पत्रकारिता से सामाजिक जीवन शुरू करने वाले लालकृष्ण आडवाणी बने भारत रत्न
डॉ. मयंक चतुर्वेदी
पत्रकारिता से सामाजिक जीवन शुरू करने वाले लालकृष्ण आडवाणी बने भारत रत्न
भाजपा के वरिष्ठ नेता और देश के सातवें उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कर्मठ कार्यकर्ता और पदाधिकारी के रूप में तो सभी जानते हैं, लेकिन उनके जीवन में सामाजिक सेवा का आरंभ पत्रकारिता के माध्यम से हुआ, यह कुछ थोड़े से लोगों को ही पता है। स्वयं लालकृष्ण आडवाणी ने वर्ष 2009 में ‘हिन्दुस्थान समाचार’ न्यूज एजेंसी के पदाधिकारियों के साथ अपने घर रखे एक आयोजन में बताया था कि उनके सामाजिक जीवन की शुरुआत पत्रकार के रूप में ‘हिन्दुस्थान समाचार’ से जुड़कर हुई।
दरअसल, शनिवार को पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किए जाने की जानकारी जैसे ही स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्स पर पोस्ट करते हुए दी, तो न्यूज एजेंसी एवं पत्रकारिता से जुड़े सभी पुराने पत्रकारों में, जिन्हें ये पता है कि उनका जीवन पत्रकारिता से शुरू हुआ है, खुशी की लहर दौड़ गई। हिंदुस्थान समाचार के अध्यक्ष अरविन्द भालचंद्र मार्डीकर ने कहा, ”यह हम सभी के लिए विशेषकर हमारे समूह के सभी पत्रकार साथियों के लिए गर्व का विषय है कि आडवाणी जी की पत्रकार यात्रा एवं सामाजिक जीवन में सेवा कार्य के शुरुआती दिनों में ‘हिन्दुस्थान समाचार’ बहुभाषी न्यूज एजेंसी उनकी साथी रही है। निश्चित ही आडवाणी जी का तपमय जीवन अपने आप में सभी के लिए अनुकरणीय है।”
उन्होंने कहा, ”आज राजनीतिक तौर पर भाजपा की यात्रा को देखें तो, कभी दो सांसदों से शुरू हुई यात्रा में पिछले लोकसभा चुनाव में 303 सांसद चुनकर आए। भव्य रामलला मंदिर के निर्माण में या कश्मीर समस्या, धारा 370 के खात्मे से लेकर पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के समाधान तक राष्ट्रहित से जुड़े अनेक विषयों में आडवाणी जी की महती भूमिका रही है। आज केंद्र सरकार द्वारा उन्हें भारत रत्न दिए जाने की घोषणा ने उनके सार्थक जीवन को तो और व्यापक किया ही है, साथ ही यह इस गौरवपूर्ण राष्ट्रीय सम्मान का भी सम्मान है।”
इस सदी के बड़े नेताओं में हैं लालकृष्ण आडवाणी
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष, हिन्दुस्थान समाचार के समूह संपादक, वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने कहा कि लालकृष्ण आडवाणी इस सदी के कितने बड़े राजनेता हैं, वह उनके तत्कालीन समय में लिए गए अनेक निर्णयों से पता चलता है। उनके साथ बिताए कई दिन और घण्टों में से कुछ का उल्लेख करते हुए श्रीराय ने कहा, ”1995 में बीजेपी के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष रहते हुए आखिरी दिन उन्होंने भरी सभा में समापन के पूर्व घोषणा कर दी थी कि केंद्र में जब भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनेगी तो हमारे दल की ओर से अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री होंगे। निश्चित ही यह भारतीय राजनीति की अनोखी घटना है।”
