हिंदू विचार ही भारत की मूल पहचान है

समय आ गया है कि हमें जाति-मजहब से ऊपर उठकर सांस्कृतिक एकता के लिए प्रयत्न करने चाहिए। पुरखों द्वारा किए गए किसी मान अपमान के सवालों में उलझना संगठित ताक़त को कमज़ोर करना है। समग्र और संगठित हिंदू समाज के लिए जरूरत पड़ने पर पीछे छूट गए बंधुओं के पद-प्रक्षालन हेतु भी सहर्ष तैयार रहना चाहिए।

प्रणय कुमार

कोरोना के बढ़ते प्रसार और उसकी चिंताओं के बीच एक समाचार ने सुर्खियाँ भले न बटोरी हों, पर उसने कुछ समुचित प्रश्न अवश्य खड़े किए हैं। क्यों देश के सौ से भी अधिक सेवानिवृत्त नौकरशाहों को लगा कि मोदी सरकार मुसलमानों के साथ असमान व्यवहार कर रही है या उन्हें जान-बूझकर लक्षित कर रही है? यदि हम उनके आरोपों को पूर्वाग्रह और राजनीति से प्रेरित भी मानें, तब भी यह प्रश्न तो बनता ही है कि देश का पढ़ा-लिखा प्रबुद्ध तबका इतनी सहजता से ऐसे सरलीकृत निष्कर्षों को सत्य कैसे मान लेता है या उनके झाँसे में कैसे आ जाता है ? एक ओर जहाँ ‘सच्चा मुसलमान’ जैसे जुमले को शुद्धता-प्रामाणिकता का पर्याय मान लिया जाता है, वहीं दूसरी ओर हिंदू, हिंदुत्व, भगवा जैसे शब्दों के सामान्य प्रयोग को भी कट्टरता का परिचायक। एक ओर जहाँ हम इतने उदार हैं कि हर नरसंहार के बाद भी दुहराते हैं कि ”आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता”, वहीं दूसरी ओर असहिष्णुता के कथित अभियान को सत्य मान उनके सुर में सुर मिलाने लगते हैं। क्या कभी हमने इस पर गहन चिंतन किया कि ऐसा क्यों होता है?

वस्तुतः वामपंथ और उससे प्रेरित विचारधाराओं ने विगत सात दशकों के निरंतर प्रयासों द्वारा हमारा मानसिक अनुकूलन ऐसा कर दिया है कि हम सार्वजनिक विमर्श में हिंदू, हिंदुत्व जैसे शब्दों को नितांत वर्जित और अस्पृश्य-सा मान बैठे हैं। जबकि हम जानते हैं कि हिंदू धर्म किसी समुदाय-विशेष के विरुद्ध कभी भी नहीं रहा। न उसमें विश्वास रखने वाले शक्ति-संगठन ही किसी के विरुद्ध रहे। उनका विरोध उस घृणित-विभाजनकारी मानसिकता से है, जो हमें बाँटकर इस देश को सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से दुर्बल करती रही है। अतीत में हमने इतना कुछ खोया है कि यह चिंता निराधार नहीं लगती। इस मानसिक अनुकूलन के कारण ही हमें असत्य भी सत्य प्रतीत होता है। युग विशेष में प्रचलित-प्रक्षेपित भ्रांतियाँ और रूढ़ियाँ ही वास्तविक जान पड़ती हैं। आज आवश्यकता इस मेंटल कंडीशनिंग से मुक्त होने की है।

किसी को इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए कि संगठित सनातन शक्ति व संस्कृति ही अंधकारग्रस्त विश्व को नवीन आलोक-पथ पर लेकर जाएगी। यदि कोई उस शक्ति को भारतीय कहना चाहे तो निःसंकोच कहे, पर भारत की जिस संस्कृति की चतुर्दिक जय-जयकार की जाती है, वह सनातन संस्कृति ही है।

हिंदुत्व एक जीवन-पद्धत्ति है, जो समस्त जड़-चेतन में एक ही सत्ता के दर्शन करना जानती है। इस समग्रतावादी जीवन-दृष्टि और महान मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए हिंदुओं का अस्तित्व और हिंदू संस्कृति का संरक्षण-संवर्द्धन इस भारत-भूमि पर अपरिहार्य है। सवाल जब अस्तित्व का हो तो बाक़ी सारी बातें गौण हो जाती हैं। जो शुतुरमुर्ग की तरह जीना चाहते हैं, वे खुशी से जिएँ, पर आँख वालों के लिए कश्मीर, पश्चिम बंगाल का उदाहरण सामने है। उससे पूर्व भी अनेक उदाहरण हैं।

