संतों ने मनाया धूलोट महोत्सव, 500 वर्ष पुरानी है यह परम्परा

संतों ने मनाया धूलोट महोत्सव, 500 वर्ष पुरानी है यह परम्परा

संतों ने मनाया धूलोट महोत्सव, 500 वर्ष पुरानी है यह परम्परा

संतों ने मनाया धूलोट महोत्सव, 500 वर्ष पुरानी है यह परम्परासंतों ने मनाया धूलोट महोत्सव, 500 वर्ष पुरानी है यह परम्परा

जयपुर। धूलोट यानी धूल में लोट लगाना। यह कोई साधारण धूल नहीं, बृज क्षेत्र की धूल है, जिसे बृज रज कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने यहां लीलाएं की थीं। श्री कृष्ण और राधा रानी की चरण रज से पावन है यहां की मिट्टी। माना जाता है कि यह रज मस्तक पर लगाने मात्र से मानव मोक्ष को प्राप्त होता है। तभी तो गोवर्धन में पिछले 500 वर्षों से अधिक समय से धूलोट उत्सव मनाने की परम्परा चली आ रही है।

हाल ही 20 मई को गिरिराज महाराज की तलहटी में बने राधा कुंड में ‘मोहे बृज की धूल बना दे लाडली श्री राधे’ का भजन करते हुए संतों ने धूलोट महोत्सव मनाया। देश के विभिन्न प्रांतों से आए साधु संतों ने इस उत्सव में भाग लिया।

हाथों में झांझ—मंजीरे, मृदंग लिए संत भजन गाते एक दूसरे को बृज रज लगाते दिखाई दिए। उत्सव का प्रारंभ प्रातः बेला में श्रीपाद रघुनाथ दास गोस्वामी गद्दी के पीठाधीश्वर महंत केशव दास महाराज के निर्देशन में गायन वादन के साथ हुआ। सबसे पहले संतों ने राधा कुंड की परिक्रमा लगाई। परिक्रमा मार्ग के 18 मंदिरों में राधा-कृष्ण की लीलाओं का गायन और महिमा कीर्तन किया। इसके बाद रात्रि बेला में धूलोट से पहले राधा-गोपीनाथ से कीर्तन कर ब्रज की रज में लोट लगाने की अनुमति मांगी। देखते ही देखते ढोल, मृंदग, झांझ-मंजीरे की धुन पर साधु-संत व भक्तों ने बृज की रज में लोट लगाना शुरू कर दिया। बृज की रज में ईश्वर का वास मानते हुए इसी भाव से लोगों ने एक-दूसरे को रज लगाकर होली खेली। यह रज बृज क्षेत्र के कोने—कोने से लाकर यहां बिछाई गई थी।

धूलोट उत्सव में त्रिपुरा, असम, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, पंजाब, दिल्ली आदि प्रांतों के साथ-साथ विदेशों से आए भक्तों ने भी भाग लिया। धूलोट की रज को प्रसादी भाव में वितरित किया गया। यह बृज रज भगवान राधा-कृष्ण की लीलाओं की साक्षी है, इसीलिए भक्त ठाकुर जी के ध्यान में भाव विभोर हो इसमें लोटपोट होते नजर आए।

 

बृज रज के महत्व से जुड़ी लोक कथा
एक बार गीता नाम की एक महिला वृंदावन अपनी बड़ी बहन से मिलने गई। जब वह वापस आने लगी तो बहन ने उसे उपहार स्वरूप मिट्टी का एक घड़ा भेंट किया। उसने वह घड़ा लाकर अपने घर पर रख दिया और भूल गई। गर्मी के दिनों में जब गांव में बहुत तेज गर्मी पड़ी और पानी की किल्लत होने लगी तो गीता को याद आया कि बहन ने जो घड़ा उपहार में दिया है, उसमें पानी भर कर लाया जाए। वह कुएं से घड़ा भर कर लाई। घड़े का पानी बहुत ही ठंडा और मीठा था। उसने वही पानी अपने पति को पिलाया तो पति ने कहा ‘ऐसा मीठा पानी तो मैंने आज तक नहीं पिया। यह तो अमृत है। इसी घड़े के पानी से जब गीता ने दाल चावल बनाए तो उसकी सुगंध पूरे गांव में फैल गई। अगले दिन जब गीता पानी भरने के लिए घड़ा लेकर जाने वाली थी तो उसने देखा कि घड़ा तो पहले से ही भरा है। कुछ दिन बाद जब उसकी बहन वृंदावन से उससे मिलने आई तो उसने अपनी बहन को धन्यवाद दिया कि तुमने तो मुझे बड़ा चमत्कारी घड़ा उपहार में दिया है। इसमें भर कर लाया हुआ जल समाप्त ही नहीं हुआ और इसका पानी अमृत समान मीठा है। तब बड़ी बहन ने बताया कि यह घड़ा बृज की रज यानी वृंदावन की माटी से बना है, जिस पर साक्षात किशोरी जी और ठाकुर जी नंगे पांव चलते थे। यह घड़ा नहीं साक्षात किशोरी जी और ठाकुर जी के चरण तुम्हारे घर पड़े हैं। किशोरी जी और ठाकुर जी का ही स्वरूप तुम्हारे घर आया है।

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