आहत होती संसदीय गरिमा

हृदयनारायण दीक्षित

आहत होती संसदीय गरिमा
संसद संवैधानिक जनतंत्र का शीर्ष मंच है। लेकिन संसद की प्रतिष्ठा और गरिमा पर संकट है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी ने लोकसभा में आपत्तिजनक बातें की थीं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर भी अनर्गल आरोप लगाए थे। लोकसभा अध्यक्ष ने भाषण के आपत्तिजनक और असंसदीय अंश कार्यवाही से निकलवा दिए थे। केन्द्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी ने भाषण के आपत्तिजनक अंश निकालने के लिए लोकसभा अध्यक्ष को पत्र लिखा था। भाजपा सांसद निशिकांत ने सदन के विशेषाधिकार भंग का नोटिस दिया है। राहुल ने नोटिस के उत्तर में स्वयं को सही सिद्ध करने का प्रयास किया है। लेकिन इससे भी बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि उन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र के कार्यक्रम में लोकसभा के भाषण के आपत्तिजनक अंशों को निकाले जाने की सार्वजनिक आलोचना भी की है। वे सरकार और अध्यक्ष को ही दोषी ठहरा रहे हैं। अध्यक्ष/सभापति का आसन सर्वोच्च होता है। कार्य संचालन नियमों के अनुसार अध्यक्ष के विनिश्चय को चुनौती नहीं दी जा सकती। संसदीय नियमावली (नियम 353) के अनुसार सदन में आरोप लगाने के पहले अध्यक्ष और सम्बंधित व्यक्ति को सूचना देना अनिवार्य है। इस मामले में उन्हें अध्यक्ष व प्रधानमंत्री को सूचना देनी चाहिए थी। कांग्रेस के 9 व 3 अन्य सांसदों के विरुद्ध भी विशेषाधिकार भंग का नोटिस विचारणीय है। राज्यसभा के इन माननीय सांसदों पर सदन में अव्यवस्था फैलाने, बार बार सदन के ‘वेल‘ में आने, नारेबाजी करने और कार्यवाही में बाधा डालने के आरोप हैं। विपक्षी सांसदों के इस आचरण से संसद की गरिमा को चोट पहुंची है।
सदन की कार्यवाही को विनियमित करना अध्यक्ष का अधिकार है। अध्यक्ष व राजयसभा के सभापति यही कर रहे हैं। आज कांग्रेस इसकी निंदा कर रही है। लेकिन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के समय सरकारी प्रस्ताव के माध्यम से 63 सांसदों का निलंबन हुआ था। तब कांग्रेस ने इसे सही ठहराया था। आज केवल विशेषाधिकार के नोटिस पर ही कांग्रेस पीठासीन अधिकारियों व सरकार पर आक्रामक है। लोकसभा सचिवालय द्वारा प्रकाशित ‘संसदीय पद्धति और प्रक्रिया‘ में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की भूमिका पठनीय है, ‘‘संसद में अनुशासनहीनता और अव्यवस्था से मर्यादा क्षीण होती है। नागरिकों में लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति सम्मान का भाव जरूरी है। आवश्यक है कि संसद लोगों की नजरों में अधिकाधिक विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए व्यवस्थित ढंग से कार्य करे।” लेकिन कांग्रेस इससे प्रेरित नहीं होती। संसद में परिपूर्ण वाक्स्वातंत्र्य है। संविधान (अनुच्छेद 105-1 व 2) में वाक्स्वातंत्र्य के अधिकार हैं। कहा गया है कि, ‘‘इस संविधान के उपबंधों के और संसद की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों और स्थाई आदेशों के अधीन रहते हुए संसद में वाक्स्वातंत्र्य होगा। संसद या उसकी समिति में सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए मत के सम्बंध में उसके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी।” यह वाक्स्वातंत्र्य असीम नहीं है। यह संविधान व संसद की प्रक्रिया नियमावली और स्थाई आदेशों के अधीन है।
वाक्स्वातंत्र्य का अर्थ हंगामा या शोर मचाने की स्वतंत्रता नहीं है। सदन में बोलने की निर्बाध स्वतंत्रता नियमों के अधीन ही राष्ट्र हितैषी है। लेकिन शोर और हंगामे के द्वारा कार्यवाही बाधित करना सदन का अवमान है। वाद विवाद के दौरान उत्तेजना स्वाभाविक है। लेकिन सदन के भीतर दफ्ती या प्लेकार्ड लाना, शोर मचाना तात्कालिक उत्तेजना का परिणाम नहीं होता। प्लेकार्ड आदि लेकर आना सदन में अव्यवस्था फैलाने की सुविचारित योजना का परिणाम है। ऐसे मामलों में कठोर कार्रवाई का कोई विकल्प नहीं है। सदनों के भीतर व्यवस्था और अनुशासन की चिंता को लेकर पीठासीन अधिकारियों के कई सम्मेलनों में गंभीर विचार हुए हैं। 2001 में लोकसभा नियमावली में एक नया नियम जोड़ा गया था। इस नियम के अनुसार ‘‘अध्यक्षीय आसन के सामने शोर मचाने वाले सदस्य अध्यक्ष द्वारा नाम लेते ही स्वतः निलंबित हो जाते हैं।” पीठासीन अधिकारी सदाशयता के कारण कड़ी कार्रवाई से बचते हैं लेकिन कार्यवाही में बाधा डालना, नारेबाजी करना आपत्तिजनक मानहानिपरक शब्दों का प्रयोग रोकने के लिए यथानियम दण्डात्मक कार्यवाई का विकल्प ही क्या है?