इसलिए जीवन का एकमात्र ध्येय संगठित हिंदू, संस्कृतिनिष्ठ भारत का होना चाहिए। हिंदुत्व से निःसृत राष्ट्रवाद पश्चिम की तरह का एकाकी राष्ट्रवाद नहीं है। वह संकीर्ण नहीं है। आक्रामक नहीं है। विस्तारवादी भी नहीं है। वह सर्वसमावेशी है। उसका संबंध समानुभूति से है। यह समझने की आवश्यकता है कि केवल मजहब बदल लेने से पुरखे, परंपरा और संस्कृति नहीं बदलती।

हिंदू विचार से समस्या उन्हें है जो थोपने में विश्वास करते हैं। जिनकी निष्ठा भारत से कम, अपने-अपने उद्गम-स्थलों से अधिक है, जो यहाँ की धारा में रच-बस गए, जो यहाँ की मिट्टी-हवा-पानी-परिवेश में घुल-मिल गए, वे सभी पंथ-मज़हब हमारी इस मूल धारा की सहायक-अनुकूल-सहचर धाराएँ हैं। हमने जिस स्पष्टता से यह घोषणा की कि सभी रास्ते उस एक ही परम् ब्रह्म परमेश्वर की ओर जाते हैं, वैसी घोषणा संसार की किसी सभ्यता या संस्कृति में नहीं है और इसे हम आज तक जीते हैं।

हमारे चिंतन में व्यक्ति, परिवार, समाज, देश, दुनिया, अखिल ब्रह्मांड यानि इस चराचर में व्याप्त जड़-चेतन सभी के हिताहित की चिंता सम्मिलित है। दुर्भाग्य से शेष सभी विचारों ने विखंडनवादी दृष्टिकोण का समर्थन किया और उसे लेकर ही आगे बढ़े। लेकर वे चले, जबकि हमने समग्रतावादी दृष्टिकोण अपनाया। इसलिए समन्वय और सद्भाव का पाठ सीखने के लिए हमें किसी बाहरी धर्म-सत्ता/ प्रतिष्ठान की ओर नहीं देखना है। वह हमारी जीवन-पद्धत्ति का अभिन्न हिस्सा है और उसे बचाने के लिए ही संगठित हिंदू शक्ति या सांस्कृतिक पुनरुत्थान की आवश्यकता है। क्या हम एक ऐसी कौम के रूप में याद किया जाना पसंद करेंगे जो इतिहास से भी कुछ नहीं सीखती। जो चोट खा-खाकर भी अपनी उन्हीं कमजोरियों को दुहराती है। हिंदू विचार को संकीर्णता का पर्याय घोषित करने वाले बताएँ कि जातीय अस्मिता के लिए लड़ना-झगड़ना सामाजिक न्याय की लड़ाई कैसे और सांस्कृतिक अस्मिता के लिए स्वयं को होम कर देना कट्टरता कैसे हो जाती है?

अब समय आ गया है कि हमें जाति-मजहब से ऊपर उठकर सांस्कृतिक एकता के लिए प्रयत्न करने चाहिए। पुरखों द्वारा किए गए किसी मान अपमान के सवालों में उलझना संगठित ताक़त को कमज़ोर करना है। हमारी पराजय चाहने वालों को भी हमारी इस चिर-परिचित दुर्बलता का बोध है। समग्र और संगठित हिंदू समाज के लिए जरूरत पड़ने पर अपने पीछे छूट गए बंधुओं के पद-प्रक्षालन हेतु भी सहर्ष तैयार रहना चाहिए।

इस चिर पुरातन, चिर नवीन सनातन जीवन-पद्धत्ति को व्यावहारिक रूप से क्रियान्वित करने के लिए एक तंत्र चाहिए। उसे ताकत और गति प्रदान करने के लिए एक सामूहिक-स्थूल-प्रत्यक्ष शक्ति चाहिए। उस प्रत्यक्ष शक्ति और तंत्र को सत्य-साकार करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे सामाजिक संगठन निरंतर सक्रिय व सचेष्ट हैं। परंतु इस महान लक्ष्य को साधने के लिए जन साधारण एवं अन्य धार्मिक-आध्यात्मिक संगठनों को भी ऐसे प्रयासों को तीव्रतर करने में अपना योगदान देने की आवश्यकता है। हर आँख वाला यह देख सकता है कि जब-जब हिंदू और उससे निकले मत-मतांतर का प्रभाव घटा है देश बँटा है। जन-जन को इस युगसत्य की सच्ची प्रतीति कराना समय की माँग है।

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