हिंदू आस्था स्थलों पर यह कैसी कुदृष्टि?

– प्रणय कुमार

एक ओर अल्पसंख्यक संस्थाओं को अधिक-से-अधिक स्वायत्तता देने की बढ़-चढ़कर वक़ालत और दूसरी ओर हिंदू-मंदिरों पर नियंत्रण पाने का षड्यंत्र इनकी नीयत पर संदेह खड़ा करता है। यह नीयत हमें बरबस ही उन आक्रांताओं-विधर्मियों की याद दिलाती है जिन्होंने मंदिरों को लूटने और धर्मभ्रष्ट करने के लिए बार-बार आक्रमण किया और लाखों निर्दोषों का नरसंहार किया।

हाल ही में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पृथ्वीराज चह्वाण के एक ट्वीट को तीखी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ा। उनका ट्वीट ”कोरोना से उत्पन्न आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए धार्मिक ट्रस्टों को अपना सोना सरकार को दान कर देना चाहिए या कम ब्याज़ पर सौंप देना चाहिए”- ने पर्याप्त सुर्खियाँ बटोरीं। देश को इस बयान के पीछे की सच्चाई और गंभीरता समझनी चाहिए। यह किसी साधारण नेता का बयान नहीं, अपितु एक राज्य के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री रह चुके नेता का बयान है। इस बयान की टाइमिंग भी हमारा ध्यान खींचती है। काँग्रेस शासित राज्यों में हिंदू संतों और मंदिरों-मठों पर होने वाले हमले से संपूर्ण देश में आक्रोश की एक अंतर्धारा-सी बह रही थी। पालघर में दो निरीह एवं निर्दोष साधुओं की हत्या ने उस जनाक्रोश को और हवा दी। सोशल मीडिया से लेकर, प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस बर्बर एवं जघन्य हत्या पर बड़ी मुखरता से प्रश्न उछाले। प्रश्न सीधे काँग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से था। काँग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का वेटिकन से अंतर्सम्बंध किसी से छिपा नहीं। काँग्रेसी दिग्गज भी इस मुद्दे पर अपने शीर्ष नेतृत्व का बचाव नहीं कर पा रहे थे।

उधर जमातियों के कुकृत्यों ने मज़हबी क्रियाकलापों के पीछे की साज़िशों को उजागर कर दिया था। दशकों से रचे-गढ़े गए गंगा-जमुनी तहज़ीब के कृत्रिम नारे खोखले व निरर्थक सिद्ध होने लगे थे। सेक्युलरिज़्म की दुकानें खोले बैठे नेताओं और दलों का दोहरापन खुलकर सामने आने लगा था। उन्हें तेजी से खिसकता अपना जनाधार स्पष्ट दिखने लगा था।

धर्म-परायण भारतीय जनमानस की अटूट आस्था इन वामपंथी-इस्लामिक-अब्राहिमिक सत्ताओं के प्रभाव व प्रसार के मार्ग में सदैव से ही सबसे बड़ी बाधा रही है। आस्था और विश्वास के केंद्रबिंदु हिंदू संतों, मंदिरों, धार्मिक प्रतिष्ठानों, गुरुद्वारों पर ये हमेशा से हमलावर रहे हैं। इन्होंने अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों-मंचों का प्रयोग आस्था और विश्वास के इन केंद्रों को ध्वस्त करने के लिए किया। शिक्षा, कला, साहित्य, संगीत, सिनेमा, रंगमंच, टेलीविजन से लेकर पत्र-पत्रिकाओं तक में इन्होंने इनके विरुद्ध निरंतर विष-वमन किया और इनकी धवल छवि पर कालिख़ मलने की कुत्सित चेष्टा की और इसमें वे कुछ अर्थों में सफल भी रहे। यह इनकी सफलता ही है कि आज का पढ़ा-लिखा नौजवान यह कहने में गौरवान्वित महसूस करता है कि वह मंदिरों-मठों-साधु-संतों में विश्वास नहीं करता, कि इनमें विश्वास करने वाले लोग पिछड़े-पुरातन-पोंगापंथी हैं, कि देव-मूर्तियों में क्या रखा है, कि हर पंडे-पुजारी के भगवे चोले के पीछे एक शैतान छुपा है, कि मठ व मंदिर षड्यंत्रों के गढ़ होते हैं। याद कीजिए हिंदी सिनेमा ने कैसे चर्च और पादरी को शांति का पर्याय और पंडे-पुजारियों को चारित्रिक दुर्बलता का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया और इस तरह का षड्यंत्र कितने दशकों से रचा जा रहा है। लेकिन दुर्भाग्य से हम उसको समझ ही नहीं पाए।

