कश्यप ऋषि का कश्मीर सदियों तक रहा हिंदू तथा बौद्ध धर्म का केन्द्र
कश्यप ऋषि का कश्मीर सदियों तक रहा हिंदू तथा बौद्ध धर्म का केन्द्र
पंचतंत्र और शिवा–सरस्वती की धरती है कश्मीर। कश्यप ऋषि की भूमि है कश्मीर। उन्हीं के नाम पर इसका नामकरणहुआ। वर्तमान अफगानिस्तान में स्थित हिंदुकुश पर्वत शृंखला से कश्मीर की पर्वत शृंखलाएं आरंभ होती हैं।
कश्मीर भगवान शिव और सती की भूमि है। इसे ‘सतीसर’ भी कहा गया। कश्यप ॠषि के पुत्र नीलनाग ने कश्मीर को बसाया। कहते हैं आज का कैस्पियन सागर ‘कश्यप सागर’ था। इस कश्यप सागर से लेकर कश्मीर तक कश्यप ॠषि के कुल का राज फैला हुआ था। मैथिलीशरण गुप्त ने कश्मीर के लिए लिखा है–
‘धनि कश्यप जस धुजा,विश्वमोहिनि मन भावन।’
ऐतिहासिक रूप से कश्मीर हिंदू और बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। कश्मीर में आज इस्लाम मत की प्रमुखता है, परन्तु कश्मीर मूलतः भारतीय धर्म–दर्शन, साहित्य व ज्ञान की भूमि रहा है। कश्मीर को प्राचीन समय में ॠषि भूमि या शारदा पीठ भी कहा जाता था। विद्या की देवी मां शारदा की भूमि है कश्मीर। इसलिए कहा जाता है कि प्राचीन समय में जब बच्चा विद्यारम्भ करता था तो उसे कश्मीर की तरफ मुँह करके बिठाया जाता था। इस संबंध में एक श्लोक् भी मिलता है–
नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुर वासिनी।
त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे॥
(अर्थात् कश्मीर में विराजने वाली मां शारदा, आप हमें विद्या का दान दें)
महान संस्कृत इतिहासकार और कवि कल्हण का प्रदेश रहा है कश्मीर। कल्हण ने कश्मीर को विश्व का सुंदरतम प्रदेश कहा है। उनके प्रसिद्ध ग्रंथ ‘राजतरंगिणी’ में महाभारत से लेकर 1129 ई. तक का प्रामाणिक और क्रमबद्ध इतिहास दिया गया है।
भारतीय संस्कृति का प्रतीक वाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ यानि सम्पूर्ण पृथ्वी एक परिवार है, कथन के लेखक कश्मीर के कवि उद्भट हैं। वे इतने बड़े कवि और लेखक थे कि जिस विद्वान की खूब प्रशंसा करनी हो उसे लोग आज भी ‘उद्भट’ की संज्ञा देते हैं। प्रसिद्ध ग्रंथ ‘दशावतारचरित’ के लेखक क्षेमेन्द्र भी कश्मीर के थे। भरत मुनि द्वारा ‘नाट्यशास्त्र का प्रणयन’ कश्मीर में ही हुआ।
बौद्ध दर्शन के विद्वान नागसेन, आयुर्वेद के वाग्भट्ट, बौद्ध दार्शनिक रविगुप्त, वसुगुप्त, वटेश्वर, मनुस्मृति के प्रसिद्ध टीकाकार मेघातिथि, गणितज्ञ उत्पल, बिल्हण, महान संगीत शास्त्रज्ञ, शारंगदेव, वेदान्ती केशव भट्टाचार्य आदि कश्मीर के थे।
ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तकाचार्य लगधमुनि, पतंजलि, चरक और कालिदास की जन्मभूमि भी कश्मीर ही बताई जाती है।
संस्कृत व्याकरण के रचयिता पाणिनी के बारे में कहा जाता है कि वे दक्षिण कश्मीर के गांव ‘ग्रोद्रा’ में जन्मे थे। पाणिनी की ‘अष्टाध्यायी’ पर सबसे ज्यादा पुस्तकें (टीकाएं) कश्मीरी विद्वानों ने ही लिखी हैं।
वस्तुतः कश्मीर को हिंदू सभ्यता का पालना ठीक ही कहा गया है। कौन सी ऐसी विधा है जिस पर कश्मीर में शोधकार्य और लेखन नहीं हुआ?
