हिन्दू विरोध का जन्मजात एजेंडा, एओ ह्यूम (1885) से 2023 तक

हिन्दू विरोध का जन्मजात एजेंडा, एओ ह्यूम (1885) से 2023 तक

राष्ट्रचिंतन लेखमाला -1

नरेंद्र सहगल

हिन्दू विरोध का जन्मजात एजेंडा, एओ ह्यूम (1885) से 2023 तकहिन्दू विरोध का जन्मजात एजेंडा, एओ ह्यूम (1885) से 2023 तक

हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दू संस्कृति का विरोध तो कांग्रेस के डीएनए में ही है। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म भारत में जड़ें जमा चुके ईसाई साम्राज्यवाद के ‘सुरक्षा कवच’ के रूप में हुआ था। सनातन भारत वर्ष अर्थात् हिन्दुत्व को पूर्णतया समाप्त करने का यह ईसाई षड्यंत्र था, जिसके शिकार भारत के कुछ चुनिंदा अंग्रेज भक्त नेता हो गए थे। यहीं से प्रारंभ हुआ यह हिन्दू-राष्ट्र विरोधी राजनीतिक अभियान जो आज तक निरंतर चलाया जा रहा है। प्रस्तुत है… कांग्रेसियों के इस जन्मजात हिन्दू विरोध का थोड़े से शब्दों में पूर्ण वर्णन।

सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भारत में तेजगति से हो रही सांस्कृतिक राष्ट्रीयता (हिन्दुत्व) व देशव्यापी सशस्त्र क्रांति को कुचलने के लिए एक कट्टरपंथी ईसाई ऐलन अक्ट्रोनियन ह्यूम ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी। इस कांग्रेस का भारत की स्वतंत्रता से कुछ भी लेना-देना नहीं था। स्वतंत्रता के लिए मैदान-ए-जंग में उतर रहे भारतीयों के हाथों से हथियार छीनकर भीख का कटोरा थमा देने का यह घोर हिन्दुत्व विरोधी साम्राज्यवादी एजेंडा था। अतः 1885 में स्थापित कांग्रेस की मुख्य तीन ही गतिविधियां थीं – अंग्रेजों की प्रशंसा, हिन्दू संस्कृति का विरोध और हाथ जोड़कर स्वतंत्रता मांगना।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जाल में फंसकर भारत की सनातन संस्कृति और गौरवशाली इतिहास से अनभिज्ञ अनेक अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों ने कांग्रेस के मंच पर एकत्रित होकर अपने ही सनातन अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाया और सात समुद्र पार से आए क्रूर अंग्रेजों के आगे दुम हिलाने लग गए।

इस समय की कांग्रेस के प्रसिद्ध हिन्दू नेताओं आरसी मजूमदार, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले और दादाभाई नौरोजी इत्यादि ने कांग्रेस के अधिवेशनों में कहना शुरू कर दिया – ‘भारत कभी एक राष्ट्र था ही नहीं, भारत में अंग्रेजों का राज ईश्वरीय योजना है’ – ‘अंग्रेजों का शासन कल्याणकारी है।’ इन नेताओं ने हिन्दुओं के सनातन इतिहास और संस्कृति को पूर्णतया नकार दिया। यही अंग्रेज चाहते थे। यह हिन्दू विरोधी षड्यंत्र 1885 से 1906 तक बिना किसी रोक-टोक के चलता रहा।

कालांतर में कांग्रेस के भीतर से ही अनेक हिन्दुत्वनिष्ठ नेता सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का झण्डा लेकर मैदान में उतरे। लोकमान्य तिलक, विपिनचंद्र पाल, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष, ऐनी बेसेंट इत्यादि नेताओं ने सीना तानकर गणेशोत्सव, शिवाजी राज्याभिषेक उत्सव, काली पूजा, गऊ रक्षा, रामराज्य, गीता, वन्देमातरम, हिन्दी भाषा और भारत माता की जय के गगनभेदी स्वर गुंजा दिए। इन नेताओं ने सशस्त्र क्रांतिकारियों की पीठ पर हाथ रख दिया। हिन्दू राष्ट्र की इस जाग्रत चेतना को उदारवादी अंग्रेज भक्त कांग्रेसियों ने बर्दाश्त नहीं किया। जब ये गर्म दल के हिन्दू नेता 1907-1908 में गिरफ्तार होकर जेलों में ठूंस दिए गए तो अंग्रेज भक्त कांग्रेसी नेतृत्व ने ब्रिटिश शासकों का खुला समर्थन किया।

