19 जनवरी- मानवता के इतिहास का क्रूरतम अध्याय
जब कश्मीर को धरती का स्वर्ग बनाने वाले कश्मीरी हिंदुओं से अकस्मात उनका स्वर्ग छीन लिया गया। घाटी की मस्जिदों से नारे गूंज उठे- “कश्मीर में अगर रहना है तो अल्ला-हू-अकबर कहना होगा”। इस गूंज के साथ कश्मीर की पवित्र श्वेत भूमि हजारों निर्दोष हिंदुओं के रक्त से लाल हो गई। 1989 से 1995 के मध्य 6 हजार से अधिक हिंदुओं की निर्मम हत्या हुई। लाखों कश्मीरी हिंदुओं ने घाटी से पलायन किया। 1500 से अधिक प्राचीन मंदिर नष्ट कर दिए गए। 600 से अधिक कश्मीरी हिंदुओं के गाँवों के नाम बदलकर इस्लामिक नाम रख दिये गए।
19 जनवरी की उस भयानक रात्रि में इस्लामी कट्टरपंथी नारे लगा रहे थे-
“हम पाकिस्तान चाहते हैं।”कैसा? “बताव रोस्तीं ते बातिनें सान।” अर्थात कश्मीरी हिंदू पुरुषों के बिना लेकिन कश्मीरी हिंदू महिलाओं के साथ।
“कश्मीर में अगर रहना है तो अल्ला-हू अकबर कहना होगा।”
“मुसलमानो जागो, काफिरो भागो, जेहाद आ रहा है।”
“ओ, जालिमो, ओ, काफिरो, कश्मीर हमारा छोड़ो।”
“इस्लाम हमारा मकसद है, कुरान हमारा दस्तूर है। जेहाद हमारा रास्ता है।”
“हमें क्या चाहिए, निजामे मुस्तफा, कश्मीरी में क्या चलेगा, निजामे मुस्तफा, हिंदुस्तान में क्या चलेगा, निजामे मुस्तफा।”
जिस गंगा जमुनी तहजीब की दुहाई देते हुए छद्म सेक्युलर नहीं थकते, उसके लिए कहा जा रहा था- “हम गंगा-जमुना में आग लगाएंगे।
कश्मीरी हिंदुओं का यह वीभत्स उत्पीड़न कोई तात्कालिक घटना नहीं थी, अपितु कश्मीर को शरिया कानून वाला राज्य बनाने के लिए पहले से ही योजना थी। 1930 से ही इस प्रकार की मंशा लिए अलगाववादी चल रहे थे, किंतु 1987 के पश्चात पाकिस्तान से प्रशिक्षण लेकर लौटे कश्मीरी जिहादी लड़ाके घाटी में हिंदुओं का नरसंहार करने लगे।
उनका पहला शिकार बने कश्मीरी हिंदू समुदाय के दिग्गज टीका लाल टपलू, जो अधिवक्ता और प्रमुख समाज सेवक थे। इसके बाद अपहरण, हिंदू महिलाओं के साथ क्रूरता, बलात्कार, आगजनी की घटनाएं हुईं। कई प्रमुख हिंदुओं की दिनदहाड़े निर्मम हत्या कर दी गई। गिरिजा टिक्कू जैसी निर्दोष युवतियाँ बलात्कार कर धारदार हथियारों से चीर दी गईं।
स्थानीय सरकारी तंत्र भी हिंदुओं और भारत के विरुद्ध खड़ा था। घायल अर्धसैनिक बलों का सरकारी अस्पतालों में उपचार नहीं होता था। हिंदू समुदाय के बचाव में पुलिस कभी नहीं आई। स्थानीय समाचार पत्रों में असहाय अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय को मतांतरण करने या मारे जाने का आदेश देते हुए धमकियाँ प्रकाशित की गईं। विषैले नारों का भी समर्थन किया गया। अंततः कश्मीरी हिंदू परिवार अपने ही देश में शरणार्थी बन गए।
पलायन का पहला वर्ष अत्यधिक गर्मी, निर्धनता तथा विकट परिस्थितियों में निकला। शरणार्थी बस्तियों की जर्जर स्थिति, फटे टेंट, अल्प संसाधन व जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का अभाव। श्रीनगर से पलायन के कारण छात्र अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए। कई कश्मीरी हिंदुओं की हीट स्ट्रोक से मृत्यु हुई। तथापि कश्मीरी हिंदुओं ने धर्म नहीं छोड़ा। वे पुनः उठ खड़े हुए। शेष भारत के हिंदुओं ने भी उनका साथ दिया। धारा 370 के अप्रभावी होने से कश्मीर की भारत से अभिन्नता स्पष्ट हो गई। कश्मीरी हिंदुओं के लिए अपनी मातृभूमि लौटने का मार्ग खुल तो गया है किंतु घावों के चिह्न अब भी गहन हैं।
कभी ऋषि कश्यप की स्वर्ग सी सुरम्य यह भूमि भारतीय संस्कृति के मुकुटमणि की भांति शोभायमान होती थी। महर्षि पतञ्जलि, महाकवि कालिदास, दृढ़बल, वसुगुप्त, आनंदवर्धन, अभिनवगुप्त, कल्हण, क्षेमराज जैसे अलौकिक मनीषियों की जन्मस्थली अथवा कर्मस्थली कश्मीर घाटी रही। कल्हण की राजतरंगिणी में कश्मीर का इतिहास वर्णित है। इस भूमि ने सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ का अतुलनीय शौर्य देखा है। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने कश्मीर में तपस्या की। यहीं उन्होंने कई मंदिरों की स्थापना तथा महाभारतकालीन प्राचीन मंदिरों की पुनर्प्रतिष्ठा की। यहाँ कश्मीर शैवदर्शन की समृद्ध परंपरा विकसित हुई।
आशा है कि शीघ्र ही कश्मीर पुनः अपने प्राचीन वैभव को प्राप्त करेगा। कश्मीरी हिंदुओं को न्याय मिलेगा। शुभ चिह्न दिखने लगे हैं। कश्मीर में हिंदू वैभव पुनः उदीयमान हो रहा है।