गुरुपुत्रों ने रचा बलिदानों का अतुलनीय इतिहास

गुरुपुत्रों ने रचा बलिदानों का अतुलनीय इतिहास

धर्मरक्षक वीरव्रती खालसा पंथ – भाग 11

नरेंद्र सहगल

गुरुपुत्रों ने रचा बलिदानों का अतुलनीय इतिहासगुरुपुत्रों ने रचा बलिदानों का अतुलनीय इतिहास

सोने की चिड़िया कहलाने वाले समृद्ध एवं सुरक्षित भारत पर विदेशी आक्रान्ताओं की गिद्ध दृष्टि पड़ते ही आक्रमणों का कालखंड शुरू हो गया। शकों, हूणों एवं कुषाणों की प्रचंड और राक्षसी सैन्य वाहिनियों को पराजित करके हिंदू सम्राटों ने इन भयंकर लड़ाकू जातियों को अपने धर्म में आत्मसात कर लिया। परंतु कालांतर में भारत की केंद्रीय सत्ता के अस्त-व्यस्त होने तथा हिंदुओं में धर्म विमुखता, आपसी फूट, एक-दूसरे को नीचा दिखाने और परास्त करने की राष्ट्र घातक मनोवृति के पनपने से इस्लामिक हमलावर भारत को तोड़ने, गुलाम बनाने में सफल होते चले गए।

भारतीय इतिहास के इस रक्तरंजित अध्याय में दो राजनीतिक अथवा सैनिक धाराएं चलती रहीं। पहली धारा मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनबी, मोहम्मद गौरी, तुगलक, खिलजी, बाबर, हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब तक के दुर्दांत हमलावरों की है, जिन्होंने हमारे विघटन का लाभ उठाकर अत्याचारों की आंधी चलाए रखी और दूसरी धारा दाहिर, बप्पा रावल, राणा सांगा, राणा प्रताप, राणा राजसिंह, छत्रपति शिवाजी महाराज, छत्रसाल और श्रीगुरु गोबिंद सिंह जैसे भारतीय शूरवीरों की है, जिन्होंने हमलावरों के साथ जमकर टक्कर ली और असंख्य बलिदानों के बाद मुगल साम्राज्य को समाप्त करने में सफल भी हुए।

परंतु इसी समय हमारी ही भूलों एवं कमजोरियों के कारण आक्रांता अंग्रेज आए और भारत को लगभग 200 वर्षों तक अपना गुलाम बनाए रखने में सफल हो गए। (परंतु हम परतंत्रता के इस अध्याय पर चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि यह वर्तमान लेखमाला का विषय नहीं है।)

सर्वविदित है कि दस गुरुओं की परंपरा श्रीगुरु नानकदेव से प्रारंभ होकर दशमेश पिता श्रीगुरु गोबिंद सिंह तक चलती है। और इसी के समकालीन मुगलिया दहशतगर्दी की परंपरा बाबर से लेकर औरंगजेब तक चलती है। इन दोनों विरोधी धाराओं में जमकर संघर्ष हुआ। सन 1500 से 1700 तक लगभग 200 वर्ष तक चले इस घोर अत्याचारी मुगल साम्राज्य के कफन का अंतिम कील पंजाब में बना था दशम् गुरु द्वारा सृजित खालसा पंथ।

मुगलिया दहशतगर्दी के पापों का घट जब लबालब भर गया तो विधाता ने इसे ठोकर मारने का काम दशमेश पिता को सौंप दिया। इस ईश्वरीय आदेश का पालन करते हुए खालसा पंथ का निर्माण करके श्रीगुरु गोबिंद सिंह रणक्षेत्र में कूद पड़े। युद्ध का मैदान ही इस संत राष्ट्र पुरुष का कार्य स्थल बन गया। श्रीगुरु नानकदेव द्वारा प्रारंभ किया गया अध्यात्म आधारित भक्ति अभियान अब संत योद्धा कलगीधर, सरवंशदानी श्रीगुरु गोबिंद सिंह के वीरव्रत आधारित सैनिक अभियान में बदल गया। खालसा पंथ के सैनिकों ने शत्रुओं के शीश काटने और स्वधर्म की रक्षार्थ अपने बलिदान देने का ऐतिहासिक धर्मयुद्ध छेड़ दिया।

दशम् पातशाह ने मुगलों के हिंदुत्व विरोधी कुकृत्यों, औरंगजेब द्वारा फैलाए जा रहे अधर्म, कट्टरपंथी इस्लामिक कानून व्यवस्था के अंतर्गत हो रहे सामाजिक अन्याय के प्रतिकार के लिए अपने चारों पुत्रों (साहिबजादों) को भी बलिदान कर दिया। उन्होंने अपने 42 वर्षीय जीवन काल में छोटी-बड़ी 14 लड़ाइयां लड़ीं। ये सभी रक्तिम संघर्ष अकाल पुरुष की आज्ञा एवं उसी की विजय के मद्देनजर किए गए थे। श्रीगुरु ने इस वैचारिक सिद्धांत को बहुत ही सुंदर शब्दों में कहा है – “वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरु जी की फतेह” अर्थात यह खालसा पंथ भी अकाल पुरुख का है और युद्ध में इसकी विजय भी उसी परमशक्ति की ही है। अतः श्रीगुरु का खालसा अथवा ‘खालसा फौज’ का अपना कोई निजी स्वार्थ नहीं था। स्वधर्म एवं राष्ट्र की रक्षा का कार्य ईश्वरीय कार्य था। जिसे बलिदान भाव से प्रेरित होकर संपन्न किया गया।

