विज्ञापन हों या फिल्में, हिंदू आस्था पर चोट क्यों..?

एकतरफा विज्ञापन, एकतरफा सोच - आखिर क्यूं ?

निवेदिता

एकतरफा विज्ञापन, एकतरफा सोच - आखिर क्यूं ?

एक प्रसिद्ध भारतीय जेवरात कंपनी के विज्ञापन का विरोध हुआ। इसका कारण था वह विज्ञापन जो सोशल मीडिया पर चलाया गया। फिलहाल यह विज्ञापन हटा लिया गया है। विरोध की वज़ह थी इस विज्ञापन की कथावस्तु, जो यह प्रकट कर रही है कि एक हिन्दू युवती, एक मुस्लिम परिवार की बहू है और गर्भवती है। विरोध करने वालों का विचार है कि यह कथावस्तु उस वामपंथी मानसिकता के लोगों द्वारा सोची समझी साजिश के तहत तैयार की गई है जो हिन्दू संस्कृति पर आघात करने के अवसर खोजते हैं। यह विचार एक मजबूत आधार रखता है, क्योंकि भारत में विज्ञापन की दुनिया में अधिकांशतः ऐसा होता है जब निशाने पर हिन्दू धर्म के त्यौहार, परंपराएं, भावनाएं, आस्था और विश्वास पर अनर्गल टिप्पणियॉं की जाती हैं।

अभिव्यक्ति और सृजनात्मकता की आड़ में बहुसंख्यकों की भावना को षड्यंत्र का शिकार बनाना बहुत आसान है और यह प्रचार माध्यमों के द्वारा दशकों से किया जा रहा है।

बहुसंख्यक समाज ने इस षड्यंत्र को पहचान कर उसके विरोध में अपना पक्ष रखना प्रारंभ कर दिया है। इसी का परिणाम था कि इस बार विज्ञापन का खुला विरोध हुआ। आज जब समाज में लव जिहाद की घटनाएं निरन्तर बढ़ रही हैं और इसका शिकार बहुसंख्यक समाज को बनाया जा रहा है। इसको बढावा देने के लिए कई संगठन वेबसाइट तक चलाते हैं, जिनमें हिन्दू, सिख, जैन युवतियों को फांसने की दरें निर्धारित की गई हैं। ऐसे माहौल में, किसी विज्ञापन में यह दर्शाना कि हिन्दू युवतियां मुस्लिम परिवारों की बहू बनकर बहुत खुश हैं और उनको वहाँ बहुत प्यार से स्वीकार किया जा रहा है, उससे यह लगना स्वाभाविक है कि ऐसी पटकथा से उस वैचारिक साजिश को बढ़ावा मिलेगा जो सांस्कृतिक बंधनों को एकतरफा तोड़ने का माहौल बनाना चाहते हैं।

एकतरफा यानी पूर्णतः एकतरफा, अन्यथा विज्ञापनों में ‘खुलेपन’ का यह विचार एक समाज पर ही नहीं थोपा जाता। व्यक्तिगत चयन की बात होती तो पृथक विषय होता है, परन्तु विज्ञापन अपने आप में एक ऐसा प्रतीक होता है जिसका दर्शकों के मन पर सहज और व्यापक प्रभाव होता है। ऐसे में सांस्कृतिक हमलों के इस व्यापारिक दौर में कोई समाज इस अवधारणा को क्यों स्वीकार करेगा !

यह विषय किसी एक कंपनी या विज्ञापन से जोड़कर नहीं उठाया जा रहा है। अधिकांशतः विज्ञापनों में हिन्दू बाबाओं को मजाकिया तरीके से प्रस्तुत किया जाना, पौराणिक कथाओं के पात्रों को विज्ञापन की विषय वस्तु बनाना, रक्षाबंधन पर बहन का भाई को यह कहना कि मैं अपनी रक्षा आप कर लूंगी, दीपावली पर आतिशबाजी से जानवरों का परेशान होना, पंडित जी के बिना मुहूर्त कर पंडित जी को नीचा दिखाना जैसे कई पक्ष हैं जिन पर आपत्ति की जा सकती है पर अधिकांशतः इन बातों को बहुसंख्यक समाज अपने सहिष्णु स्वभाव से अनदेखा ही करता आया है। इसी तरह एक चाय कंपनी के विज्ञापनों में भी हिन्दुओं को संकीर्ण बताने का षड्यंत्र किया जा रहा है। एक विज्ञापन में एक हिन्दू परिवार के फ्लैट की चाभी आने तक वह पड़ोस के मुस्लिम मालिक के फ्लैट में जाने में आनाकानी करता है किन्तु चाय की खुशबू उसे मजबूर कर देती है। यह विज्ञापन भी एकतरफा है। इसका उल्टा भी बन सकता था, पर ऐसा नहीं किया गया।

