हेडगेवार और सावरकर को पाठ्यपुस्तकों से हटाने के मायने

हेडगेवार और सावरकर को पाठ्यपुस्तकों से हटाने के मायने

अवधेश कुमार

हेडगेवार और सावरकर को पाठ्यपुस्तकों से हटाने के मायनेहेडगेवार और सावरकर को पाठ्यपुस्तकों से हटाने के मायने

अब एक समाचार यह है कि कर्नाटक सरकार पाठ्यपुस्तकों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और वीर विनायक दामोदर सावरकर की जीवनी हटाने के निर्णय को वापस ले सकती है। हालांकि उसकी पुष्टि नहीं हुई है। हटाने का निर्णय मंत्रिमंडल की बैठक में लिया गया और शिक्षा मंत्री ने इसकी जानकारी दी। वापस ले भी लें तो जिस प्रकार के बयान और विचार महापुरुषों के बारे में कांग्रेस के लोगों ने प्रकट किए, उनके क्या मायने रह जाएंगे? पुस्तकों से इनको हटाने का निर्णय चुपचाप नहीं बल्कि शोर मचा कर लिया गया। पूरे देश में इसका संदेश देना मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की सरकार को राजनीतिक दृष्टि से आवश्यक लगा। कांग्रेस ने नेहरू मेमोरियल एंड लाइब्रेरी सोसाइटी का नाम पीएम मेमोरियल एंड लाइब्रेरी सोसायटी करने पर नरेंद्र मोदी सरकार पर हमला बोला है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि जिनका अपना इतिहास नहीं है वो दूसरे का इतिहास मिटाने में लगे हैं। सामान्य तौर पर लगेगा कि भाजपा कांग्रेस के प्रथम परिवार के लोगों का नाम हटा रही है, तो कांग्रेस संघ तथा हिंदुत्व से जुड़े महापुरुषों को खलनायक बना रही है। हालांकि कांग्रेस और अन्य भाजपा विरोधी पार्टियां संघ, भाजपा तथा हिंदुत्व विचारधारा के पूर्वजों के लिए जिस तरह की अपमानजनक भाषा का प्रयोग करती हैं, जितनी निंदा करती हैं उस तरह की शब्दावलियां भाजपा की ओर से कांग्रेस के प्रथम परिवार या कुछ दूसरे नेताओं के बारे में नहीं आतीं।

स्वाभाविक ही विश्लेषण करते समय इस गुणात्मक अंतर का ध्यान रखना होगा। सभ्य समाज एवं व्यवस्था में सामान्य आचरण का मापदंड है कि किसी से हमारे वैचारिक मतभेद या सहमति चाहे जितने हों, अपमान व घृणा का व्यवहार नहीं होना चाहिए। दूसरे, शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षार्थियों को हर विचारधारा का संतुलित ज्ञान मिलना चाहिए। कांग्रेस या अन्य संघ तथा भाजपा विरोधी पार्टियां जो कुछ कर रहीं हैं उसे लोकतंत्र का सभ्य व्यवहार नहीं माना जा सकता। आखिर डॉ. हेडगेवार और सावरकर को पढ़ाने से परहेज क्यों? आप उनसे वैचारिक रूप से असमत रहें, उनकी विचारधारा का विरोध करें, यह समझ में आ सकता है, किंतु एक व्यक्ति, जिसने किसी संगठन की नींव डाली, वह आज पूरी दुनिया के 100 से अधिक देशों में सक्रिय है, तीन दर्जन से अधिक उसके अलग-अलग सहायक संगठन हैं, उसके लोगों द्वारा स्थापित राजनीतिक पार्टी भाजपा की केंद्र के साथ अनेक राज्यों में सरकारें हैं, इसने देश को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, अनेक राज्यपाल, मुख्यमंत्री, शिक्षाविद, वैज्ञानिक, वीर सिपाही, साहित्यकार, पत्रकार, चिंतक, धार्मिक महापुरुष.. हर क्षेत्र में अपने कार्यों से मानक स्थापित करने वाले लोग दिये हैं, उनके बारे में विद्यार्थियों को जानकारी से वंचित रखना कैसी नीति है? वीर सावरकर के बारे में इतनी बहस हो चुकी है कि उस पर अलग से कुछ बताने की आवश्यकता नहीं। क्रांतिकारी आंदोलन के साथ समाज सुधार सहित हर विधा में लेखन करने वाले ऐसे महापुरुष को आप पाठ्यपुस्तक से निकाल बाहर करें, यह किसी भी खुले विचारों के समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता।

वीर सावरकर ने इतिहास, राजनीति, साहित्य, व्याकरण, समाजशास्त्र, निबंध आदि अनेक क्षेत्रों के लेखन में अपना स्मरणीय योगदान दिया है। मराठी साहित्यकारों में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। डॉ. हेडगेवार के बारे में तो कभी किसी भी विरोधी नेता ने एक नकारात्मक टिप्पणी नहीं की। उनका सभी पार्टियों और विचारधाराओं के अंदर सम्मान था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना करने के बाद जब जंगल सत्याग्रह में उनकी गिरफ्तारी हुई, तो आज के महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के क्षेत्रों को मिलाने वाली सेंट्रल प्रोविंस की विधानसभा में एक स्वर में इसका विरोध हुआ, उनको देशभक्त कहा गया।

इस पहलू को छोड़ दीजिए और जरा दूसरे दृष्टिकोण से विचार करिए। भारत की पाठ्यपुस्तकों में देश का विभाजन कराने वाले मोहम्मद अली जिन्ना, मोहम्मद इकबाल के बारे में पढ़ाया जाता है। राजनीति शास्त्र में इनकी विचारधारा पढ़ाई जाती रही है। यही नहीं नादिरशाह से लेकर अहमद शाह अब्दाली तक पाठ्य पुस्तकों में हैं। हिटलर, मुसोलिनी, फ्रैंको तक को अपने पाठ्यक्रम में बनाए रखा है। अंग्रेजों ने हमारे देश पर शासन किया, उनके वायसराय और गवर्नर जनरल तक को हमने पाठ्य पुस्तकों में स्थान दिया है। कभी किसी ने आवाज नहीं उठाई कि इन सबको पाठ्यपुस्तकों से बाहर किया जाए। सच तो यह है कि इनमें से अधिकांश के बारे में पढ़ाना अनावश्यक और निरर्थक है। आज तो जिस औरंगजेब ने अपने पिता को कैद किया, बहन को लाल किले से फेंककर मार दिया, तीनों भाइयों की हत्या की और एक भाई का सिर काट कर थाल में सजाकर पिता को भेज दिया ऐसे क्रूर शासक को भी महिमामंडित कर पढ़ाने की होड़ लगी हुई है। इसमें डॉ. हेडगेवार, सावरकर या उनकी श्रेणी के दूसरे व्यक्तित्वों को पाठ्यपुस्तकों से बाहर करने का क्या संदेश निकलता है? विडंबना देखिए कि एक ओर ये दूसरी विचारधारा के महापुरुषों को देशद्रोही, खलनायक, अंग्रेजों का दलाल कहते हैं, उन्हें पाठ्यपुस्तकों से निकालते हैं और स्वयं यह आशा रखते हैं कि इनकी धारा के इनके द्वारा घोषित महापुरुषों को पूजनीय और सम्माननीय मानें!

वैसे सच यही है कि भाजपा की सरकारों ने नेहरू को पाठ्य पुस्तकों से बाहर नहीं किया है। यह सही है कि नेहरू को स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्वाधीनता के बाद पुनर्निर्माण तक अनेक महापुरुषों की तुलना में सर्वोच्च स्थान देने के जो बौद्धिक, राजनीतिक प्रयास हुए थे, वे अधिक सफल नहीं हो पाए। उनके समानांतर दूसरे महापुरुषों के योगदान को भी सामने लाया गया है। नेहरू मेमोरियल एंड लाइब्रेरी सोसाइटी को पीएम मेमोरियल एंड लाइब्रेरी सोसाइटी बनाने के पीछे यही सोच है। आज तीन मूर्ति भवन में आपको भारत के सभी प्रधानमंत्रियों की स्मृतियां और उनके योगदान से संबंधित चीजें मिल जाएंगी। इनमें उसी परिवार की श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी भी शामिल हैं। उनमें कांग्रेस के लालबहादुर शास्त्री, नरसिम्हा राव तथा मनमोहन सिंह तक समाहित हैं। अगर वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व को इन सबको समान महत्व दिया जाना नागवार गुजरा है, तो यह एक मानसिकता है। कांग्रेस पार्टी ने अपने शासनकाल में कम्युनिस्ट विचारधारा के गैर ईमानदार बुद्धिजीवियों, नेताओं, नौकरशाहों के प्रभाव में महापुरुषों एवं इतिहास का भयावह विकृतिकरण कर दिया। स्वयं उसके महापुरुष तिरोहित कर दिए गए और उनके स्थान पर नेहरू के साथ ऐसे -ऐसे लोगों को लाकर बिठाया दिया, जिनमें से अनेक का स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर राष्ट्र के पुनर्निर्माण में योगदान न के बराबर था या जिनकी भूमिका विपरीत थी। थोड़ी भी गहराई से देखिए तो पंडित नेहरू को इतना महाकाय बना दिया गया कि उनके सामने उनसे वरिष्ठ, समान और कनिष्ठ साथी बौने या विलुप्त हो गए। जितने स्थान, सम्मान, पुरस्कार, संस्थाएं इनके नाम पर रहे, उनकी तुलना में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संघर्ष और स्वाधीनता के बाद भारत के पुनर्निर्माण में योगदान देने वाले महान नेताओं की सूची बना लीजिए और देखिए क्या स्थिति है?

नेहरू और परिवार को महिमामंडित करने के आवेग में स्वतंत्रता संघर्ष और स्वाधीनता के बाद के सच्चे इतिहास का दमन कर दिया गया। कांग्रेस के ही महान सपूत इतिहास और पाठ्यपुस्तकों से बाहर हो गए। कर्नाटक सरकार के निर्णय पर ताली पीटने वाले समाजवादी जरा ठहर कर सोचें कि जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया, आचार्य कृपलानी सभी तब कांग्रेस में ही थे। उनको नेहरू की तुलना में पाठ्यपुस्तकों में कितनी जगह मिली? कृपलानी स्वाधीनता के समय कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे। इस तरह देखें तो सिद्धारमैया सरकार ने उसी धारा को आगे बढ़ाया है। वैसे भी भारत और दुनिया भर के जो एनजीओ, संगठन, राजनीतिक दल, नेता, बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट नरेंद्र मोदी सहित भाजपा सरकारों के विरुद्ध सक्रिय हैं तथा राहुल गांधी को प्रमोट करने में हर तरह का संसाधन लगा रहे हैं, उन सबका एजेंडा है। इस एजेंडे को पूरा करने के लिए कांग्रेस बाध्य है। न भूलिए एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कांग्रेस सरकार के गठित होते ही रिलीजियस कन्वर्जन कानूनों, गौ हत्या निषेध कानून, हिजाब पर शिक्षण संस्थानों में प्रतिबंध आदि हटाने की मांग की और सरकार के निर्णय सामने आ रहे हैं।

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