को सीमित करने के लिए नियोजित और कुत्सित मानसिकता के दिमाग पिछले कुछ समय से अधिक सक्रिय हैं। वे तुलसीकृत मानस की कतिपय चोपाई और दोहों की व्याख्या अपने नियोजित एजेंडे के अनुरूप ही करते आये हैं। पहले तो राम के अस्तित्व को ही नकारा जाता है।यूपीए की सरकार ने तो सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा तक देकर उनकी काल्पनिकता को प्रमाणित करने से परहेज नहीं किया। यह अलग बात है कि उसी सुप्रीम कोर्ट ने बाद में अयोध्या में राम के अस्तित्व को अधिमान्य कर रामद्रोहियों पर एक वज्रपात किया।असल में राम भारत की चेतना का शाश्वत आधार हैं। ठीक वैसे ही जैसे दही में नवनीत समाहित है। जिस अंतिम छोर तक राम लोगों को प्रेरित करते हैं, वही राम की वास्तविक अक्षुण्य शक्ति भी है। राम के चरित्र को नारी और वंचित विरोधी बताने का षड्यंत्र हमारे सामने जिन कुतर्कों और प्रायोजित मानसिकता से किया जाता है उसे समझने की आवश्यकता है। झोलाछाप एकेडेमिक्स में यह कहा जाता है कि राम एक असफल इंसान थे क्योंकि उन्होंने कभी पति धर्म का निर्वाह नहीं किया। वे अच्छे अविभावक नहीं थे। लेकिन हमें यह भी जानना चाहिये कि राम ने पति के रूप में एक उच्च आदर्श की स्थापना की है।सीता को मिथिला से अयोध्या लाकर राम ने पहला वचन यही दिया था कि वे जीवन भर एक पत्नी व्रत का पालन करेंगे। जिस सूर्यवंश में राम पैदा हुए वहां के राजा बहुपत्नी वाले हुए हैं। राजा दशरथ की स्वयं तीन रानियां थीं। लेकिन राम ने इस प्रथा को त्याग कर एक श्रेष्ठ पति के रूप में अपने दाम्पत्य की नींव रखी। राम राजीवलोचन थे, अप्रतिम सौंदर्य और यौवन के स्वामी। रावण सीता जी का हरण करके ले गया, राजकुमार राम चाहते तो किसी भी राज्य की राजकुमारी से विवाह रचा सकते थे। लेकिन वह अपने पति धर्म के निर्वाह में सीताजी की खोज में उत्तर से हजारों किलोमीटर दूर लंका तक जाते हैं। वह इस संकट भरी यात्रा से बच भी सकते थे। नारीवादी राम को यह कह कर भी लांछित करते हैं कि एक धोबी के कहने पर राम ने सीता का परित्याग कर दिया। लेकिन यह भी तथ्य है कि रामायण में उत्तर कांड की प्रमाणिकता असन्दिग्ध नहीं है। वाल्मीकि रामायण रावण वध के बाद समाप्त हो जाती है। तुलसीकृत मानस की मूल पांडुलिपि का दावा भी कोई नहीं कर सकता है। स्पष्ट है अग्निपरीक्षा का प्रसंग मिथक और आलोचना के उद्देश्यों से स्थापित किया गया है। एक बार अगर इसे सच भी मान लिया जाए तो इस मिथ का प्रयोग आज के शासकों की सत्यनिष्ठा को उनके पारदर्शी जीवन और जनविश्वास के साथ क्यों स्थापित नहीं किया जा सकता है? क्या आज के राजा यानी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के निजी जीवन को लेकर जनचर्चाएं नहीं होती हैं? क्या आज की दुनिया के ताकतवर शासकों को स्पष्टीकरण और त्यागपत्र नहीं देने पड़ते हैं? क्यों लोग उनके कतिपय आचरण पर प्रश्न उठाते हैं, इसलिए कि राजा जनता के विश्वास पर खड़ी एक महान व्यवस्था है। राम को लेकर अगर अयोध्या में ऐसी चर्चा थी कि उनका राजा एक ऐसी स्त्री के साथ है जो पराये आदमी के परकोटे में रही है। तो क्या राजा जनविश्वास को कायम रखे यह एक राजा का कर्त्तव्य नहीं है? यानी राम लोकतंत्र में अंतिम आदमी से भी शुचिता की अधिमान्यता के पक्षधर हैं। निजी तौर पर मैं इस अग्निपरीक्षा को काल्पनिक और खुरापाती मानता हूं।

