इतिहास के सच को स्वीकारना आवश्यक

इतिहास के सच को स्वीकारना आवश्यक

रामस्वरूप अग्रवाल

इतिहास के सच को स्वीकारना आवश्यकइतिहास के सच को स्वीकारना आवश्यक

शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि 15 अगस्त,1947 को मिली स्वाधीनता से पूर्व भी दो बार देश में चुनाव हुए थे, 1937 और 1945-46 में। इन चुनावों में मुसलमानों के लिए सीटें आरक्षित की गई थीं। इन सीटों पर केवल मुसलमान ही मतदान कर सकते थे।

1945 के दिसंबर माह में केन्द्रीय विधान-परिषद के लिए चुनाव हुए। 1946 की जनवरी में अंग्रेजी शासन के अंतर्गत आने वाले सभी 11 प्रांतों में प्रांतीय असेम्बली के लिए चुनाव हुए।

मुस्लिम लीग द्वारा 1940 से ही जिन्ना के नेतृत्व में मुसलमानों के लिए अलग देश के निर्माण की मांगजोर-शोर से की जा रही थी। अतः मुस्लिम लीग ने अपना चुनाव इसी मुद्दे पर लड़ा। चुनाव के दौरान मुस्लिम लीग की ओर से मज़हबी नारे लगाए जाते थे और पाकिस्तान निर्माण की बातें की जाती थीं। इन मुस्लिम सीटों पर कांग्रेस ने भी अपने मुस्लिम उम्मीदवार उतारे। कांग्रेस ने अखंड भारत के नाम पर वोट मांगे थे। इसलिए कह सकते हैं कि इन चुनावों में मुस्लिम मतदाता के सामने दो ही विकल्प रह गए थे, मुसलमानों हेतु एक अलग देश बनाने के लिए मुस्लिम लीग को वोट देना या फिर ‘भारत अखंड रहे’ इसके लिए कांग्रेस को वोट देना।

यह जानना दिलचस्प होगा कि इन मुस्लिम सीटों पर चुनाव परिणाम क्या रहा? भारत के विभिन्न भागों में रह रहे मुस्लिम मतदाताओं ने अपना ‘मत’ (वोट) किसके पक्ष में दिया? कॉन्ग्रेस के ‘अखंड भारत’ के पक्ष में या मुस्लिम लीग के ‘मुसलमानों के लिए एक अलग देश बनाने’ के मुद्दे के समर्थन में?

यह जानकर शायद आश्‍चर्य हो कि केन्द्रीय असेम्बली के लिए आरक्षित सभी मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग ने जीत दर्ज की। अपने को मुसलमानों का रहनुमा बताने वाली कांग्रेस एक भी मुस्लिम सीट जीत नहीं पाई। यूपी, बिहार, असम के ही नहीं, बम्बई और मद्रास तक में रहने वाले मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को जिताया।…और, प्रांतीय असेम्बली में क्या रहा? अधिकतर सीटों पर मुस्लिम लीग जीती। बिहार, बम्बई (मुम्बई), मद्रास (आज का तमिलनाडु) और उड़ीसा की तो सभी मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग विजयी रही। यानि सभी प्रांतों के मुस्लिम मतदाताओं ने पाकिस्तान बनाने के लिए मतदान किया।

देश में अवश्य ही कुछ मुसलमान बंधु ऐसे भी थे जो पाकिस्तान बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे, जो जिन्ना और मुस्लिम लीग के इस कथन से सहमत नहीं थे कि ‘धर्म, रीति-रिवाज और परंपरा से मुसलमान अलग हैं, इसलिए उनका हिंदुओं से अलग देश होना चाहिए।’ उन्होंने मुस्लिम लीग को वोट नहीं दिया। परन्तु देश के अधिकांश मुस्लिम मतदाताओं ने ‘अखंड भारत’ के कांग्रेसी मुद्दे को नकार दिया था। साफ था कि वे अपने लिए एक अलग देश बनाना चाहते थे और हुआ भी यही। मुसलमानों को उनकी इच्छा के अनुरूप एक अलग देश पाकिस्तान दे दिया गया। भारत माता के दो टुकड़े कर दिए गए।

प्रश्‍न यह है कि जिन मुसलमानों ने मुस्लिम लीग के पक्ष में यानि पाकिस्तान-निर्माण के पक्ष में मतदान किया, क्या वे सब पाकिस्तान गए? उत्तर है- नहीं। उनमें से बहुत कम लोग पाकिस्तान गए। मुसलमान करोड़ों की संख्या में भारत में ही रहे। प्रश्‍न उठता है कि यदि उन्हें यहीं रहना था, हिंदुओं के साथ ही रहना था तो पाकिस्तान बनाने के पक्ष में मुस्लिम लीग को मत क्यों दिया? क्यों नहीं कांग्रेस को मत दिया?

लोग कहेंगे कि जो हुआ सो हुआ। जिन्होंने पाकिस्तान निर्माण के लिए वोट दिया, वे अब तो जिंदा भी नहीं होंगे, तो उनके वंशजों को इसका दोष क्यों दें? और, जिन्होंने पाकिस्तान बनाने के लिए 1945 में वोट दिया, देश की स्वतंत्रता के समय 1947 में उनका मन बदल भी सकता है। उन्हें शायद यही ठीक लगा हो कि भारत के साथ रहना है। परन्तु इस तर्क से भी 1945-46 के चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं की भूमिका बदल नहीं जाती।

इस तथ्य को यदि भारत का मुस्लिम समुदाय खुले मन से स्वीकार कर लेता है तो समझिए कि एक नई शुरुआत होगी। खुले मन से स्वीकार करना यानि बिना किसी संकोच के यह स्वीकार करना, सार्वजनिक रूप से, कि हमारे 1945-46 के पूर्वजों ने पाकिस्तान बनाने के लिए मुस्लिम लीग को वोट देकर ठीक नहीं किया और यह भी कि जिन्ना और मुस्लिम लीग का अलग राष्ट्र का सिद्धांत गलत था, और यह भी कि भारत में हिंदू और मुसलमान भाईचारे के साथ रह सकते हैं।

जब तक इतिहास का यह सच स्वीकार नहीं करेंगे तथा उस सच के अनुसार अपना विचार और व्यवहार नहीं बदलेंगे तब तक हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की बात बेमानी है।

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