यह सोना दान करने वाला वक्तव्य भी उसी नैरेटिव का विस्तार व प्रसार है। कोरोना काल में हिंदू मंदिरों, गुरुद्वारों, साधु-संतों द्वारा चलाए जा रहे सेवा-कार्यों से ये विचलित और आशंकित थे। इन्हें डर था कि संत-शक्तियों के प्रति जनसाधारण की बढ़ती सद्भावना इनकी बची-खुची सत्ता का भी आसन्न अवसान है। इसलिए उन्होंने यह मुद्दा उछाला कि देखो इनके पास इतना अकूत सोना और धन है, पर ये इस संकट-काल में भी इसका मोह नहीं छोड़ पा रहे।

दरअसल यह मुद्दा उछालते हुए ये बड़ी चालाकी से इस तथ्य को छुपा जाते हैं कि इन मंदिरों-गुरुद्वारों में प्रतिदिन लगभग 15 करोड़ लोग भोजन-प्रसादी पाते हैं। बड़ी चालाकी से वे यह भी छुपा जाते हैं कि तमाम धार्मिक प्रतिष्ठान, ट्रस्ट, मंदिर आदि के द्वारा सेवा के सैकड़ों नहीं, हजारों प्रकल्प चलाए जाते हैं। गौशाला, धर्मशाला, अतिथिगृह,  भोजनालय, विद्यालय, चिकित्सालय के संचालन से लेकर नदी-तीर्थ-पर्वत-पर्यावरण-परिवेश तक की बेहतरी के लिए ये संस्थाएं प्रयत्नशील हैं। बड़ी चालाकी से वे लोग इस बात को भी छुपा जाते हैं कि मंदिरों के सोना-धन-वैभव पर तो इनकी गिद्ध-दृष्टि है, पर भ्रष्टाचार से जमा की गई अकूत धन-संपदा में से ये कौड़ी भर भी किसी को देना नहीं चाहते और देखिए, बड़ी चालाकी से ये महानुभाव यह भी नहीं बताते कि इनके अनुसार धार्मिक संस्थाओं में केवल मंदिर-गुरुद्वारे हैं या चर्च और मस्जिद भी हैं? यदि चर्च और मस्जिद हों भी तो किस चर्च और मस्जिद में सोना चढ़ाया जाता है? यदि ये सचमुच ईमानदार होते तो सबसे पहले चर्चों-मस्जिदों को मिलने वाली सरकारी रियायतों-अनुदानों पर पाबंदी की माँग करते।
एक ओर अल्पसंख्यक संस्थाओं को अधिक-से-अधिक स्वायत्तता देने की बढ़-चढ़कर वक़ालत और दूसरी ओर हिंदू-मंदिरों पर शिकंजा कसने की हरक़त, इनकी नीयत पर संदेह खड़ा करती है। यह नीयत हमें बरबस ही उन आक्रांताओं-विधर्मियों की याद दिलाती है जिन्होंने मंदिरों को लूटने व धर्मभ्रष्ट करने के लिए बार-बार आक्रमण किया, लाखों निर्दोषों के नरसंहार किए।

फिर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि प्राण-प्रतिष्ठा की गई मूर्तियों पर चढ़ाए गए धन या स्वर्ण के असली स्वामी भगवान के वे विग्रह होते हैं। उस धन से उनका शृंगार तो किया जा सकता है, पर ज़बरन छीना नहीं जा सकता। जो ग़ैर हिंदू भगवान पर चढ़े प्रसाद को भी ग्रहण करने में संकोच करते देखे जाते हैं, आश्चर्य है कि उनके अगुआ-पैरोकार मंदिरों पर चढ़ाए जाने वाले सोने पर लपलपाती निगाहें जमाए बैठे हैं। एक ऐसे दौर में जबकि सरकार आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन की बात कर रही है, ये हिंदू आस्था के केंद्रों को परावलंबी बनाने का षड्यंत्र रच रहे हैं। आज जन-कल्याण के कार्यों में धार्मिक संस्थानों एवं सिविल सोसायटी की भागीदारी बढ़ाने की आवश्यकता है, न कि उनके संसाधनों को हड़पने की। दुर्भाग्य से सनातन जीवन-मूल्यों के पक्षधर-पोषक भी जाने-अनजाने ऐसे कुटिल विमर्श के वाहक बन जाते हैं।

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