स्वतंत्रता संग्राम के अज्ञात सेनापति : डॉक्टर हेडगेवार के साथ ऐतिहासिक अन्याय क्यों?
अमृत महोत्सव लेखमाला : सशस्त्र क्रांति के स्वर्णिम पृष्ठ (अंतिम भाग)
नरेन्द्र सहगल
स्वतंत्रता संग्राम के अज्ञात सेनापति : डॉक्टर हेडगेवार के साथ ऐतिहासिक अन्याय क्यों?
चिर सनातन अखण्ड भारत की सर्वांग स्वतंत्रता के लिए कटिबद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे अज्ञात सेनापति थे, जिन्होंने अपने तथा अपने संगठन के नाम से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में अपना तन मन सब कुछ भारत माता के चरणों में अर्पित कर दिया था। अपने बाल्यकाल से लेकर जीवन की अंतिम श्वास तक भारत की स्वतंत्रता के लिए जूझते रहने वाले इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने न तो अपनी आत्मकथा लिखी और न ही इतिहास और समाचार पत्रों में अपना तथा अपनी संस्था का नाम प्रकट करवाने का कोई प्रचलित हथकंडा ही अपनाया।
डॉक्टर हेडगेवार तो लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल, क्रांतिकारी नेता त्रलोक्यनाथ, सरदार भगत सिंह, वीर सावरकर, सुभाष चंद्र बोस, रासबिहारी बोस, श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों की श्रेणी के महापुरुष थे, जिन्हें स्वाधीनता प्राप्ति के बाद सत्ता पर बैठने वाले शासकों ने पूर्णतया दरकिनार कर के स्वतंत्रता संग्राम का पट्टा अपने नाम लिखवा लिया। आजाद हिंद फौज, अभिनव भारत, बब्बर खालसा, गदर पार्टी, अनुशीलन समिति, हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना, हिन्दू महासभा, आर्य समाज और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी संस्थाओं के योगदान को धता बताकर स्वतंत्रता संग्राम को एक ही नेता और एक ही दल के खाते में जमा कर देना एक राजनैतिक अनैतिकता और ऐतिहासिक अन्याय नहीं तो और क्या है?
उपरोक्त संदर्भ में सबसे अधिक घोर अन्याय उन डॉक्टर हेडगेवार के साथ हुआ, जिन्होंने सशस्त्र क्रांति से लेकर सभी अहिंसक आंदोलनों एवं सत्याग्रहों में न केवल अग्रणी भूमिका ही निभाई अपितु सारे स्वतंत्रता संग्राम को एक निश्चित राष्ट्रवादी दिशा देने का एक भरपूर प्रयास भी किया। डॉक्टर हेडगेवार की इस महत्वपूर्ण पार्श्व भूमिका को स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में समझना वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इस ऐतिहासिक सच्चाई से कौन इंकार करेगा कि सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात समस्त भारत में तेज गति से हो रहे हिन्दुत्व के जागरण, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुर्नस्थापन, चातुर्दिक क्रांतिकारी गतिविधियों, भारतीयों की स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए उत्कट इच्छा को कुचलकर उसे दिशा भ्रमित करने के लिए एक कट्टरपंथी ईसाई नेता ए.ओ. ह्यूम ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी।
ये प्रारम्भिक कांग्रेस अंग्रेज हुकूमत का सुरक्षा कवच (सेफ्टी वाल्व) था। अतः अंग्रेजों की इसी कुटिल चाल को विफल करने, भारतीयता को विदेशी और विधर्मी षड्यंत्रों से बचाने और स्वतंत्रता संग्राम को राष्ट्रीय सनातन आधार प्रदान करने के लिए डॉक्टर हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। यह संघ भारत की सनातन राष्ट्रीय पहचान ‘हिन्दुत्व’ का सुरक्षा कवच था और है। संघ अर्थात राष्ट्र की सर्वांग स्वतंत्रता एवं सर्वांग सुरक्षा के लिए देशभक्त स्वतंत्रता सेनानियों का शक्तिशाली संगठन। डॉक्टर हेडगेवार की सबसे बड़ी चिंता यह थी कि सैन्य पौरुष, ज्ञान विज्ञान, अतुलनीय समृद्धि, गौरवशाली संस्कृति इत्यादि सब कुछ होते हुए भी हम परतंत्र क्यों हुए? परतंत्रता के कारणों को जाने बिना स्वतंत्रता प्राप्ति के सभी प्रयासों का परिणाम अच्छा नहीं होगा, यही हुआ भी। सदियों पुराने राष्ट्र का दुखित विभाजन और आधी-अधूरी राजनीतिक स्वतंत्रता।