श्रीराय बताते हैं, ”अनोखी इसलिए है, क्योंकि रामरथ यात्रा के बाद आडवाणी जी भाजपा के शीर्षतम नेता हो गए थे। उस यात्रा के परिणामस्वरूप 1991 में भाजपा 120 सीटें लोकसभा की जीतने में सफल रही थी। इस जीत का लाभ यह हुआ कि इससे पहले जो एक आम धारणा थी कि जनसंघ या भाजपा गठबंधन की राजनीति में ही सबसे अधिक लाभ में रहती है, मिथक साबित हुई। 1989 में भाजपा को 86 सीटें मिली थीं, जबकि रथयात्रा के बाद अकेले अपने बूते चुनाव लड़ने पर भाजपा की सीटें कम नहीं हुईं बल्कि बढ़ गईं। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपने बूते सरकार बनाई और रिकॉर्ड तोड़ 120 सीटें पाने में सफल रही। सत्तारूढ़ पार्टी के विकल्प के रूप में एक वैकल्पिक भूमिका भाजपा की देखने को मिली।”
बिना किसी से पूछे प्रधानमंत्री के रूप में वाजपेयी के नाम की कर दी थी घोषणा
इ.गाँ.रा.क.के अध्यक्ष राय कहते हैं कि ”सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता, जो 1991 में लोकसभा में भाजपा संसदीय दल का नेता भी रहा हो, वह तत्कालीन समय में बंबई के अधिवेशन में स्वयं को प्रधानमंत्री का दावेदार घोषित न करते हुए कहे कि यदि सत्ता में आते हैं तो हमारी ओर से वाजपेयी जी प्रधानमंत्री होंगे, यह कहना अपने आप में बहुत बड़ा त्यागपूर्ण निर्णय था, जबकि उन्होंने इस बारे में न अपने दल में कोई चर्चा की थी, न संघ को इस बारे में कोई खबर थी। वे प्रधानमंत्री की दौड़ में सबसे आगे थे। इसके साथ ही संगठन पदाधिकारी-कार्यकर्ता तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी उन्हीं की स्वीकार्यता सबसे अधिक थी, इसके बाद भी अटल बिहारी वाजपेयी को आगे रखना और स्वयं को पीछे रखकर चलना अपने आप में एक बड़ा निर्णय माना जा सकता है।”
राय कहते हैं कि उनके इस निर्णय की भारी प्रतिक्रिया हुई, बीजेपी में गोविन्दाचार्य, प्रमोद महाजन जो उस समय बीजेपी में महासचिव थे तथा कई अन्य दिग्गज राजनेता, उनके निकट के, रा.स्व.संघ के पदाधिकारीगण ही नहीं हम जैसे कुछ पत्रकार जोकि उनसे नियमित तौर पर मिलते थे, यह जानना चाहते थे कि आखिर बिना किसी से सलाह लिए उन्होंने इतना बड़ा निर्णय अकेले ले कैसे लिया? हम पत्रकार साथी, गुरुमूर्ति, दीनानाथ मिश्रा, बलबीर पुंज, तपनदास गुप्ता, चंदन मित्रा, अरुण जेटली एवं अन्य कुछ उनसे समय लेकर मिलने गए। उस समय राजेंद्र शर्मा संसदीय सचिव थे, उन्होंने लोकसभा में आडवाणी जी के आते ही सूचना दी और हम सभी उनके कक्ष में मिलने पहुंचे ; यहां पहला प्रश्न आडवाणी से यही किया गया कि आपको बताना होगा कि आखिर आपने यह घोषणा क्यों की? तब वे बोले थे- भाजपा कार्यकर्ताओं, संघ के स्वयंसेवकों और आप जैसे सभी शुभचिंतकों में मेरी लोकप्रियता अधिक होगी, मेरे प्रति आप सभी का श्रद्धा भाव भी अधिक होगा, मैं समझता हूं, किंतु जनता के बीच अटल बिहारी वाजपेयी ही स्वीकृत हैं, मैं नहीं। मैं जानता हूं, समाज में, जनता जनार्दन के बीच वाजपेयी जी की स्वीकार्यता अधिक है, इसलिए बिना किसी से पूछे अपनी ओर से यह निर्णय कर लिया। वस्तुत: राजनीति में यह जो मानक आडवाणी जी ने उपस्थित किया, ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है।
विभाजित पाकिस्तान में स्वयंसेवकों को सहायता पहुंचाने जा चुके हैं आडवाणी
राय बोले, यह बात 2010 की है, जब मैं और पूर्व राज्यसभा सांसद आरके सिन्हा दिल्ली में प्रवासी भवन पहुंचे। वहां न्यूज एजेंसी हिन्दुस्थान समाचार के महाप्रबंधक रहे बालेश्वर अग्रवाल जी के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में अभिनन्दन समारोह चल रहा था, उसमें लालकृष्ण आडवाणी जी आए हुए थे। वहां आडवाणी जी ने अपने भाषण में बताया कि मैं हिन्दुस्थान समाचार का प्रतिनिधि होकर कराची गया था। वास्तविकता में पाकिस्तान में विभाजन के बाद रह रहे