अंग्रेजों को भारत के भाग्य निर्माता मानने वाले उदारवादी कांग्रेसियों ने स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, महात्मा ज्योति फुले और राजा राम मोहन राय जैसे हिन्दू जाग्रति के पुरोधाओं से भी कुछ नहीं सीखा और ‘भारत एक सनातन हिन्दू राष्ट्र है’ इस सत्य को भी स्वीकार नहीं किया। यही कांग्रेसी नेता अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की भारत तोड़ो राजनीति के शिकार हो गए। अब तो इनके सिर पर मुस्लिम तुष्टिकरण का भूत भी सवार हो गया। हालांकि, आगे चलकर इस मुस्लिम तुष्टिकरण के भयंकर देशघातक परिणाम भी सामने आ गए।

पूजनीय महात्मा गांधी ने 1919 में मुसलमानों का साथ लेने के लिए खिलाफत आंदोलन का पुरजोर समर्थन कर दिया। यह आंदोलन टर्की के खलीफ़ा से संबंधित था। इसका भारत से कोई सम्बंध नहीं था। गांधी जी के ये प्रयास विफल हुए। मुसलमान समाज गांधीवादी राष्ट्रीय धारा में शामिल नहीं हुआ। इसी समय कोहाट एवं मोपला जैसे दंगों में लाखों हिन्दुओं का नरसंहार हुआ, तो भी अंग्रेज भक्त कांग्रेसियों ने न तो अंग्रेजों की निंदा की और न ही तुष्टिकरण की नीति को छोड़ा। परिणामस्वरूप मुस्लिम अलगाववाद उभर कर धरातल पर आ गया।

कांग्रेस की तुष्टिकरण नीति के फलस्वरूप मुस्लिम बहुल इलाकों में दंगे भड़कने लगे और बेकसूर हिन्दुओं की लाशें बिछने लगीं। बगुले की तरह झांक रही अंग्रेज सरकार ने इस मुस्लिम अलगाववाद की आग को बुझाने के बजाए इस पर मुस्लमानों के लिए पृथक चुनाव प्रतिनिधित्व का तेल छिड़क दिया। ब्रिटिश सरकार ने पहले 1909 में सुधारों के नाम पर (मिंटो मार्ले सुधार) और बाद में 1919 में मांटेग्यू – चेम्सफोर्ड एक्ट द्वारा मुसलमानों को चुनावों में आरक्षण दे दिया। कांग्रेस ने भी इसे स्वीकार कर लिया। इस तरह से इन अंग्रेज भक्त कांग्रेसियों ने विशाल हिन्दू समाज से विश्वासघात करके भारत के विभाजन की नींव रख दी।

कांग्रेस ने बहुसंख्यक सनातनी हिन्दू समाज के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात तो तब किया, जब राष्ट्रध्वज का महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आया। ध्वज पर छिड़े विवाद को हल करने के लिए 1926 में कराची में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक झण्डा कमेटी बनाई गई। इस कमेटी ने सर्वसम्मत निर्णय किया कि भगवा ध्वज ही भारत का राष्ट्रीय ध्वज होना चाहिए। परंतु बाद में अंग्रेजों द्वारा प्रचारित मिली जुली संस्कृति और खिचड़ी राष्ट्रवाद का दबाव पड़ने पर इस महत्वपूर्ण फैसले को रद्द कर दिया गया। यह लाखों भारतीयों के शौर्य, संतों-महात्माओं का घोर अपमान था।

कांग्रेस का जन्मजात हिन्दू विरोध यहीं तक पूरा नहीं हुआ। कांग्रेस ने भारत के विभाजन को स्वीकार करके पाकिस्तान नामक एक कट्टरपंथी और भारत विरोधी मुस्लिम राष्ट्र के निर्माण को हरी झंडी दिखा दी। 1200 वर्षों तक हिन्दू समाज द्वारा लड़े गए स्वतंत्रता संग्राम की पीठ में छुरा घोंप कर कांग्रेसी नेताओं ने विश्व के सबसे सनातन हिन्दू राष्ट्र के टुकड़े कर दिए। विभाजन के समय लाखों निर्दोष भारतीयों के कत्लेआम और करोड़ों मां-बहनों के शीलहरण के लिए कौन जिम्मेदार है?

देश की आधी अधूरी स्वतंत्रता के बाद भी सत्ता पर बैठी कांग्रेस ने अपने जन्मजात संस्कारों में जमे हिन्दू विरोध को तिलांजलि नहीं दी। पाकिस्तान को करोड़ों रुपये की आर्थिक सहायता दी गई और इधर कश्मीर में बहुसंख्यक मुस्लिम समाज को प्रसन्न करने के लिए सविधान में धारा 370 लगाकर मुस्लिम अलगाववाद को बढ़ावा दे दिया। फलस्वरूप कश्मीर में खूनी आतंकवाद पनपा और लाखों हिन्दुओं को निकाल बाहर किया गया।

1966 में जब लाखों हिन्दू संत गोहत्या के विरोध में अपनी आवाज पहुंचाने दिल्ली पहुंचे तो उन पर गोलियां चलाकर अनेक संतों को मौत के घाट उतार दिया गया। अपने को ‘एक्सीडेंटल हिन्दू’ कहने वाले पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी हिन्दुत्व विरोधी मानसिकता दर्शाते हुए ‘हिन्दू कोड बिल’ कानून बनाकर बहुसंख्यक समाज को बंधनों में डाल दिया और उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बनवाकर मुस्लिम समाज को हिन्दुओं के सिर पर बिठा दिया। याद करें 1984 में दिल्ली में हजारों सिक्खों का एकतरफा नरसंहार करने वालों को कौन से नेता प्रोत्साहन दे रहे थे? किस प्रधानमंत्री ने कहा था कि “बड़ा पेड़ गिरने पर धरती तो हिलती ही है?”

इसी तरह प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह ने “देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है” कह कर हिन्दुओं के सीने में कांग्रेसी नश्तर घोंप दिया। कांग्रेस श्रीराम के अस्तित्व को नकारने के लिए अदालत में जा पहुंची। रामसेतु तुड़वाने का षड्यंत्र भी रचा जाने लगा। जब हिन्दू कारसेवकों ने आक्रांता बाबर के सेनापति मीरबाँकी द्वारा मंदिर तोड़कर उस पर बनाए गए ढांचे को गिरा दिया, तब कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने ही कहा था “हम बाबरी मस्जिद फिर बनाएंगे।”

अयोध्या में श्रीराम के मंदिर निर्माण के लिए हिन्दुओं द्वारा किए गए प्रत्येक प्रयास और आंदोलन का कांग्रेस ने सदैव जमकर विरोध किया। कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल ने तो सुप्रीम कोर्ट में निवेदन किया था कि मंदिर से संबंधित निर्णय को रोक दिया जाए। आज भी कांग्रेसी नेता मंदिर के निर्माण में जुटे हिन्दू नेताओं पर तरह-तरह के बेबुनियाद आरोप लगा रहे हैं। हिन्दू संस्थाओं और हिन्दू नेताओं को बदनाम करने के लिए कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं ने ‘हिन्दू आतंकवाद’ का शोर मचाया था।

वर्तमान में कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में हिन्दुत्व और भारत विरोधी ईसाई पादरी और फारुख अब्दुल्ला जैसे कट्टरपंथी शामिल हो रहे हैं। उपसंहार के रूप में कह सकते हैं कि कांग्रेस का जन्मजात हिन्दू विरोध कभी भी समाप्त नहीं हो सकता। ध्यान दें कि गत तीन दशकों से कांग्रेस का नेतृत्व सोनिया गांधी ही कर रही हैं।

शेष अगले लेख में…

(वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)

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