डॉक्टर हेडगेवार ने तत्कालीन सभी राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक संस्थाओं एवं स्वतंत्रता आंदोलनों में भागीदारी करने के बाद अपने गहरे मंथन में से यह निष्कर्ष निकालकर स्वतंत्रता सेनानियों, नेताओं, संतों महात्माओं समेत सभी भारतवासियों के सामने रखा। -‘‘हमारे समाज और देश का पतन मुस्लिम हमलावरों या अंग्रेजों के कारण नहीं है। अपितु राष्ट्रीय भावना के शिथिल हो जाने पर व्यक्ति और समष्टि के वास्तविक संबंध बिगड़ गये तथा इस प्रकार की असंगठित व्यवस्था के कारण ही एक समय दिग्विजय का डंका दसों दिशाओं में बजाने वाला हिन्दू (भारतीय) समाज सैकड़ों वर्षों से विदेशियों की आसुरिक सत्ता के नीचे पददलित है’’। डॉक्टर हेडगेवार मानते थे कि भारत के वैभव, पतन, संघर्ष और उत्थान का इतिहास हिन्दुओं के सामाजिक उतार चढ़ाव के साथ जुड़ा हुआ है। अर्थात भारत की परतंत्रता के लिए हिन्दुओं में व्याप्त हो चुका जातिवाद, अंतर्कलह, एक दूसरे को नीचा दिखाने की मनोवृत्ति, असंगठित व्यवस्था और छुआछूत की भयंकर बीमारी इत्यादि ही देश की पतन अवस्था के लिए जिम्मेदार हैं।
इसलिए देश को स्वतंत्र करने एवं बाद में स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए देश के बहुसंख्यक प्राचीन राष्ट्रीय समाज हिन्दू को संगठित, शक्तिशाली, चरित्रवान, स्वदेशी, स्वाभिमानी बनाना अति आवश्यक है। डॉक्टर हेडगेवार के इसी चिंतन ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जन्म दिया। डॉक्टर जी की अदभुत कार्य पद्धति की सर्वोत्तम विशेषता यही है कि उन्होंने हिन्दू संगठन और स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के दोनों मुख्य काम एक साथ करने में सफलता प्राप्त कर ली। डॉक्टर हेडगेवार द्वारा प्रदत्त हिन्दुत्व की कल्पना और अवधारणा में सभी भारतवासी शामिल हैं। जो भी भारतवर्ष को अपनी मातृभूमि, पितृभूमि और पुण्य भूमि मानता है, वह व्यक्ति हिन्दू ही है। हिन्दुत्व किसी जाति मजहब का परिचायक न होकर भारत की सनातन काल से चली आ रही राष्ट्रीय जीवन व्यवस्था है। देश के भूगोल और संस्कृति की पहचान है हिन्दुत्व। कथित अल्पसंख्यक समाज भी इसी राष्ट्रीय पहचान का अभिन्न हिस्सा है। इसलिए हिन्दुत्व ही वह आधार है, जिस पर सभी भारतवासियों की एकता सम्भव है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना किसी विशेष मजहब, जाति या दल के विरोध में नहीं हुई। भारत को स्वतंत्र करवाना और स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना संघ का एकमात्र लक्ष्य था और आज भी है। संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार ने बाल्यकाल से ही अंग्रेजी साम्राज्य का विद्रोह शुरू कर दिया था। उनके बचपन की तीन घटनाएं उनके द्वारा भविष्य में स्थापित होने वाले शक्तिशाली संगठन और उसके महान उद्देश्य का शिलान्यास थीं। बालकेशव हेडगेवार द्वारा स्कूल में महारानी विक्टोरिया के जन्मदिन पर बंटने वाली मिठाई को यह कहकर कूड़ेदान में फेंक दिया- ‘‘मैंने अंग्रेजी साम्राज्य को कूड़ेदान में फेंक दिया है, विदेशी राजा के जन्मदिन पर बांटी गई मिठाई को मैं नहीं खा सकता’’। नागपुर के सीताबर्डी किले पर लगे यूनियन जैक (अंग्रेजों का झंडा) के स्थान पर भगवा ध्वज लहराने के लिए घर के एक कमरे में ही अपने बाल सखाओं के साथ सुरंग खोदने का काम शुरू कर दिया।
