कभी बारिश में बूंदें होकर तुम देखना
सुनील कुमार महला
कभी बारिश में बूंदें होकर तुम देखना
कभी बारिश में बूंदें होकर तुम देखना
प्रवाहमय होने में कितना आनंद है!
कभी किसी असहाय, बूढ़े की लाठी
बनकर तुम देखना
कभी किसी के दुखी मन के तारों को
झंकृत करके तुम देखना
शामिल होना तुम भी उसके दुख में,
बनना सहारा।
कभी किसी भूखे को खाना खिलाकर तुम देखना
कभी बतियाना तुम आवारा घूमते पशुओं से
कभी किसी घायल बेजुबान को सहला कर तुम देखना
मन की ईर्ष्याओं से सदैव परे
अपने अहम को दूर रखकर
कभी इंसानियत की नजरों से तुम किसी को देखना
कभी प्यार, अपनत्व, भाईचारे की भावनाओं को
लुटाकर तो तुम देखना।
कभी किसी को क्षमा करके तो तुम देखना
कभी परनिंदा को छोड़कर तो तुम देखना
कभी किसी के दिल में बिना किसी स्वार्थ, लालच के झांककर तो तुम देखना।
कभी संस्कारों और संस्कृति के गणित को
अपनाकर तो तुम देखना
कभी अपने हाथों की डालियों को किसी दुखी
असहाय के लिए फैलाकर तो तुम देखना
कभी किसी को जादू की झप्पी देकर तो तुम देखना।
यह कायनात तुम्हारे लिए
फिर इस जमीं पर साक्षात् न उतर आए तो फिर तुम कहना
तुम्हारे सारे काम न बन जाएं तो फिर तुम कहना
यह धरती स्वर्ग से सुंदर न बन जाए तो फिर तुम कहना
ग़र फिर न खिले अंकुर इंसानियत के, तो फिर तुम कहना।
करना शिकायत ग़र न हो कोई जादुई असर
कभी बारिश में बूंदें होकर तुम देखना
तो फिर कहना
उभरें नहीं ग़र नजारों पर नजारे तो फिर तुम कहना
तस्वीरें ग़र जुड़ती नजर नहीं आएं तो फिर कहना।
मन के पौधे की
फुनगियों पर कलियों का खिलखिलाना बहुत जरूरी है
और मन के पौधे की फुनगियों पर
कलियां तभी खिलखिला सकतीं हैं
जब मानव को मानव समझा जाए…!