इसी तरह एक और विज्ञापन में बप्पा की मूर्ति बनाने वाले मुस्लिम कलाकार से हिन्दू ग्राहक का व्यवहार भी इस तरह से दर्शाया है कि वह संकीर्ण विचारों का है। क्या ऐसा दिखाना उचित है? क्या इस तरह नहीं दिखाया जा सकता था कि जो मूर्ति बनाते हैं उनको उनके ही समाज के कट्टरपंथी धमका रहे हैं और वह उनको इबादत का सही अर्थ समझाए। पर नहीं हुआ।

हिन्दू समाज की विशेषता है सहिष्णुता, इसके बावजूद इन विज्ञापनों का उद्देश्य यही दर्शाना होता है कि हिन्दू संकीर्ण सोच रखते हैं। जिस देश का नाम हिन्दुस्तान है और उस देश में हजारों वर्षों से बाहर से आकर रह रहे धर्मावलंबियों को यह समझाने की आवश्यकता नहीं है कि हिन्दू धर्म कितना सहज और सर्वसमावेशी है। पर इसका तात्पर्य यह भी नहीं होना चाहिए कि आप उसके मर्म पर चोट करते ही रहेंगे।

समाज ने आवाज उठाई तो कंपनी ने यह विज्ञापन सुरक्षा कारणों से वापस लेने का वक्तव्य प्रसारित किया। यहां प्रश्न सोच के एकाकीपन का है। क्योंकि यदि विज्ञापन बनाने की मानसिकता में सकारात्मकता होती तो यह कहा जाता कि इस तरह का विज्ञापन विपरीत व्यवहार दर्शाता हुआ भी बनाया गया है अथवा बनाया जाएगा। चूंकि विज्ञापन में एकता की बात कही गई है तो एकता एकतरफा क्यूं, चौतरफा क्यों नहीं होनी चाहिए। सिर्फ हिन्दू समाज में ही बेटियां थोड़े ही हैं, सभी समाजों की बेटियां बहू बनती हैं।

एक कथित बुद्धिजीवी पत्रकार जो सदैव भारत विरोधी एजेंडा के लिए जाने जाते हैं, उनको विज्ञापन वापस लेने पर बहुत दुख हुआ है और वो प्रश्न कर रहे हैं कि कंपनी ने “किनकी भावनाओं के आहत होने” की चिन्ता की है! और, वो इसकी तुलना में एक स्कूटर कंपनी की ‘बहादुरी’ के पक्ष में ताल ठोक रहे हैं जिसने एक निजी चैनल को विज्ञापन न देने का निर्णय किया है। जनाब यह निर्णय तो आपको पसंद आया, क्योंकि वह चैनल आप जैसी पत्रकारिता की बखिया उधेड़ रहा है, तो आपके घावों को थोड़ी मलहम लगी। पर उस कंपनी की एक राजनीतिक दल से निकटता किसी से छुपी नहीं है। और, यह विषय राजनीतिक दृष्टि से विचार करने का नहीं है। एक सकारात्मक समाज के बीच सबकी भावनाओं का ध्यान रखने का है।

काश, जो समाज वास्तव में आधुनिकता से दूर हैं, जिन्हें धर्म के नाम पर पिछड़ा रखा जा रहा है उनमें चेतना के लिए विज्ञापन कंपनियां कार्य करतीं तो उनकी मंशा पर कोई सवाल नहीं उठता, पर सबसे खुले और सहज समाज पर हमले करना यह बताता है कि विज्ञापन निर्माण की आड़ में कथित बुद्धिजीवी या यूं कहें कि वामपंथी अपना उल्लू सीधा करने की आदत से बाज नहीं आ रहे। हो सकता है विज्ञापन बनवाने वाली कंपनियों को भी यह षड्यंत्र समझ आए और वे बहुसंख्यक समाज की भावना को आहत होने से बचा पाएं।

(लेखिका स्तम्भ लेखन, सामाजिक सुधार और जनजागरण के क्षेत्र में सक्रिय हैं)

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