नागपुर के नीलसिटी हाई स्कूल में पढ़ते समय वंदे मातरम गीत पर लगे प्रतिबंध को तोड़कर सभी कक्षाओं में बच्चों द्वारा वंदे मातरम के उद्घोष करवाना, उनके भीतर जन्म ले चुके अंग्रेज विरोध तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रत्येक प्रकार का बलिदान करने की दृढ़ता को दर्शाता है। वंदे मातरम गायन पर लगे प्रतिबंध को तोड़ने की सजा मिली ‘स्कूल से निष्कासन’। किसी तरह पुणे में जाकर विद्यालय की शिक्षा पूरी की। तत्पश्चात उस समय के राष्ट्रवादी नेताओं की योजना तथा व्यवस्थानुसार कलकत्ता के नेशनल मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लिया। उद्देश्य था उस समय के सबसे बड़े क्रांतिकारी संगठन ‘अनुशीलन समिति’ का सदस्य बनकर देश भर के सभी क्रांतिकारियों से संबंध स्थापित कर लेना। वे इस महान कार्य में सफल हुए और 6 वर्ष के बाद डॉक्टरी की डिग्री और सशस्त्र क्रांति का प्रशिक्षण व अनुभव लेकर नागपुर लौट आए। परन्तु डॉक्टरी का धंधा नहीं किया और न ही विवाह किया। अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया।
उन दिनों अर्थात 1915 में प्रथम विश्व युद्ध के बादल मंडराने लगे थे। डॉक्टर हेडगेवार ने इस अवसर पर पूरे देश में विप्लव करके अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने की योजना तैयार कर ली। देश भर में क्रांतिकारियों को तैयार करने, प्रत्येक स्थान पर हथियार भेजने एवं क्रांति का बिगुल बजाने की तैयारी हो गई। परन्तु उस समय के कांग्रेसी नेताओं का साथ न मिलने से यह योजना साकार नहीं हो सकी। तो भी देश की स्वतंत्रता के लिए उनका गहन चिंतन और परिश्रम जारी रहा। सभी मार्गों का अनुभव लेने, उनमें भागीदारी करने और उनके संचालन के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे। डॉक्टर हेडगेवार कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में भी गए, उन्हें मध्यप्रदेश कांग्रेस का सह-सचिव का पद भी सौंपा गया। नागपुर में सम्पन्न हुए कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशन में वे मुख्य व्यवस्थापकों में भी थे। उन्होंने इस अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव भी रखा था जो पारित नहीं किया गया।
डॉक्टर हेडगेवार ने कांग्रेस के भीतर रहकर अखंड भारत, सर्वांग स्वतंत्रता और शक्तिशाली हिन्दू संगठन की आवश्यकता का वैचारिक आधार तैयार करने का पूरा प्रयास किया था। वे कांग्रेस के मंचों पर अंग्रेजों के विरुद्ध धुआंधार भाषण देने लगे। इन भाषणों से समस्त देश ने डॉक्टर हेडगेवार का उद्देश्य जाना और उधर डॉक्टर हेडगेवार के इन तेवरों से अंग्रेजों के मन में भय भी उत्पन्न हुआ। ऐसे ही एक उग्र भाषण पर डॉक्टर हेडगेवार को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर मई 1921 में राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। इसके एकतरफा फैसले में डॉक्टर जी को एक वर्ष के कठोर सश्रम कारावास की सजा दी गई। कारावास में भी पूर्ण स्वतंत्रता का चिंतन चलता रहा। जेल से लौटने के पश्चात भी वे पूज्य महात्मा गांधी जी के नेतृत्व में आयोजित होने वाले सभी सत्याग्रहों एवं आंदोलनों में भाग लेते रहे।
