सावरकर के शिष्य मदन लाल ढींगरा के द्वारा लंदन तक जा पहुंची क्रांति की ज्वाला
अमृत महोत्सव लेखमाला : सशस्त्र क्रांति के स्वर्णिम पृष्ठ (भाग-7)
नरेन्द्र सहगल
सावरकर के शिष्य मदन लाल ढींगरा के द्वारा लंदन तक जा पहुंची क्रांति की ज्वाला
भारतमाता को गुलामी की जंजीरों में जकड़ने वाले ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति की आग की लपटें इंग्लैंड तक जा पहुँचीं। भारतीयों पर किये जा रहे अत्याचारों की जड़ें तो वास्तव में इंग्लैंड की राजधानी लंदन में ही थीं। भारत और भारतीयता को शक्ति से दबाकर समाप्त करने और अंग्रेजों की सत्ता को मजबूत करने के लिए ही अंग्रेज शासक, प्रशासनिक अधिकारी और सैन्य व पुलिस अफसर सभी लंदन से ही प्रशिक्षण लेकर आते थे और 15-20 वर्षों तक भारतीयों पर तरह-तरह के जुल्म करने के बाद वापस लंदन में जाकर अपनी शेष जिंदगी ऐशो-आराम के साथ जीते थे।
इन अत्याचारी अंग्रेजों को उनके घर में ही सजा देने के लिए भारतीय देशभक्त युवा तैयार हो गए। लंदन में अध्ययन के लिए गए अनेकों युवकों ने सशस्त्र क्रांति की अलख जगा देने का सफल प्रयास किया। कुछ होनहार कुशाग्र बुद्धि वाले तथा कुशल संगठनकर्ता छात्रों ने अपना समस्त जीवन इस पवित्र कार्य में अर्पित करने का दृढ़ निश्चय करके लंदन में सशस्त्र क्रांति का श्रीगणेश कर दिया। श्यामजी कृष्ण वर्मा, रास बिहारी बोस, अरविंद घोष, लाला हरदयाल, सेनापति बापट तथा सावरकर जैसे प्रतिभाशाली युवकों ने कई प्रकल्प स्थापित करके चतुर अंग्रेजों को चुनौती दे दी। ये सभी युवक भारत के संपन्न शिक्षाविद और ऊंचे पदों पर काम करने वाले परिवारों से सम्बन्ध रखते थे।
लंदन में श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित संस्था भारत भवन के कार्यालय में इन युवकों ने बहुत ही अनुशासित और व्यवस्थित ढंग से अपनी गतिविधियों को अंजाम देना प्रारंभ किया। भारत भवन में भारत के गौरवशाली अतीत, पतन के कारण और समाधान जैसे विषयों पर चर्चा होते रहती थी। फ्रांस में अध्यययन कर रहे भारतीय छात्रों को भी इस भारत भवन के साथ जोड़ लिया गया। विनायक दामोदर सावरकर इस भारत भवन के सक्रिय संचालक थे। इसी भारत भवन में एक विद्यार्थी था मदन लाल धींगरा।
भारत भवन के मुख्य संचालकों विशेषतया सावरकर ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के मूल स्थान लंदन में ही किसी प्रचंड प्रहार पर विचार किया। भारत में अमृतसर जिले में रहने वाले युवा छात्र मदन लाल ने यह काम करने के लिए अपने को प्रस्तुत किया। इसने सावरकर से आदेश की प्रार्थना की। एक रात मदन लाल और सावरकर भारत भवन में एकांत में बैठे थे। तभी सावरकर ने मदन लाल को अपना बायां हाथ मेज पर रखने को कहा। जैसे ही मदनलाल ने अपना बायां हाथ मेज पर रखा, सावरकर ने तीखा चाकू (सुवा) उसके हाथ पर मार दिया। हाथ से खून बहने लगा। मदनलाल ने मुस्कुराकर सावरकर की ओर देखा। सावरकर ने मदन लाल को सीने पर लगाकर कहा – “तुम्हारी परीक्षा हो गई। तुम वीरतापूर्वक किसी क्रांतिकारी काम को कर सकते हो।” योजनानुसार मदन लाल अंग्रेज अफसरों द्वारा चलाए जा रहे एक क्लब का सदस्य बन गए।
इन्हीं दिनों लॉर्ड कर्जन वायली ने अंग्रेज-भक्त भारतीय छात्रों की एक सभा बुलाई थी। मदन लाल ने किसी प्रकार इस सभा की भी सदस्यता ले ली। कर्जन वायली ने भारत में रहकर अंग्रेजों के शासन को मजबूत बनाए रखने के लिए विशेषतया क्रांतिकारियों पर अकथनीय जुल्म ढाए थे। 20 वर्षों तक भारत में रहकर इस कुख्यात ब्रिटिश एजेंट ने सैकड़ों क्रांतिकारियों को मौत की सजा दिलवाई थी। सावरकर की योजनानुसार इसी को यमलोक भेजने की मदन लाल ने ठान ली। काम बहुत जोखिम भरा था।