स्वयंसेवक परिवारों पर भारी विपदा आई हुई थी, उस समय श्रीगुरुजी ने उन्हें पाकिस्तान जाकर उनके हाल जानने और उन्हें आवश्यक सहायता पहुंचाने के लिए कहा, लेकिन संघ से घोर घृणा करने वाले पाकिस्तान में जाए कौन? यह एक बड़ा प्रश्न सभी के सामने खड़ा हुआ था, तब तय हुआ कि लालकृष्ण आडवाणी को वहां भेजा जाना चाहिए, वह जाकर सभी के सही हालचाल जानेंगे और जो आगे सहायता हो सकेगी वह करने का प्रयास किया जाएगा। तब भारत सरकार के अधिमान्य पीआईबी मान्यता कार्ड होल्डर पत्रकार हिन्दुस्थान समाचार के नाते आडवाणी दी पाकिस्तान गए और वहां जाकर जो-जो काम उन्हें सौंपे गए थे, वे सभी उन्होंने किए।
आडवाणी का सामाजिक जीवन पत्रकार के नाते हुआ शुरू
उन्होंने बताया कि लालकृष्ण आडवाणी के जीवन की यात्रा संघ के स्वयंसेवक के रूप में शुरू होती है, किंतु उनका पहला सामाजिक जीवन भारत सरकार के मान्यता प्राप्त भाषायी पत्रकार के रूप में ‘हिन्दुस्थान समाचार’ के माध्यम से शुरू हुआ है। आडवाणी को दिल्ली के लोग तो जानते थे, लेकिन उनकी सबसे पहले राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा तब शुरू हुई जब वे बलराज मधोक और वाजपेयी जी के बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। यहीं से उनकी अखिल भारतीय पहचान बनी। मेरा उनसे पहला संपर्क बिहार आन्दोलन के समय हुआ, तब मेरा मीसा संबंधी केस उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा था। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में ‘हिन्दुस्थान समाचार’ में रहते हुए पत्रकारिता की ट्रेनिंग के दौरान मेरा जब उनसे मिलना हुआ तो उन्होंने मेरा परिचय अपने साथ आए मधु दण्डवते से कराया और कहा कि हम लोगों ने इन्हें चुनाव लड़ाने के लिए सोचा था, लेकिन इन्होंने अपने लिए पत्रकारिता चुनी है। मेरा उनके साथ कुछ यात्राओं में भी साथ रहना हुआ।
आडवाणी के जीवन भर की पूंजी पर ये दो भूलें भारी पड़ीं
इसके साथ ही वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय उनकी कमियों को भी बताना नहीं भूलते। वे कहते हैं कि आडवाणी जी दो जगहों पर भारी भूल कर बैठे। एक तो यह कि उनके लोगों ने लॉबिंग शुरू कर दी और उन्हें यह समझाने में सफल रहे कि वे प्रधानमंत्री बन जाएं, जोकि आगे उनके कार्यों में देखने को भी मिला। दूसरी भूल पाकिस्तान यात्रा के दौरान उनका मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर जाना और फिर उससे जुड़ा वक्तव्य देना रहा, इसके कारण से अयोध्या, राममंदिर आन्दोलन को बहुत हानि हुई। राष्ट्रवादी नेता के तौर पर पहचान रखने वाले आडवाणी को पाकिस्तान में जिन्ना की प्रशंसा करना उनकी छवि के उलट माना जा सकता है।
प्राणशक्ति कमला आडवाणी
राय का कहना है कि आडवाणी की प्राणशक्ति कमला आडवाणी थीं। उनके जाने के बाद उनसे प्राणशक्ति निकल गई ऐसा प्रतीत होता है। हालांकि उनके बच्चे आज खूब देखभाल कर रहे हैं, किंतु मुझे लगता है कि यही सच है, क्योंकि अपनी पत्नी के देहावसान के बाद आडवाणी जी, ने सार्वजनिक जीवन में दिखाई देना बंद कर दिया।
अविभाजित भारत के कराची में जन्म और बाम्बे से लॉ की पढ़ाई