डॉक्टर हेडगेवार ने विजयदशमी 1925 में नागपुर में संघ की स्थापना कर दी। उस समय संघ के स्वयंसेवकों को एक प्रतिज्ञा लेनी होती थी- ‘मैं अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए तन-मन-धन पूर्वक आजन्म और प्रमाणिकता से प्रयत्नरत रहने का संकल्प लेता हूं।’ डॉक्टर हेडगेवार ने घोषणा की- ‘हमारा उद्देश्य हिन्दू राष्ट्र की पूर्ण स्वतंत्रता है, संघ का निर्माण इसी महान लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए हुआ है।’ जब कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित किया तो डॉक्टर हेडगेवार ने संघ की सभी शाखाओं पर 26 जनवरी 1930 को सायंकाल 6 बजे स्वतंत्रता दिवस मनाने का आदेश दिया। सभी शाखाओं के स्वयंसेवकों ने पूर्ण गणवेश पहनकर नगरों में पथ संचलन निकाले और स्वतंत्रता संग्राम में बढ़चढ़कर भाग लेने की प्रतिज्ञा दोहराई। ध्यान दें कि संघ ऐसी पहली संस्था थी जिसने सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता का उद्देश्य रखा था।
1930 से पहले कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का नाम तक नहीं लिया। यह दल हाथ में कटोरा लेकर अंग्रेजों से स्वतंत्रता की भीख मांगता रहा। तो भी डॉक्टर हेडगेवार ने महात्मा गांधी जी के सभी सत्याग्रहों और आंदोलनों में स्वयंसेवकों को भाग लेने की अनुमति दी। गांधी जी के नेतृत्व में आयोजित हुए असहयोग आंदोलन में स्वयं डॉक्टर हेडगेवार ने 6 हजार से अधिक स्वयंसेवकों के साथ ‘जंगल सत्याग्रह’ किया था। उन्हें 9 मास के सश्रम कारावास की सजा हुई थी। इसी प्रकार 1942 में महात्मा गांधी जी के नेतृत्व में सम्पन्न हुए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन’ में संघ के स्वयंसेवकों ने अपने सरसंघचालक श्री गुरुजी गोलवलकर के आदेशानुसार हजारों की संख्या में भाग लिया था। इतना ही नहीं कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं को संघ के कार्यकर्ताओं ने अपने घरों में शरण भी दी थी। उदाहरणार्थ दिल्ली के उस समय के प्रांत संघचालक श्री हंसराज गुप्त के घर में अरुणा आसफ अली और जय प्रकाश नारायण ठहरे थे। यद्यपि इस आंदोलन की घोषणा करने से पूर्व संघ जैसे कई शक्तिशाली संगठनों से कोई सलाह मशवरा नहीं किया गया तो भी राष्ट्र के हित में संघ के स्वयंसेवकों ने इसमें भाग लिया और जेलों में यातनाएं भुगतीं।
राष्ट्रीय अभिलेखागार में गुप्तचर विभाग की एक रिपोर्ट सुरक्षित रखी हुई है। इस रिपोर्ट में संघ के अनेक कार्यकर्ताओं के नाम भी मिलते हैं, जो १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन में भागीदारी करने के कारण विभिन्न स्थानों पर हिरासत में लिए गए और जेलों में सजा भुगतते रहे। इन रिपोर्टों से यह भी पता चलता है कि विदर्भ के चिमूर आश्थी नामक स्थान पर तो संघ के कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्र सरकार की स्थापना भी कर ली थी। संघ के स्वयंसेवकों ने अंग्रेज पुलिस द्वारा किये गए कई प्रकार के अमानवीय अत्याचारों का सामना किया। गुप्तचर विभाग की रिपोर्टों से पता चलता है कि अपनी सरकार स्थापित करने के बाद सरकारी आदेशों से हुए लाठीचार्ज/गोलीवर्षा में एक दर्जन से ज्यादा स्वयंसेवक बलिदान हुए थे। नागपुर के निकट रामटेक में संघ के नगर कार्यवाह श्री रमाकांत केशव देशपांडे उपाख्य बालासाहब देशपांडे को 1942 “अंग्रेजों भारत छोड़ो” के आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने पर मृत्युदंड की सजा सुनाई गयी थी। परन्तु बाद में उन्हें इस सजा से मुक्त कर दिया गया। इन्हीं बालासाहब देशपांडे ने बाद में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की थी।
