वे कभी विपक्ष नहीं थे, उनका पक्ष तय था
आशीष कुमार ‘अंशु’
अभिव्यक्ति की आजादी, बोल के लब आजाद हैं तेरे, असहमति का सम्मान जैसे शब्दों का प्रसार जिस इको सिस्टम में सबसे अधिक हुआ, उन्होंने ही कभी इसका मान नहीं रखा। लोकतंत्र के चौथे खंभे पर उनका नियंत्रण था और इस नियंत्रण को उन्होंने दो खंभों पर टिका कर रखा था। पहला खंभा था नैरेटिव का और दूसरा खंभा इको सिस्टम का। इस तरह वे देश की हर वैचारिकी पर नियंत्रण करते थे। जहां पक्ष भी उनका होता था और विपक्ष में भी वे खुद ही होते थे। आजादी के बाद के पचास—साठ सालों तक वैचारिक कार्यों से दूसरा पक्ष बिल्कुल गायब कर दिया गया। मानों उसका कोई अस्तित्व ही ना हो और नैरेटिव यह बनाया गया कि ”संघी पढ़ते—लिखते नहीं।” और फिर यह बात इतनी बार दुहराई गई कि सच लगने लगी।
हिटलर का प्रचार मंत्री जोसेफ गोएबल्स भी यही बात कहा करता था। किसी झूठ को हजार बार बोलने से वह सच की तरह स्थापित हो जाता है। इतिहासकार पंडित भगवद्दत्त ने भारत का इतिहास दो खंडों में लिखा है। वे चाहते थे कि भारत सरकार जो इतिहास लेखन करा रही है, वह प्रामाणिक हो। वह किसी भी प्रकार से एक पक्षीय ना हो। उसमें सभी पक्षों की बात रखी जाए। उन्होंने इस संबंध में शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद से मुलाकात की। उनकी एक ना सुनी गई। उन्होंने राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को पत्र लिखा। लेकिन उसका लाभ भी ना हुआ। पंडित भगवद्दत्त मात्र इतना चाहते थे कि दोनों पक्ष अपनी बात रखें और जिसके साक्ष्य अधिक प्रामाणिक हो। उसकी बात इतिहास में दर्ज की जाए। लेकिन इतिहास लेखन का सारा कार्य वामपंथी समूह को सौंप दिया गया और जो वामपंथी समूह कथित तौर पर असहमति के स्वागत के लिए तैयार रहता है, वही समूह इतिहासकार भगवद्दत्त के मामले में असहिष्णु साबित हुआ।
मीडिया को विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए जैसे जुमलों का प्रयोग 2014 के बाद अचानक सोशल मीडिया से लेकर यू ट्यूब चैनल तक पर बढ़ गया है। क्या इस देश के अंदर वामपंथोन्मुख मीडिया ने कभी ईमानदारी से विपक्ष की भूमिका निभाई है? मीडिया के छात्रों को प्रारम्भिक दिनों में ही यह बात समझा दी जाती थी कि यदि आपका रुझान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति होगा तो मीडिया में नौकरी मिलने में बहुत परेशानी होगी। कॉमरेड गुरुओं की यह समझाइश बालमन पर बहुत गहरे छप जाया करती थी। इसी का परिणाम है कि आज मीडिया में बड़ी जनसंख्या ऐसे रंगरूटों से भरी पड़ी है, जिन्हें राष्ट्रीयता के विचार के संबंध में कुछ विशेष पता नहीं लेकिन वे इस विचार से घृणा भरपूर करते हैं।
विनायक दामोदर सावरकर को लेकर माफीवीर नैरेटिव गढ़ा गया और इको सिस्टम ने इसे स्थापित कर दिया। फिर विक्रम संपत जैसे एक इतिहासकार सामने आए। वामपंथियों के नैरेटिव को ठीक से धोया—पोंछा और सावरकर को लेकर बना इको सिस्टम ध्वस्त हुआ। संपत अपने साक्षात्कारों में यही कह रहे हैं कि काल, समय, परिस्थिति को देखे और समझे बिना हमें सावरकर पर निर्णय नहीं सुनाना चाहिए।
सावरकर वामपंथियों को नहीं जमते, इसका एक कारण रत्नागिरी का पतित पावन मंदिर भी है। महाराष्ट्र सूचना केन्द्र के अनुसार — ”पतित पावन मंदिर जो रत्नागिरी में स्थित है। वहां स्वातंत्र्यवीर सावरकर और श्रीमंत भागोजी कीर की पहल से, हर जाति के सभी लोगों को मुक्त प्रवेश मिला। वहां प्रवेश के लिए जाति—पाति का भेद नहीं था। यह मंदिर 22 फरवरी 1931 को सभी के लिए खोला गया।” वास्तव में दलित—सवर्ण सद्भाव के लाखों किस्से हैं देश में, लेकिन वह लिखे नहीं जाते क्योंकि दशकों से देश में हिन्दू—मुस्लिम हारमोनी के किस्सों को लिखने का चलन रहा है। सवर्ण और दलितों के बीच में तो सिर्फ वह घोड़ी है, जिस पर विवाह में सवर्णों ने उन्हें चढ़ने नहीं दिया। यदि सावरकर जैसे नायक भारतीय समाज में स्थापित होंगे तो हिन्दू समाज को बांटने का एजेन्डा कैसे सधेगा? किसी समाचार अथवा विचार को कितना छुपाना है और कितना बताना है। इसी तरकीब का नाम भारतीय वामपंथ है। वर्ना गांधीजी की हत्या की बात लिखने वाले इतिहासकारों ने यह बात दर्ज क्यों नहीं की कि उस हत्या के बाद गोडसे जिस ब्राम्हण समाज से आते थे। उस समाज का नरसंहार हुआ।
आज छोटी से छोटी बात पर प्रधानमंत्री मोदी को उत्तरदायी ठहराने वाला वामपंथी इको सिस्टम कभी गांधी हत्या के लिए कांग्रेस से सवाल नहीं करता। जब गांधी पर पहले भी जानलेवा हमला हो चुका था फिर कांग्रेस ने उनकी सुरक्षा के लिए क्या इंतजाम किया था? उनकी सुरक्षा को लेकर कांग्रेस इतनी लापरवाह क्यों थी? क्या वह चाहती थी कि कोई आकर गांधीजी की हत्या कर दे? सबसे महत्वपूर्ण सवाल, जब हत्यारा गोडसे आत्मसमर्पण कर चुका था। फिर ब्राम्हणों का नरसंहार क्यों? क्या कांग्रेस गोडसे की जगह ब्राम्हणों को गांधीजी की हत्या के लिए जवाबदेह मानती थी? यह सवाल कभी वामपंथी इतिहासकारों ने नहीं पूछा।
वास्तव में कांग्रेस की सरकार में वामपंथियों का विपक्ष वैसा ही विपक्ष था, जैसा भारतीय जनता पार्टी की सरकार में विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल का विरोध प्रदर्शन। 2014 मई से पहले मोदी विपक्ष की भूमिका में थे, लेकिन जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ मोदी के विरुद्ध ही लिख रहा था। आज की भाषा में इन संगठनों से जुड़े बुद्धिजीवी ही ‘गोदी मीडिया’ थे। 2022 में भी कुछ खास बदला नहीं है। वही सारे चेहरे एक बार फिर ‘अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान’ के खोल में मैदान में हैं यानि देश में सरकार किसी की भी रहे, इस समूह को विरोध नरेन्द्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी का ही करना है। अब गोदी मीडिया का इससे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है?