भारतीय ज्ञान का उपयोग कर राष्ट्रीय संस्थाओं की नवरचना की जाए- प्रो. रामेश्वर मिश्र
भारतीय ज्ञान का उपयोग कर राष्ट्रीय संस्थाओं की नवरचना की जाए
- धर्मपाल शोधपीठ की व्याख्यानमाला में व्याख्यान
भोपाल, 19 फरवरी। धर्मपाल जी की मूल समझ है कि 18वीं शताब्दी ईस्वी के अंत तक यानी 19वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में भी भारत की सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्थाएं तथा शिक्षा, विद्या, ज्ञान, न्याय, प्रशासन, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी, शिल्प व कृषि विज्ञान की परंपराएं सभी पूरी तरह से सुरक्षित और स्वस्थ थीं। मुस्लिम आक्रांता हिन्दुओं पर मजहबी चोटें करते थे, परंतु प्रणालियों को हानि नहीं पहुंचा पाए। इस कारण हिन्दू ज्ञान परंपरा 18वीं शताब्दी ईस्वी के अंत तक यथावत थी। ये विचार धर्मपाल शोधपीठ के पूर्व निदेशक, भारत भवन के पूर्व न्यासी सचिव एवं भारत सरकार के संस्कृति परामर्शदाता रहे विद्वान इतिहासकार और लेखक प्रोफेसर रामेश्वर मिश्र पंकज ने आज धर्मपाल शोधपीठ में अपने व्याख्यान में व्यक्त किए। व्याख्यान का शीर्षक था- “धर्मपाल जी की दृष्टि: समकालीन राष्ट्रीय परिवेश में”। इसका आयोजन धर्मपाल शोधपीठ ने किया था।
उन्होंने कहा कि उस समय हिन्दू-मुस्लिम साझा शासन था। उसे मुस्लिम शासन कहना असत्य है। वह भी केवल कुछ भाग में था। देशभर में कभी नहीं था। इसलिए उसका पुनः उत्कर्ष यानी पुनरुद्धार बहुत सरल है। अगर स्वतंत्र भारत के शासक अपनी ज्ञान, शिल्प, विज्ञान और प्रौद्योगिकी तथा खेती और कृषि प्रबंधन आदि सभी परंपराओं का व्यापक अध्ययन करें और कराएं तथा उसको प्रोत्साहन दें और भारतीय ज्ञान विज्ञान से सीख कर भारतीय समाज परंपरा और भारतीय परंपरा को फिर से राष्ट्र की मुख्यधारा में ले आएं, तो भारत पुनः वैसा ही श्रेष्ठ और विश्व में अग्रणी हो सकेगा, जैसा हजारों साल तक रहा है और जैसा स्वयं एंगस मेडिसन की रिपोर्ट “दि वर्ल्ड इकॉनमी” से पता चलता है कि 18वीं शताब्दी तक विश्व अर्थव्यवस्था में भारत अग्रणी था।
इस अवसर पर विक्रमादित्य शोध पीठ के निदेशक तथा स्वराज भवन के पूर्व संचालक एवं पूर्व संस्कृति संचालक श्रीराम तिवारी भी उपस्थित थे। श्रीराम तिवारी ने कहा कि भारतीय सैनिकों की वीरता से डरकर दूसरे महायुद्ध के बाद अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का निश्चय किया। परंतु संभवतः कुछ ऐसी शर्तें लगा दीं, कि पढ़ाई लिखाई में इंग्लैंड का पक्ष ही प्रस्तुत होता रहा ।
उन्होंने कहा कि समस्त शिक्षा वृद्ध संवाद है और अपने देश के सयानों से यानी ज्ञान संपन्न ऋषि-मुनियों और विद्वानों से तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भारत की प्रतिभाओं से नई पीढ़ी का संवाद कराना आवश्यक है, ताकि वे भारत की ज्ञान परंपरा की पुनः रचना कर सकें और नई शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान पद्धति को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया जा सके। परंतु इसके लिए नई पीढ़ी को इसका आधार लेकर पुरुषार्थ और परिश्रम करना होगा। तब भारत अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सकेगा।