उल्लेखनीय है कि डॉक्टर हेडगेवार ने द्वितीय महायुद्ध के मंडराते बादलों को भांप कर देश में एक सशक्त क्रांति करने की योजना पर सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर और त्रलोक्यनाथ चक्रवर्ती के साथ एक लम्बी और गहन चर्चा की थी। इसी चर्चा में से सेना में नौजवानों की भर्ती, सेना में विद्रोह और आजाद हिंद फौज के गठन का विचार उत्पन्न हुआ था। सारी योजना तैयार हो गई और काम शुरु हो गया। नौजवान योजनाबद्ध फौज में भर्ती हुए और सुभाष चंद्र बोस द्वारा विदेशों में जाकर आजाद हिंद फौज का नेतृत्व संभाल लिया गया और इधर अभिनव भारत, हिन्दू महासभा, आर्य समाज, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सभी सशस्त्र क्रांतिकारी संगठनों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बजाने के लिए शक्ति अर्जित करनी प्रारम्भ कर दी।
आखिर वह समय आया जब फौज में विद्रोह हुआ और आजाद हिंद फौज भी इम्फाल तक पहुंच गई। अंग्रेजों को भय लगा, इस भयंकर विकट परिस्थिति से निपटने में अपने को असमर्थ पाकर अंग्रेजों ने अपने पहले निर्णय को बदलकर 10 महीने पहले ही 15 अगस्त 1947 को देश के विभाजन की घोषणा कर दी। पहले निर्णय के अनुसार विभाजन की तिथि 8 जून 1948 थी। यह देश का और स्वतंत्रता सेनानियों का दुर्भाग्य ही था कि कांग्रेस के नेताओं ने महात्मा गांधी की इच्छा के विरुद्ध 1200 वर्षों से चले आ रहे स्वतंत्रता संग्राम और लाखों बलिदानी हुतात्माओं के ‘‘अखण्ड भारत की सर्वांग स्वतंत्रता’’ के उद्देश्य को ध्वस्त करते हुए देश का विभाजन स्वीकार करके आधी-अधूरी स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। यदि एक वर्ष और ठहर जाते तो स्वतंत्रता भी मिलती और भारत का विभाजन भी न होता।
विभाजन के बाद महात्मा गांधी जी ने एक पत्र लिखकर कांग्रेस के नेताओं को सुझाव दिया था कि अब कांग्रेस को समाप्त कर के इसे एक सेवादल में परिवर्तित कर दो। महात्मा गांधी जी की इस इच्छा को ठुकरा दिया गया। उधर संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने स्वयंसेवकों को तेज गति से अपनी शक्ति बढ़ाने का आदेश दिया। उन्होंने कहा कि ‘डॉक्टर हेडगेवार का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ, उनका उद्देश्य था अखण्ड भारत की सर्वांग स्वतंत्रता और सर्वांगीण विकास। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1947 के बाद भी सक्रिय रहा। कश्मीर की सुरक्षा के लिए बीसियों स्वयंसेवकों ने बलिदान दिये। डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने श्रीनगर में जाकर अपनी कुर्बानी दी। स्वयंसेवकों ने हैदराबाद और गोवा की स्वतंत्रता के लिए सत्याग्रह और संघर्ष किये।
यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि इन सभी संघर्षों में संघ के स्वयंसेवकों ने राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की छत्रछाया में और तिरंगे की रक्षा के लिए अपने बलिदान दिए हैं। उल्लेखनीय है कि डॉक्टर हेडगेवार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अंतिम उद्देश्य है – परम वैभवशाली अखंड हिन्दू राष्ट्र। परम वैभवशाली अर्थात : सर्वांग स्वतंत्र, सर्वांग संगठित, सर्वांग विकसित और सर्वांग सुरक्षित राष्ट्र।
– – समाप्त।