कश्मीर में बौद्ध मत
ईसा से 250 वर्ष पूर्व हुए सम्राट अशोक के समय कश्मीर में बौद्धधर्म का काफी प्रचार–प्रसार था। श्रीनगर के कुंडलवन विहार में प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुमित्र की अध्यक्षता में चौथे बौद्ध महासम्मेलन का आयोजन किया गया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लिखा है कि उस समय कश्मीर में वसुमित्र सहित 500 बौद्ध विद्वान थे।
राजा मेघवाहन के समय कश्मीर में कई बड़े बौद्ध–स्तूपों का निर्माण कराया गया। राजा ललितादित्य मुक्तपीड़ को कश्मीर के महान राजाओं में माना जाता है। उनके समय में कश्मीर की आर्थिक दशा अच्छी थी। मार्तंड का सूर्य मंदिर उनके समय में बनाया गया था।
कश्मीर में शैव दर्शन
9वीं शताब्दी में विद्वान वसुगुप्त के समय कश्मीर में शैव मत का बड़ा प्रभाव था। वसुमित्र के शिष्यों कल्लट और सोमानंद ने कश्मीर में शैव दर्शन की नई परम्परा शुरू की। शैवाचार्य अभिनवगुप्त द्वारा ‘तंत्रालोक’ तथा ‘प्रत्यभिज्ञ दर्शन’ की रचना कश्मीर में ही की गई। शैव दर्शन और साहित्य के पोषण में कश्मीरी पंडितों का बड़ा योगदान रहा। विष्णु शर्मा की ‘पंचतंत्र’ तथा गुणाढ्य पंडित की ‘वृहत्कथा’ की रचना कश्मीर में हुई।
कश्मीर संत कवयित्री ललेश्वरी (ललद्यद) की कर्म भूमि भी रही। उनका कार्यकाल 14वीं सदी में था। यही वह समय था जब मुस्लिम आक्रमणकारियों ने कश्मीर की धरती पर कदम रखा। सुल्तान सिकंदर के समय (1389ई. में) इस्लामीकरण चरम पर पहुँच गया था। सिकंदर को बुतशिकन (मूर्ति भंजक) कहा जाता था। उसने बड़े पैमाने पर हिंदुओं का संहार किया। कहते हैं कि उस समय कश्मीर में हिंदुओं के मात्र 11 परिवार रह गए थे, बाकियों को मार दिया गया या भगा दिया गया अथवा जबरन मुसलमान बना लिया गया था। औरंगजेब द्वारा कश्मीरी व अन्य हिंदुओं को मुसलमान बनाने का क्रूर सिलसिला तब थमा, जब नवें सिख गुरु तेगबहादुर ने मुस्लिम धर्म अपनाने से इंकार कर अपना बलिदान दिया।
कश्मीर में महाभारत युग के ‘गणपतयार’ और ‘खीर–भवानी मंदिर’ आज भी हैं। गिलगिट में प्राचीन पाली भाषा की पुस्तकों की पाण्डुलिपियां मिली हैं। सहिष्णु दर्शन ‘त्रिखा–शास्त्र’ की उत्पत्ति भी कश्मीर में हुई।
फिर से हिंदू राजा
1753 में अहमदशाह अब्दाली के नेतृत्व में अफगानों का कश्मीर पर कब्जा हो गया था। 1814 में सिख महाराजा रणजीत सिंह ने पठानों को परास्त करते हुए अपना राज्य कश्मीर तक विस्तृत कर लिया। 1846 में लाहौर संधि के परिणामस्वरूप महाराजा गुलाबसिंह कश्मीर के राजसिंहासन पर बैठे। उनके पौत्र महाराजा हरिसिंह ने जम्मू–कश्मीर का विलय भारत गणराज्य में किया।
इस प्रकार कश्यप ॠषि तथा विद्या की देवी शारदा का निवास स्थान कश्मीर न केवल ‘पंचतंत्र’,‘राजतरंगिणी’ तथा कई प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथों की रचना के लिए जाना जाता है, वरन् प्राचीन समय से ही बौद्ध तथा हिंदू–शैव दर्शन–धर्म का केन्द्र भी रहा है। मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचारों और ‘मतांतरण या मौत’ के रवैये के कारण भले ही कश्मीर मुस्लिम बहुल हो गया हो, वह हमेशा से ही भारतीय संस्कृति, धर्म और सभ्यता की भूमि रहा है।