विधायक सांसद सामान्यजनों से चुने जाते हैं। वे चुने जाने के पहले सामान्यजन होते हैं। निर्वाचित होने पर वे साधारण से असाधारण हो जाते हैं। लोकसभा के महासचिव रहे सीके जैन ने ‘आल इंडिया कांफ्रेंस ऑफ प्रेसाइडिंग ऑफिसर्स‘ पुस्तक में यूरोपीय विद्वान वालटर लिपिमैन को उद्धृत किया है कि, ‘‘उच्च पदस्थ लोग संस्थाओं के संचालक प्रशासक मात्र नहीं हैं। वे अपने देश के राष्ट्रीय आदर्शों विश्वासों और अभिलाषाओं के संरक्षक होते हैं। इनके श्रेष्ठ आचरण द्वारा देश लोगों का जोड़ नहीं राष्ट्र बनता है।” माननीय सांसद और विधायक इसी श्रेणी में आते हैं। उनका आचरण और व्यवहार आमजनों पर प्रभाव डालता है। संसदीय लोकतंत्र का कोई विकल्प नहीं है। संविधान निर्माताओं ने गहन विचार विमर्श के बाद संसदीय पद्धति अपनाई थी। संसद और विधानमण्डल का प्राथमिक कर्तव्य विधि निर्माण, संविधान संशोधन, बजट पारण व कार्यपालिका को जवाबदेह बनाना है। संसद में व्यवधान से संसदीय कर्तव्य के निर्वहन में बाधा पैदा होती है। संप्रति सदनों में बहस की गुणवत्ता घट रही है। कामकाज प्रभावित हो रहा है। महत्वपूर्ण विषयों पर भी बहस के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता। सदन आरोप प्रत्यारोप का केन्द्र बनते दिखाई पड़ रहे हैं। अनेक बैठकों व सम्मेलनों में इस पर चिंता व्यक्त की गई है। सिद्धांत रूप में संसद अपनी प्रक्रिया की स्वामी है। लोकसभा के स्वर्ण जयंती अधिवेशन (1997) में सर्वसम्मत प्रस्ताव हुआ था कि, ‘‘सभा के कार्य संचालन सम्बंधी पीठासीन अधिकारियों के निर्देशों के अनुपालन द्वारा संसद की प्रतिष्ठा का रक्षण और संवर्द्धन किया जाए।‘‘ लेकिन यह संकल्प बेनतीजा रहा। सदस्यों के आचरण और व्यवहार को लेकर समय समय पर चिंता व्यक्त की जाती रही है। इसके लिए लोकसभा व राज्यसभा में आचार समिति का गठन किया गया था। आचार समिति सदस्यों के आचरण पर विचार के लिए संशक्त है।
संसदीय पद्धति को गुणवान और प्रभावी बनाए जाने की आवश्यकता है। बीते सप्ताह राष्ट्रमण्डल संसदीय संघ की बैठक सिक्किम की राजधानी गंगटोक में हुई है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने विधायी सदनों के गतिरोध पर चिंता व्यक्त की है। उन्होंने कहा है कि ‘‘विधायी सदनों में गतिरोध लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। जन गण मन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है।” उन्होंने समाचार माध्यमों से कहा कि ‘‘सदन आरोप प्रत्यारोप के ठिकाने बन गए हैं। इन्हें बहस व विचार विमर्श का केन्द्र होना चाहिए। सन् 2001 में राष्ट्रपति व राज्यपाल के अभिभाषणों पर बाधा न डालने का निश्चय अध्यक्षों, मुख्यमंत्रियों व मुख्य सचेतकों की बैठक में लिया गया था। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। दलगत राजनीति इस संकल्प पर हावी हो गई है।” बिड़ला ने राजनीतिक विमर्श में असंसदीय व्यवहार और अवांछनीय शब्दावली के इस्तेमाल को लोकतंत्र के लिए अशुभ बताया। कहा कि, ‘‘देश नेताओं की ओर देखता है, वे जो कहते करते हैं, वह मिसाल बनता है। वे समाज को सकारात्मक सन्देश देने वाले होने चाहिए” राजनैतिक दलतंत्र को भी जिम्मेदार बनाए जाने की आवश्यकता है। दल ही चुनाव में प्रत्याशी खड़े करते हैं। सभी दल अपने कार्यकर्ताओं  संसदीय प्रणाली व आचार व्यवहार का प्रशिक्षण दे सकते हैं। यह समय की मांग है। आदर्श संसदीय गति में ही राष्ट्र की प्रगति है।
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