छंद और अमरता का रहस्य

छंद और अमरता का रहस्य

नीलू शेखावत

छंद और अमरता का रहस्यछंद और अमरता का रहस्य

जिस पृथ्वी पर मनुष्य का निवास है उसे मृत्यु लोक कहा गया है। इस पर जन्म लेने वाले जड़-चेतन, जीव-जगत कभी न कहीं मृत्यु को प्राप्त होते ही हैं। इसलिए इसे क्षर कहा गया है। किंतु स्वर्ग में निवास करने वाली देव जाति मृत्युपाश से मुक्त है, अतः उन्हें अक्षर कहा गया।

उन्हें यह अमरता अनायास ही प्राप्त नहीं हो गयी। इसके पीछे देव जाति की सुदीर्घ तप, तितिक्षा और उपासना है जिसने उन्हें अनश्वर पद की प्राप्ति कराई।

एक समय की बात है। मृत्युदेव ने अपनी वक्र दृष्टि से देव सृष्टि को देखा। देव जाति में खलबली मच गई। मृत्यु भय से भीत देव गण प्रजापिता ब्रह्म के समक्ष उपस्थित हुए। देवों के अर्चन- वंदन से प्रसन्न हो प्रजापिता ने उनसे अपना मनोरथ प्रकट करने को कहा।

देवों ने प्रार्थना की- हे परमपिता! हमारे पास सभी प्रकार का ऐश्वर्य होने के बाद भी हमें आनंद की निरापद अनुभूति क्यों नहीं हो रही । हमें हर समय मृत्युभय क्यों सताता है? क्या इस भय से मुक्ति का कोई उपाय है?

स्वयं काल की गति में गतिशील ब्रह्मा भला उन्हें क्या आश्वासन देते?

देवों ने वेदों की शरण ली। वे त्रयी विद्या में प्रविष्ट हुए और वेदत्रयी में प्रतिपादित कर्म को अपनाया। कर्म में जिनका विनियोग नहीं है ऐसे छंदों, मंत्रों से जप एवं यज्ञादि करते हुए काल की क्रूर दृष्टि से बचने के लिए उन्होंने स्वयं को मंत्रों से आच्छादित कर लिया अर्थात् मंत्रोपासना से दीर्घायुष्य प्राप्त किया। देवों का आच्छादन बनने से ही मंत्र कालांतर में ‘छंद’ कहलाये।

किंतु मछुआरा जिस प्रकार पानी में भी मछलियों को ढूंढ लेता है, बंसी लगाने और जल उलीचने जैसे उपायों से मछली को पकड़ा जा सकता है और छिछले पानी में देख उसे हर्ष की अनुभूति होती है, उसी प्रकार कर्म परायण देवता भी काल के हर्ष का कारण बने। ऋक्, साम और यजु:संबंधी कर्मों में लगे हुए उन देवताओं को कर्मक्षय से वश में किया जा सकता है यह जानकर मृत्यु देव प्रसन्न हुए।

वैदिक कर्मानुष्ठान से शुद्ध चित हुए देवों ने मृत्यु का मनोरथ जान लिया। अब निराश देव जाति क्या करती? उन्होंने आत्मानुसंधान आरंभ किया और उसी से प्राप्त दिव्यता के बल से उन्हें स्वर (उद्गीथ/ॐकार) का ज्ञान हुआ। वे शुद्ध चित से उद्गीथोपासना में तत्पर हुए और उस परम दुर्लभ अमृत अर्थात् अमरता को प्राप्त कर लिया।

स य एत देवं विद्वानक्षरं प्रणौत्येतदेवाक्षरस्वरममृतमभयं प्रविशति तत्प्रविश्य यदमृता देवास्तदमृतो भवति। १.४.५

वह जो इस ‘अक्षर’ ॐकार की उपासना करता है, इस अमृत और अभय रूप अक्षर में ही प्रवेश कर जाता है तथा इसमें प्रविष्ट होकर जिस प्रकार देवगण अमर हो गए, उसी प्रकार अमर हो जाता है।

(छांदोग्य प्रथम अध्याय चतुर्थ खंड)

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *