बनारस हिंदू विश्वविद्यालय : हिंदू पाठ्यक्रम का सुखद आरम्भ

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय : हिंदू पाठ्यक्रम का सुखद आरम्भ

प्रमोद भार्गव

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय : हिंदू पाठ्यक्रम का सुखद आरम्भबनारस हिंदू विश्वविद्यालय  में हिंदू पाठ्यक्रम का सुखद आरम्भ

महामना पंडित मदनमोन मालवीय ने जिस परिकल्पना के साथ बनारस के विश्वविद्यालय से ‘हिंदू‘ शब्द जोड़ा था, उस कल्पना ने अब साकार रूप ले लिया है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के अस्तित्व के बाद पहली बार हिंदू पाठ्यक्रम का शुभारम्भ हुआ है। अब वहॉं परास्नातक पाठ्यक्रम (एमए) में हिंदू धर्म, आध्यात्म एवं दर्शन की पढ़ाई भारत अध्ययन केंद्र के अंतर्गत आरम्भ हो गई है। इस हिंदू अध्ययन स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में भारत और विदेश के कुल 46 छात्रों ने प्रवेश लिया है। ये कक्षाएं 19 जनवरी 2022 से ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों ही माध्यमों से शुरू कर दी गई हैं। इसकी शुरुआत करते हुए प्रो. कमलेशदत्त त्रिपाठी ने कहा कि ‘हिंदू धर्म में अंतरर्निहित एकता के सूत्रों एवं उनकी आचार संहिता को ऋतु, व्रत्त और सत्य से जोड़कर इन्हें अद्यतन संदर्भों में पढ़ाया जाएगा। ‘धर्मो रक्षति रक्षितः‘ सूत्र के अनुसार आज हमें ऐसे विद्वान योद्धाओं के निर्माण की आवश्यकता है, जो सनातन धर्म और उसकी संपूर्ण ज्ञान परंपराओं का चारों दिशाओं में वैश्विक स्तर पर प्रचार व प्रसार करें।‘ इस परिप्रेक्ष्य में उल्लेखनीय है कि व्यापार के बहाने 1757 में बंगाल की धरती से जिस ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की नींव पड़ी, उसने 1858 तक संपूर्ण भारत में जबरदस्त विरोध व विद्रोह के बावजूद पैर पसार लिए थे। परिणामस्वरूप कंपनी के शासक वाइसराय की पराधीनता ऐसे कानूनों द्वारा लाद दी गई, जिसने भारत के आम नागरिक का नियमन, जिस धर्म और आध्यात्म में अंतरर्निहित मान्यताओं के माध्यम से होता था, वे खंडित होती चली गईं। भारतीयों पर अंग्रेजी कानून थोपकर यहां निवास करने वाले लोगों को असभ्य, अशिक्षित और बर्बर कहकर उन्हें दुनिया के सबसे दीन-हीन लोगों में शुमार कर दिया। दासता का ऐसा मायाजाल रचा कि आज भी भारत के अनेक अंग्रेजीदां वामपंथी बौद्धिक इस पाश्चात्य गुलामी के प्रति कृतज्ञ भाव बनाए हुए हैं। इस कृतज्ञता को हिंदू पाठ्यक्रम खंडित करने का काम करेगा।

यहां उल्लेखनीय है कि यदि भारतीयों में मानवीय आचरण का नियमन करने वाला कोई विधि-विधान नहीं था, तो फिर हजारों वर्षों से यह देश कैसे एक बृहद् राष्ट्र के रूप में अपना अस्तित्व बनाए रख सका? जबकि इसी कालखंड में यूनान, रोम और मिस्त्र की सभ्यताएं कानून होने के बावजूद नष्ट हो गईं। अतएव हम कह सकते हैं कि संपूर्ण भरतखंड में उस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की व्यापक स्वीकार्यता थी, जो मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाती रही। ऋषि-मुनियों और तत्वचिंतकों द्वारा अस्तित्व में लाई गईं वे मान्यताएं और आस्थाएं थीं, जो भारतीय नागरिकों को एक अलिखित आचार संहिता के जरिए अनुशासित करती थीं। आज भी भारतीय सबसे ज्यादा धर्म से ही चरित्रवान और अनुशासित बने हुए हैं। आज भी भारतीयों को किसी से सबसे अधिक जीवन-शक्ति मिलती है, तो यह आस्थाओं से ही मिलती है। इन्हीं के कारण भारतीय अन्य देशों के नागरिकों की तरह शोषक, स्वेच्छाचारी और आततायी नहीं बन पाया। वरना भारत ने मुगलों की क्रूरताएं देखीं और अंग्रेजों की धूर्तता भी देखी। इन्होंने भारतीय संपदा को लूटा और अपने देश भेज दिया। यह उसकी अंतरआत्मा पर अधिकार जमाए बैठा वह आध्यात्मिक ज्ञान ही है, जो आम भारतीयों को करुणामयी और दयालु बनाए रखता है। हिंदू पाठ्यक्रम लोक-कल्याण की भावना को भारतीयों में और मजबूत करेगा।

वैसे भी हिंदू दर्शन केवल स्वर्ग, नरक और मोक्ष का माध्यम न होकर एक ऐसा आदिकालिक सत्य है, जो आध्यात्म के बहाने विज्ञान के द्वार खोलता है। मानव मस्तिष्क और ब्रह्मांड में उपलब्ध तत्वों को परस्पर चुंबकीय प्रभाव से संबद्ध करता है। इसीलिए भीमराव अंबेडकर भी हिंदू धर्म को पूरी तरह नजरअंदाज करने के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि इस दर्शन की उपयोगिता को व्यवहार के स्तर पर उतारकर प्रासंगिक बनाने की आवश्यकता है। परंतु तात्कालिक सत्ताधीष मार्क्सवादी धर्म की घुट्टी पिलाने के लिए तो सहमत हो गए और इसके उलट हिंदू आध्यात्मिक दर्शन को सुनियोजित ढंग से बहिष्कृत करने में लग गए। जबकि मार्क्सवाद स्वयं में एक दर्शन है और उसकी अपनी रूढ़िवादिताएं हैं। इसीलिए जब डॉ. रामविलास शर्मा जैसे प्रखर मार्क्सवादी वेद, लुप्त सरस्वती नदी और सारस्वत सभ्यता की खोज करके उसे एक पुरातत्वीय-ऐतिहासिक तथ्यों के साथ स्थापित करने में जुटते हैं तो उनके तथ्यों और साक्ष्यों को देशभर में प्रगतिशील लेखक संघ के माध्यम से खारिज करने का अभियान चला दिया जाता है। जबकि इतिहास लेखन की पद्धतियां कहती हैं कि नूतन तथ्य और साक्ष्य मिलने की पुष्टि होने पर प्रचलित मान्यता को बदलना चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में हम बेबाकी से कह सकते हैं कि वामपंथी विचारधारा भी अंततः रूढ़िवादी और धार्मिक कट्टरता की पोषक रही है।

​सच पूछा जाए तो धर्म और आध्यात्म से जुड़े नए पाठ्यक्रमों का निर्धारण कोई नई बात नहीं है, जब मैं 1978 में जीवाजी विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य से एमए कर रहा था, तब हमें भक्तिकालीन साहित्य के अंतर्गत विनयपत्रिका, अयोध्याकांड (रामचरित मानस) पढ़ाए जाते थे और कहीं कोई विवाद नहीं था। व्यक्ति के जीवन को यदि कहीं कोई सबसे ज्यादा अनुशासित और नैतिक बनाए रखने का काम करता है तो वह धर्म में अंतरनिर्हित अध्यात्म ही है, क्योंकि इसमें ऐसे अनेक विषयों का समावेश है, जो हमें समाज के साथ विज्ञान की ज्ञान प्रणालियों से जोड़ता है। अतएव रामायण और महाभारत पढ़ाया जाना रूढ़िवादी कट्टरता का बीजारोपण करना न होकर सनातन संस्कृति, धर्म और आध्यात्म को केंद्र में रखकर प्राचीन संस्कृत, हिंदी ग्रंथों से लेकर योग, दर्शन, वास्तुशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, खगोल, रसायन, पर्यावरण, धातु और सैन्य विज्ञान का ज्ञानार्जन करना है। यह ज्ञान मीमांसा हिंदू धर्म व अध्यात्म के वैषिश्ट्य और समाज, कुटुंब व परिवार को एक बनाए रखने का काम करेगी। इन पर कालांतर में शोध व अनुसंधान होंगे तो आने वाली युवा पीढ़ी अपनी प्राचीन ज्ञान आधारित विशिष्टता से परिचित व गौरवान्वित होगी और वामपंथी व पाश्चात्य दुराग्रह के चलते जो लोग स्वयं को हीनता बोध से जकड़ लेते हैं, वे शास्त्र सम्मत तुलनात्मक परिचर्चा के लिए आगे आएंगे। वैसे भी प्रबंधन के पाठ्यक्रम में भगवान कृष्ण का पाठ दो दशक से भी ज्यादा समय से पढ़ाया जा रहा है।

दरअसल इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे मूल ग्रंथों में जरूर जीवन दर्शन के अनेक ऐसे उपयोगी सूत्र हैं, जिन्होंने इतने हमले होने के पश्चात् भी उन्हें अक्षुण्ण बनाए रखने की जिजीविषा दी। हम भलीभांति जानते हैं कि जिन गिरमिटिया मजदूरों को अंग्रेज सत्रहवीं सदी में फिजी, मॉरीशस, गुयाना, त्रिनिदाद आदि देशों में ले गए थे, वे कालांतर में इन देशों की स्वतंत्रता के बाद शासक भी बने। ये मजदूर अपने साथ केवल गीता और रामायण के गुटकों को धार्मिक-सांस्कृतिक थाथी के रूप में ले गए थे। इन्हीं के बूते इन्होंने अपना आत्मविश्वास बनाए रखा और इतिहास रचा। मानना होगा कि ये ग्रंथ गुलाम और दुश्कर जीवन को भी सार्थक बनाने में सहायक हैं। इसीलिए पुस्तकों को विशेष मित्र माना गया है। चूंकि अब देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रयासों से ऐसा सकारात्मक वातावरण निर्मित कर दिया गया है कि जो विश्वविद्यालय और उनके प्राध्यापक कल तक इन ग्रंथों के नाम का शिक्षा परिसरों में उल्लेख होते ही नाक-भौं सिकोड़ लेते थे, वे आज आगे बढ़कर इनमें पढ़ाए जाने वाले विषयों के पाठ तैयार कर रहे हैं।

बिहार में दरभंगा के शासकीय आयुर्वेदिक महाविद्यालय के औषधालय में चिकित्सकों ने नब्ज और जांच रिपोर्ट की बजाय रोगी की कुंडली देखकर उपचार शुरू कर दिया है। इस पद्धति से उपचार करने वाला यह देश का पहला संस्थान है। यहां के प्राचार्य डॉ. दिनेश्वर प्रसाद का कहना है कि चिकित्सा ज्योतिष की प्राचीन शाखा है, जो शरीर के विभिन्न अंगों, रोगों एवं औषधियों के सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों से तथा बारह राशियों के प्रकृति से संबंध पर आधारित है। जड़ी-बूटियों और अन्य दवाओं को उनके ज्योतिषीय गुणों के आधार पर उपचार के लिए चुना जाता है। इस पद्धति में बीमार लोगों की जन्म-पत्रिका या हस्तरेखा की सहायता से उपचार की सलाह दी जाती है। आयुर्वेद चिकित्सा के आवश्यक घटक दिनचर्या, ऋतुचर्या और पंचकर्म के सिद्धांत चिकित्सा ज्योतिष पर आधारित हैं।

गीता में सबसे प्रचलित एवं विवादित मान्यता, किसी भी जीव के शरीर में स्थित ‘आत्मा‘ है। आत्मा रूपी कभी भी नष्ट नहीं होने वाले इस बीज-तत्व को विज्ञान-सम्मत समर्थन भी अब मिल रहा है। भारतीय दर्शन की यह भौतिकवादी व्याख्या ऑक्सफोर्ड विवि के गण्ति व भौतिकी के प्राध्यापक रोगर पेनरोज और एरीजोना विवि के भौतिक विज्ञानी डॉ. स्टुअर्ट हामरॉफ के शोध-पत्रों ने की है। इनका मानना है कि मानव-मस्तिष्क एक जैविक कंप्यूटर है। इसकी पृष्ठभूमि में आत्मा या चेतना है, जो दिमाग के भीतर उपलब्ध एक कणीय (क्वांटम) कंप्यूटर के माध्यम से संचालित होती है। इसका आशय मस्तिष्क कोशिकाओं में स्थित उन सूक्ष्म नालिकाओं से है, जो प्रोटीन आधारित अणुओं से बनी हैं। बड़ी संख्या में ऊर्जा के सूक्ष्म-स्रोत अणु मिलकर एक क्वांटम क्षेत्र तैयार करते हैं, जिसका वास्तविक रूप चेतना या आत्मा है। असल में आत्मा का निर्माण उन्हीं तंतुओं या तत्वों से हुआ है, जिनमें सक्रियता और समन्वय के पश्चात ब्रह्मांड अस्तित्व में आया था। अतएव भारतीय दर्शन में उल्लेख है कि आत्मा काल के जन्म से ही ब्रह्मांड में व्याप्त है। वैज्ञानिकों ने आत्मा के अस्तित्व से जुड़े सिद्धांत को ‘आर्वेक्स्ट्रेड ऑब्जेक्टिव रिएक्शन‘ नाम दिया है।

मस्तिष्क में डाई-मिथाइल ट्रिप्टामाइन (डीएमटी) की खोज से भी पता चला है कि मानव मस्तिष्क के सूत्र अदृश्य रूप में ब्रह्मांड के चुबंकीय क्षेत्र से संबद्ध हैं। डीएमटी ही वह रसायन है, जिससे मनुष्य को अतिन्द्रिय बोध होता है। यही बोध उसे असंभव कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। मानव मस्तिष्क और ब्रह्मांड के परस्पर जुड़े होने के कारण ही यह धारणा बनी है कि जिस तरह से ब्रह्मांड पृथ्वी, ग्रह और समय की उत्पत्ति भयंकर कोलाहल के फलस्वरूप हुई, उसी तरह मनुष्य का जन्म भी होता है। चूंकि भारतीय आध्यात्म मानता है कि अंततः मनुष्य ब्रह्मांड में विद्यमान उन पंच तत्वों से निर्मित है, जो वायुमंडल में हर समय गतिशील बने रहते हैं। इसी कारण मानव मस्तिष्क ब्रह्मांड के चुंबकीय क्षेत्र से जुड़ा होता है। इस क्रम में भारत के पहले सुपर कंप्यूटर ‘परम‘ के निर्माता विजय भटकर का कहना है कि ‘सत्य को जानने के लिए कभी पश्चिमी शोधकर्ता स्मृति, शरीर और दिमाग पर निर्भर रहते थे, परंतु विज्ञान की नवीनतम ज्ञानधारा क्वांटम यांत्रिकी अर्थात अति सूक्ष्मता का विज्ञान आने के बाद उन्होंने ‘चेतना‘ पर भी काम शुरू कर दिया है। दरअसल वे समझ गए हैं कि भारतीय भाववादी सिद्धांत को समझे बिना चेतना का आंकलन संभव ही नहीं है। इसीलिए अब पाश्चात्य विज्ञान प्रकृति बनाम पदार्थ से आगे की सोचने लगा है। इसे ठीक से समझने के ‘नासा‘ पाणिनी व्याकरण का अध्ययन कर रहा है।‘अतएव हिंदू पाठ्यक्रम व्यक्ति को सदाचरण से तो जोड़ेंगे ही, ज्ञान-विज्ञान और अनुसंधान के नए द्वार खोलने में भी सहायक होंगे।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)

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1 thought on “बनारस हिंदू विश्वविद्यालय : हिंदू पाठ्यक्रम का सुखद आरम्भ

  1. सनातन धर्म संस्कृति तथा संस्कारों संरक्षण के लिए आपके द्वारा किए जा रहे उद्यम अनुकरणीय व प्रशंसनीय हैं ।

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