उल्लेखनीय है कि भाजपा के वरिष्ठ नेता और देश के सातवें उप-प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी का जन्म पाकिस्तान के कराची में आठ नवंबर, 1927 को हुआ था। अपनी आरंभिक शिक्षा उन्होंने कराची के सेंट पैट्रिक हाई स्कूल से ग्रहण की, आगे हैदराबाद, सिंध के डीजी नेशनल स्कूल में अध्ययन जारी रखा। भारत विभाजन की विभीषिका के बीच हिन्दुओं पर जिंदा बने रहने के आए भारी जीवन संकट के बीच विवशता में उनके परिवार को पाकिस्तान छोड़कर 1946 में भारत आना पड़ा था। तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक गोलवलकर गुरुजी ने पाकिस्तान में रह रहे स्वयंसेवकों से कहा था कि वे भारत के उस हिस्से में आ जाएं जहां बहुसंख्यक हिन्दू रहते हैं, वहां भविष्य में कुछ भी घट सकता है, ऐसे में आडवाणी जी के परिवार ने भी अन्य कुछ स्वयंसेवकों की तरह भारत के बहुसंख्यक हिन्दू क्षेत्र में आना ही स्वाभिमान के साथ जीवन को बनाए रखने के लिए श्रेयस्कर समझा और उनका परिवार मुंबई आकर बस गया।
आडवाणी जी ने मुंबई के लॉ कॉलेज ऑफ द बॉम्बे यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई पूरी की। मुंबई में रहते हुए ही वह संघ कार्य करते रहे और यहीं पर वे शिवराम शंकर आपटे उपाख्य दादासाहेब के संपर्क में आए और फिर पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को विशेषकर उनके जीवन में कष्टों और उसके निवारण के लिए आडवाणी ने अपनी कलम चलाई। लालकृष्ण आडवानी ने भी कई स्टोरी न्यूज एजेंसी हिन्दुस्थान समाचार के लिए फाइल कीं। तत्कालीन समय में बापूराव लेले, रामशंकर अग्निहोत्री, नारायण राव तर्टे, बालेश्वर अग्रवाल जैसे कई मूर्धन्य पत्रकारों के साथ उन्होंने कार्य किया।
लम्बे समय तक ऑर्गेनाइजर के लिए भी किया काम
उनके साथ समय बिताए और आडवाणी जी के पत्रकारिता जीवन को निकटता से देख चुके माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति, वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि, ”आडवाणी जी अपने समय के श्रेष्ठ पत्रकारों में रहे हैं। मैं जब पांचजन्य के लिए पत्रकारिता कर रहा था, उस समय वे अंग्रेजी समाचार पत्र ऑर्गेनाइजर के लिए पत्रकारिता कर रहे थे। जिस प्रकार कभी किसी ने देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से पूछा था कि आप यदि राजनीति में नहीं आते तो क्या करते? तब उन्होंने जो उत्तर दिया था कि मैं राजनीति में नहीं आता तो पत्रकार होता, यह बात आडवाणी जी के जीवन पर भी फिट बैठती है, वे भी यदि राजनीति में नहीं आते तो आजीवन पत्रकार ही रहते।”
हमेशा सत्य बोलने के पक्षधर रहे
अच्युतानंद मिश्र ने आगे बताया, ”1967 कालीकट (केरल) में जनसंघ के हुए अखिल भारतीय अधिवेशन, जिसमें कि पं. दीनदयाल उपाध्याय जी को राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया था, को कवर करने के लिए मैं जब पांचजन्य की ओर से वहां गया था तब आडवाणी जी ऑर्गेनाइजर के लिए कवरेज करने वहां पहुंचे थे।” इसके साथ ही अच्युतानंद मिश्र एक अन्य संस्मरण को सुनाते हुए बताते हैं कि इमरजेंसी के बाद जब आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री भारत सरकार रहे, तब कई पत्रकार उनसे मिलने गए थे, पत्रकारों ने जब आपातकाल के अपने अनुभव के बारे में बताया तो आडवाणी जी ने तुरंत बोला था कि मुझे मालूम है आपको कितना संकट था, जब आपको झुकने के लिए कहा गया तो आप नाक रगड़ने लगे थे। वास्तविकता यही है कि आडवाणी जी एक पत्रकार ही नहीं योग्य पत्रकार रहे और हमेशा सत्य बोलने के पक्षधर रहे। अटल-आडवाणी जी की जोड़ी भी उन दो पत्रकार मित्रों की जोड़ी रही जोकि सदैव पत्रकारों के साथ ही नहीं रहे, बल्कि समय-समय पर उनके हित में लड़ने-भिड़ने वाले पत्रकार भी रहे हैं।