लंदन के जहांगीर हॉल में 1 जुलाई 1901 को एक सभा में कर्जन वायली मुख्य अतिथि के रूप में आने वाला था। मदनलाल अपनी जेब में 6 बैरल का पिस्टल लेकर अपने साथियों के साथ जहांगीर हॉल में बैठ गए। जैसे ही कर्जन वायली बोलने के लिए खड़ा हुआ, मदन लाल ने झट से आगे आकर उसे गोलियों से छलनी कर दिया। कर्जन धड़ाम से भूमि पर लुढ़क गया। उसी समय एक अंग्रेज भक्त छात्र काका लाल ने मदन लाल को दबोचने का प्रयास किया। मदन लाल ने अपनी पिस्तोल की बची हुई गोलियां काका लाल के भी सीने में उतारकर उसे भी साम्राज्यवाद का चमचा होने की उचित सजा दे दी।
कर्जन वायली पर हुए इस क्रांति हमले के बाद जहाँगीर हॉल में हाहाकार मच गया। मदन लाल को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। इस देशभक्त की जेब से एक छुरा और पिस्तोल निकले। समाचार पत्रों द्वारा इस घटना का शोर विश्वभर में फ़ैल गया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के एजेंट/चमचे इस कृत्य की निंदा करने लगे। यहाँ तक कि मदनलाल के पिता ने लंदन में लॉर्ड मारेल को पत्र लिखा – “ऐसे देशद्रोही वा हत्यारे को मैं अपना पुत्र मानने को तैयार नहीं। इस मूर्ख ने मेरे मुंह पर कलंक का टीका लगा दिया है।” इस प्रकार अपने ही पिता द्वारा निंदा व भर्त्सना का दुखित अनुभव मदन लाल को झेलना पड़ा।
लंदन के एक कैक्सटन हॉल में मदन लाल द्वारा किए गए कथित क़त्ल की निंदा करने के लिए एक शोक सभा बुलाई गई। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी तथा सर आगा खान जैसे कांग्रेस के बड़े नेता भी इस शोक सभा में उपस्थित थे। इन सबने इस घटना की भरपूर निंदा की। मदन लाल के बड़े भाई को भी अपने बाप की तरह शर्म आ रही थी। कितनी अजीब बात है कि अंग्रेजों द्वारा भारतवासियों के साथ किये जा रहे जुल्मों पर इन नेताओं को कोई शर्म नहीं आ रही थी। कर्जन वायली ने ना जाने कितनी भारतीय ललनाओं के माथे का सिन्दूर पोंछ डाला था। हजारों बच्चों को अनाथ कर डाला था। कितने निर्दोषों के घर-परिवार उजाड़ दिए थे। इन सब कुकृत्यों पर मौन साधने वाले नेताओं को देशभक्त कहना भी देशभक्तों का अपमान ही तो है।
इस शोकसभा में वीर सावरकर भी अपने मित्रों के साथ बैठे हुए थे। मदन लाल की निंदा होते हुए भी सावरकर खून का घूँट पीकर बैठे रहे। परन्तु जैसे ही सर आगा खान ने खड़े होकर कहा – “यह सभा सर्वसम्मति से निंदा प्रस्ताव को पारित करती है” सावरकर ने खड़े होकर ऊंची आवाज में कहा – “नहीं-नहीं सर्वसम्मति से नहीं। मैं सावरकर इस प्रस्ताव का पुरजोर विरोध करता हूँ।” सावरकर का नाम सुनते ही सभागार में सन्नाटा छा गया। कइयों के दिल कांपने लग गए।
पामार नामक एक अंग्रेज ने सावरकर के गाल पर जोरदार तमाचा मार कर कहा –“जरा इस अंग्रेजी घूंसे का मजा चख लो।” तभी सावरकर के एक साथी आचार्य ने उस अंग्रेज के मुंह पर जोर का तमाचा मार कर कहा – “जरा इस हिन्दुस्तानी घूंसे का भी मजा ले लो।” सभा में भगदड़ मच गई। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी एवं आगा खान तो पहले से ही डर के मारे भाग खड़े हुए थे। इस तरह लंदन में ही कर्जन वायली की हत्या पर निंदा प्रस्ताव भी पारित नहीं हो सका।
जब वैस्टमिंस्टर अदालत में मदन लाल पर मुकदमा चलना प्रारम्भ हुआ तो मदन लाल ने अपने उस लिखित वक्तव्य को पढ़ना चाहा, जिसे पुलिस ने अपने पास रख लिया था। यह वक्तव्य सावरकर ने ही तैयार किया था। मदन लाल ने इस वक्तव्य को ज़ुबानी ही पढ़ना आरम्भ किया – “जो सैकड़ों अमानुषिक फांसी और कालेपानी की सजाएं हमारे देशभक्तों को हो रही हैं, मैंने उनका ही साधारण सा बदला इस अंग्रेज के रक्त से लेने का प्रयास किया है। मैंने इस सम्बन्ध में अपने विवेक के अतिरिक्त और किसी से सलाह नहीं की। किसी के साथ कोई षड्यंत्र नहीं किया। मैंने तो केवल अपना कर्तव्य पूरा करने की चेष्टा की है। एक जाति जिसको विदेशी संगीनों से दबा कर रखा जा रहा हो, समझ लेना चाहिए कि वह बराबर की जंग लड़ रही है। एक निशस्त्र जाति के लिए खुला युद्ध तो संभव नहीं है। मैं एक भारतीय होने के नाते समझता हूँ कि यदि हमारी मातृभूमि के पुत्रों पर कोई अत्याचार करता है तो वह ईश्वर का ही अपमान करता है।
हमारी मातृभूमि का जो हित है वह प्रभु श्रीराम का हित है। उसकी सेवा श्रीकृष्ण की सेवा है। भारतवासी इस समय केवल इतना ही कर सकते हैं कि वे मरना सीखें और इसके सीखने का एकमात्र उपाय है कि वे स्वयं मरें। इसलिए मैं मरूंगा और मुझे इस बलिदान पर गर्व है – वन्देमातरम।”
कर्जन वायली की हत्या और मदन लाल के वक्तव्य से विश्वभर में तहलका सा मच गया। यदि भारत के युवक इंग्लैंड की राजधानी लंदन तक भी क्रांति को लेकर आए हैं तो इसका यही अर्थ है कि भारत में अंग्रेजों ने तानाशाही फैलाकर भारतवासियों पर अमानवीय जुल्म ढाए हैं। विश्व के प्रायः सभी देशों में भारत के प्रति एक सहानुभूति सी पैदा हो गई। विश्व जनमत अंग्रेजों के विरुद्ध हो गया।
जब अंतिम बार मदन लाल को न्यायालय में प्रस्तुत किया गया तो उनके बयान से भारतीय युवकों में साहस का अद्भुत संचार हुआ। निर्णय देने वाले जज की ओर देखते हुए मदन लाल ने सीना तानकर कहा – “मैं अपने ऊपर आपका कोई अधिकार स्वीकार नहीं करता। इसलिए आप जो भी चाहे कर सकते हैं। मैंने कोई अपराध नहीं किया, जो कुछ भी किया है अपने देश के लिए किया है। जिस प्रकार जर्मनी को इंग्लैंड पर राज्य करने का कोई अधिकार नहीं, उसी प्रकार अंग्रेजों को भारत पर राज्य करने का कोई अधिकार नहीं — मैं चाहता हूँ कि आप मुझे फांसी का दंड दें। उससे भारतीयों में आपके प्रति घृणा और प्रतिशोध की भावना की आग और भड़केगी और इसी आग में ब्रिटिश राज जलकर स्वाहा हो जाएगा।
ध्यान दें कि मदन लाल की गिरफ्तारी के समय पुलिस ने उनकी जेब में रखे वक्तव्य को छीनकर अपने कब्जे में कर लिया था। मदन लाल को न्यायालय में यह वक्तव्य पढ़ने नहीं दिया गया। यह वक्तव्य सरकार के ताले में बंद था। परन्तु मदन लाल की फांसी के एक दिन पहले अर्थात 26 अगस्त को यही वक्तव्य दुनियाभर के समाचारपत्रों में छप गया। सरकार इस अनोखी घटना से ना केवल आश्चर्यचकित हुई अपितु उसकी फजीहत भी हुई। सरकार हैरान थी कि ताले में बंद यह वक्तव्य समाचार पत्रों तक कैसे पहुँच गया।
वास्तव में इस वक्तव्य की एक प्रति सावरकर ने अपने पास भी रखी थी। सावरकर ने इसकी हजार प्रतियाँ छपवाई थीं। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इस वक्तव्य को पेरिस से लेकर अमरीका तक के समाचार पत्रों में भिजवा दिया। इस वक्तव्य के प्रकाशन ने विश्व के कई देशों में सशस्त्र क्रांति का सन्देश पंहुचा दिया। 27 अगस्त को फांसी देने की योजना बनी। मदन लाल ने फांसी से पूर्व ये शब्द कहे – “परमात्मा से मेरी यही प्रार्थना है कि मैं पुनः भारत में ही पैदा होकर फिर इसी पवित्र उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का त्याग करूं”।
फांसी के बाद लंदन में रहने वाले हिन्दुओं ने मदन लाल के शव का अंतिम संस्कार करने की मांग रखी। परन्तु लंदन की सरकार ने यह मांग स्वीकार नहीं की। क्रांतिकारी हरदयाल ने जेल के अहाते में ही हिन्दू रीति से इस बलिदानी के संस्कार की व्यवस्था की। मदन लाल ने अपनी आस्था, विश्वास और देशभक्ति की रक्षा अपने प्राण देकर की। भविष्य के क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा बन गया यह बलिदान।
……….…….. जारी