वर्तमान सियासत के सर्वाधिक सुविधाजनक शब्द हैं “दलित आदिवासी”। इस वर्ग की जन्मजात प्रतिभा प्रकटीकरण के प्रथम अधिष्ठाता राम ही हैं। अवध नरेश का राज पूरे भारत तक फैला था। वह अगर चाहते तो अपनी शाही सेना के साथ भी रावण से युद्ध कर सकते थे। दूसरे राजाओं से भी सहायता ले सकते थे। लेकिन राम ने वनवासियों के साथ उनकी अंतर्निहित सामरिक शक्ति के साथ रावण और दूसरे असुरों से संघर्ष करना पसन्द किया। वनवासियों, वंचितों के साथ पहली शाही सेना बनाने का श्रेय भी राम को जाता है। राम के मन में ऊंच नीच का भाव होता तो क्यों केवट, निषाद, सबरी, वनवासी सुग्रीव और हनुमान के साथ स्वयं को इतनी आत्मीयता से सयुंक्त करते। असल में वनवासी राम तो लोकचेतना का पुनर्जागरण करने वाले प्रथम प्रतिनिधि भी हैं। गांधीजी ने राम के इस मंत्र को स्वाधीनता आंदोलन का आधार बनाकर ही गोरी हुकूमत को घुटनों पर लाने में सफलता प्राप्त की थी। राम वंचितों, कमजोरों, सताए हुए लोगों के प्रथम संरक्षक भी हैं। वे उनमें स्वाभिमान और संभावनाओं के पैगम्बर भी हैं। इसलिए दलित चिंतन की धारा को यह समझना होगा कि राम पर विरोधी होने का आरोप प्रमाणिक नहीं मनगढ़ंत ही है।

राम की चिर कालिक व्याप्ति आज के जिनेवा कन्वेंशन और अनेक अंतरराष्ट्रीय सन्धियों व घोषणाओं में नजर आती है।राम के दूत बनकर गए अंगद को जब बन्दी बनाकर रावण के दरबार मे लाया गया, तब विभीषण ने रामजी की प्रेरणा से यह कहकर राजनयिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया
‘नीति विरोध न मारिये दूता”
आज पूरी दुनिया में राजनयिक सिद्धान्त इसी नीति पर खड़े हैं।

राम आज के दौर में एक औऱ महत्वपूर्ण सन्देश देते हैं। वह यह कि बहुमत सदैव नीतिगत हो यानी बहुमत की राय सदैव ठीक हो यह अनिवार्य नही है।इसीलिए जब जब पिता के आदेश पर राजा राम वल्कल वस्त्र धारण कर जंगल की ओर प्रस्थान करते हैं। तब पूरे अयोध्या राज्य के नागरिकों ने उनसे जंगल नहीं जाने का निवेदन किया था, लेकिन राम ने पिता के प्रति वचनबद्वता का प्रतिमान खड़ा करने के लिए जनमत को ठुकराकर जंगल का प्रस्थान किया क्योंकि जनमत सदैव नीति पर ही आधारित हो यह आवश्यक नहीं।

जिस लोककल्याणकारी राज्य का शोर हम सुनते हैं, उसकी अवधारणा भी हमें राम ने ही दी है। वंचित, शोषित, वास्तविक जरूरतमंद के साथ सत्ता का खड़ा होना राम राज की बुनियाद है। वे राज्य में अमीरों से ज्यादा टैक्स वसूलने और गरीबों को सहायता की अर्थनीति का प्रतिपादन करते हैं। आज की सरकारें भी यही कहती हैं। राम आज चीन और अमेरिका की नव साम्राज्यवादी नीतियों के लिए भी नैतिक आदर्श हैं। राम ने बाली को मारकर उसका राज पाट नहीं भोगा। इसी तरह तत्सम के सबसे प्रतापी अनार्य राजा रावण के वध के बाद सारा राजपाट विभीषण को सौंप दिया। वे चाहते तो किष्किंधा और लंका दोनों को अयोध्या के उपनिवेश बना सकते थे। साम्रज्यवाद की घिनौनी मानसिकता के विरुद्ध भी राम ने एक सुस्पष्ट सन्देश दिया है। राम भारत के सांस्कृतिक एकीकरण के अग्रदूत भी है।उत्तर से दक्षिण तक उन्होंने जिस आर्य संस्कृति की पताका स्थापित की वह सेना या नाकेबंदी की दम पर नहीं, बल्कि अनार्यों के सहयोग से ही की, उनका दिल जीतकर, उन्हीं के बल सदिच्छा जाग्रत कर। राम अकेले ऐसे राजा हैं, जो विस्तारवाद, साम्राज्यवाद और नस्लवाद को नीति और नैतिकता के धरातल पर खारिज करते है। ध्यान से देखें तो आज के सभी वैश्विक संकट राम पथ से विचलन का पपिणाम ही हैं।

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *