दम तोड़ रहा वामपंथ
आशीष कुमार अंशु
इस साल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जनवरी के स्थान पर मार्च 05 से 14 तक चला। यह कोविड 19 का प्रभाव था कि आयोजन को सीमित वक्ताओं और श्रोताओं के बीच करना पड़ा। इस बार डिग्गी पैलेस की तरह यहां निशुल्क प्रवेश की व्यवस्था नहीं थी, ना ही वहॉं की तरह लंबी कतारें थीं। ऐसा लग रहा था कि कोविड ने जेएलएफ को भी अनुशासित कर दिया हो।
05 मार्च से 09 मार्च तक जेएलएफ ऑनलाइन चला और फिर 10 मार्च से 14 मार्च तक ऑन ग्राउंड। ऑन ग्राउंड जेएलएफ में चार समानांतर सत्र थे। फ्रंट लॉन, दरबार हॉल, मुगल टेन्ट और बैठक। इस पूरे आयोजन को लेकर समाज की राय यही है कि इसे लेफ्ट इको सिस्टम के कुछ प्रोफेशनल्स नमिता गोखले (63), विलियम डेलरिम्पल (54) और संजॉय राय (57) द्वारा प्रारंभ किया गया है। जिसका बैनर टीमवर्क आर्ट्स का है। पूरी दुनिया में लिटरेचर फेस्टिवल को लेकर कोई अध्ययन होगा तो अब जेएलएफ ने अपनी वह जगह बना ली है, जिसके जिक्र के बिना बात पूरी नहीं मानी जाएगी।
देश में दशकों से नैरेटिव पर वामपंथ का प्रभाव रहा है। उन्होंने जिस पुस्तक को चाहा बेस्ट सेलर बना दिया और जिस लेखक को चाहा कालजयी बना दिया। जिस लेखक को चाहा हाशिए पर डाल दिया। यहां तक कि सरकारी अकादमियों से लेकर, पुरस्कार चयन समितियों तक में इसी इको सिस्टम के लोग भरे गए। विचारधारा चाहे समाजवादी हो, गांधीवादी हो, नेहरूवादी हो, मैकालेवादी हो, अम्बेडकरवादी हो, चर्चवादी हो या मदरसावादी हो। सभी अपने लिए प्राणवायु एक ही इको सिस्टम से पाते थे। वामपंथी बरगद अपने नीचे सभी को छांव दे रहा था। जब तक यह सब चला, सब ठीक था।
पिछले आठ—दस सालों से देश में एक नया विचार मजबूत हो रहा है। इस विचार ने वामपंथी बरगद की जड़ें हिला दी हैं। वामपंथ के सामने अचानक से खड़ा हुआ यह विचार किसी नव क्रांति की तरह है। ऐसा नहीं है कि इसका जन्म पिछले आठ सालों में हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि इस विचार को प्यार, प्रसार और बाजार का आधार पिछले आठ—दस सालों में अधिक मिला है। इससे पहले स्थापित नैरेटिव से अलग जाने का अर्थ होता था, अंधे कुएं में जाना। प्रकाशन संस्थान, फिल्म, मीडिया और विश्वविद्यालयों तक में वामपंथी बरगद ने अपने गेट कीपर लगा रखे थे। जिससे पार करके कोई अंदर दाखिल नहीं हो सकता था। यह एक अलग ही किस्म का अंडरवर्ल्ड था।
लेकिन अब इस विशाल वामपंथी बरगद की जड़ें हिलती नजर आ रही हैं। इस कारण पहले की तरह पूरे विचार की उपेक्षा कर पाना वामपंथी विचारधारा के लिए कठिन हो रहा है। वर्ना इनकी असहिष्णुता की स्थति यह थी कि दिवंगत साहित्यकार मंगलेश डबराल, राज्य सभा सांसद राकेश सिन्हा के मंच पर जाते हैं। वहां भाषण देकर आते हैं और बाद में जब इको सिस्टम उन्हें घेरता है तो सफाई में कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि यह राकेश सिन्हा कौन हैं?
इसी प्रकार साहित्यकार उदय प्रकाश गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के हाथों सम्मानित होते हैं। जब इको सिस्टम विरोध करता है तो सफाई देते हैं कि उनका पारिवारिक आयोजन था। इसलिए उन्हें योगीजी के हाथों से सम्मान लेना पड़ा। ऐसा ही एक और उदाहरण, जब वामपंथी साहित्यिक पत्रिका हंस के सालाना आयोजन में आमंत्रण पत्र पर विचारक गोविन्दाचार्य, नक्सल समर्थक नेता वरवर राव और अरुंधती राय का नाम छप चुका था। बावजूद इसके गोविन्दाचार्य के साथ वरवर राव और अरुंधती राय ने मंच साझा करने से इंकार कर दिया। जबकि राय को हुर्रियत के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के साथ मंच साझा करने में कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन गोविन्दाचार्य के साथ थी। इस नफरत को क्या नाम देना चाहिए? बोल की लब आजाद हैं तेरे? इसीलिए कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्में आवश्यक हैं। जो असहिष्णुता के उस सच पर से पर्दा हटा पाएं, जिसे दशकों से खानकाहों , रिबतों (इस्लामिक मठ) में दफन करके रखा गया है।
विशाल वामपंथी बरगद के बरक्स नैरेटिव का पेड़ अब बड़ा हो रहा है। इस विचार को सुनने के लिए लोग तैयार हैं। इस साल मकरंद परांजपे, गुरु प्रकाश, उदय माहूरकर को जिस तरह लोग मंच से सुनना चाह रहे थे, जितनी तालियां बजीं इनकी उपस्थिति पर। उससे इतना तो तय है कि देश की बहुसंख्य जनसंख्या इस विचार को जानना चाहती है। इसे सुनना चाहती है। प्रश्न यह है कि इस विचार को क्या नाम दिया जाना चाहिए? जैसा कि वामपंथी बरगद की नैरेटिव आईटी सेल ने ऐसे सभी लोगों को संघी कहना प्रारंभ कर दिया जो उनसे सहमत नहीं है। लेकिन क्या यह उचित है?
मेरी दृष्टि में वामपंथियों से अलग राय रखने वाले किसी भी विचारक को संघी कहना इसलिए सही नहीं होगा क्योंकि आरएसएस एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन है। संगठन के नाते उसका अपना एक अनुशासन है। संगठन की नियमित शाखाएं लगती हैं। यदि कोई लेखक शाखा नहीं आ रहा और संगठन के अनुशासन की पालना नहीं कर रहा फिर उसे संघी कैसे कहा जा सकता है?
वास्तव में तो व्यक्ति किसी भी विचार को मानने वाला क्यों न हो, उसके अंदर देश प्रेम की भावना तो होनी ही चाहिए। यदि आप देश के लिए मर मिटने की भावना रखने वाले व्यक्ति को राष्ट्रवादी कहेंगे और इस शब्द का प्रयोग विनोद के लिए करेंगे तो इसका विरोध तो होगा ही। पूरे देश को इस विचार का सम्मान करना चाहिए। आपकी विचारधारा कोई भी हो लेकिन आप पहले राष्ट्रवादी बनिए। एक समय कांग्रेस स्वयं को राष्ट्रवादी नेताओं का राजनीतिक संगठन ही मानती थी। फिर पूरी पार्टी वामपंथियों के प्रभाव में आकर राष्ट्रवाद से दूर होती चली गई।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय सह सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य के अनुसार — ”ना ‘राष्ट्रवाद’ शब्द भारतीय है और ना ही उसकी अवधारणा भारतीयता को जताती है। आज देश जिस पायदान पर खड़ा है, आज जिस प्रकार से भारत की शान विदेशों में बढ़ी है, देश हर क्षेत्र में देश उन्नति कर रहा है, इसके पीछे राष्ट्रीय जागरण है, जिसके लंबे प्रयास के परिणामस्वरूप देश मे मूलभूत परिवर्तन आया है। वामपंथी विचारों के लोगों ने इसे ‘राष्ट्रवादी’ कहना शुरू किया है। वास्तव में यह ‘राष्ट्रीय’ आंदोलन है ‘राष्ट्रवाद’ नहीं।”
अब प्रश्न फिर वहीं आकर ठहर जाता है कि दूसरी तरफ सूची लंबी होती जा रही है। यह जो विचारकों/ मुखर राष्ट्र प्रेमियों की लंबी श्रृंखला खड़ी है सामने और जन जागरण का कार्य कर रही है। इस वैचारिक पुनर्जागरण को नाम क्या दें? इस पर पूरे विचार परिवार में बहस की बहुत आवश्यकता है।