उस कालखंड में भारत में हिंदुओं की संख्या लगभग 98% थी, इसी समाज में से चयनित सिंह (सैनिक) सजाए गए थे। अमृत छकने और छकाने से पहले स्वयं श्रीगुरु भी गोविंदराय थे। प्रथम गुरु श्रीगुरु नानकदेव से दशम् गुरु तक की अध्यात्मिक भक्ति और शक्ति की इतिहासिक परंपरा सनातन भारतीयता पर ही आधारित थी।

इसलिए यह कहने में कोई भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यह ‘खालसा पंथ’ भारतीयों का, भारतीयों के लिए, भारतीयों के द्वारा सृजित किया गया एक ऐसा सैन्य अभियान था, जिसने युग की धारा को ही बदल दिया। पहले जो समाज अपनी ही ढिलाई की वजह से मार खाता था, उसने अब हथियार उठाकर शत्रु पर प्रहार करने शुरू कर दिए। जो लोग मुगलिया अत्याचारों से भयभीत होकर घरों की चारदीवारी में दुबके बैठे माला फेरते रहते थे, वह सब अब सिंह बनकर माला फेरने की कर्मकांडी प्रथा को छोड़कर शस्त्र चलाने की शौर्य गाथाएं रचने लगे।

इन सभी सैनिक अभियानों में युद्ध नायक दशम् गुरु ने स्वयं और स्वयं के परिवार का बलिदान करने में अग्रणी भूमिका निभाई। अमृत-पान के समय श्रीगुरु ने अपने पांचों सिंहों को आश्वासन दिया था ‘आपने धर्म की रक्षा के लिए सर दिए हैं मैं सरवंश दूंगा।’ भाई दयासिंह ने कहा ‘सच्चे पातशाह हमने तो शीश देकर अमृत-पान किया है। आप खालसा को क्या भेंट करोगे?’ तुरंत दशम् पातशाह ने उत्तर दिया ‘मैं अपने सभी सुत खालसा की भेंट चढ़ाऊँगा। मैं सदैव अपने पांच सिहों में उपस्थित रहूंगा।’

खालसा मेरा रूप है खास,

खालसे महि हौ करौ निवास।

खालसा पंथ के रूप में दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही भारतीय सिंह शक्ति और उसके विजयी सैन्य अभियानों से घबराकर औरंगजेब ने इस शक्ति को समाप्त करने के लिए पहाड़ी हिंदू राजाओं की मदद लेने का षड्यंत्र रचा। यह राजा भी दशम् गुरु की सैन्य शक्ति से घबराए हुए थे। अब खालसा पंथ के सामने दो शत्रु थे। एक मुगल और दूसरे कुछ पहाड़ी हिंदू राजा।

‘चमकौर की गढ़ी’ नामक स्थान पर मुगलों की लाखों की सेना के साथ मुट्ठी भर सिख सैनिकों का युद्ध इसलिए भी इतिहास का एक लोमहर्षक अध्याय बन गया क्योंकि इसमें दशम् गुरु ने अपने दोनों युवा पुत्रों साहिबजादा अजीत सिंह (18) और साहिबजादा जुझार सिंह (15) को युद्ध भूमि में भेजा। यह दोनों गुरु पुत्र अनेकों शत्रुओं को यमलोक पहुंचा कर वीरगति को प्राप्त हुए। धन्य हैं ऐसा दशमेश पिता जिसने अपने दोनों युवा पुत्रों को स्वधर्म के लिए बलिदान होने की प्रेरणा और स्वीकृति दी।

इस युद्ध के समय श्रीगुरु का सारा परिवार बिखर गया। इनके दोनों छोटे बेटे 8 वर्षीय जोरावर सिंह और 6 वर्षीय फतेह सिंह को उनकी दादी माता गुजरी सुरक्षित लेकर एक गांव में पहुंची। इस गांव में गुरु परिवार का भक्त गंगू रहता था। इस धोखेबाज ने गुरु पुत्रों को सूबेदार वजीर खान की कैद में पहुंचा दिया। इन्हें जब इस्लाम कबूल करने के लिए कहा गया तो दोनों ने गरजते हुए कहा “हम दशमेश पिता के पुत्र हैं और धर्म के लिए बलिदान होने वाले दादा तेग बहादुर के पौत्र हैं हम जान दे देंगे धर्म नहीं छोड़ सकते।”

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इन वीर बालकों को जीते जी दीवारों में चिन देने का आदेश दिया गया। दोनों बच्चों ने ऊंची आवाज में उद्घोष किए – वाहे गुरु जी का खालसा वाहे गुरु जी की फतेह। जैसे-जैसे दीवार ऊंची होती गई यह वीर बालक उद्घोष करते रहे। स्वधर्म के लिए बलिदान हुए गुरु पुत्रों ने बलिदान का अनोखा और अतुलनीय इतिहास रच डाला।

बच्चों के बलिदान का समाचार सुनकर इनकी दादी माता गुजरी ने भी प्राण छोड़ दिए। उधर जब श्रीगुरु गोबिंद सिंह ने सुना कि उनके दोनों छोटे बच्चे भी स्वधर्म की बलिबेदी पर बलिदान हो गए हैं तो उनके मुख से यह ऐतिहासिक शब्द निकले ‘मुगल साम्राज्य का शीघ्र विनाश होगा।’

———-– क्रमश:

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