लक्ष्मी बाई केलकर : एक प्रेरक व्यक्तित्व

लक्ष्मी बाई केलकर : एक प्रेरक व्यक्तित्व

डॉ. नीलप्रभा नाहर

लक्ष्मी बाई केलकर : एक प्रेरक व्यक्तित्वलक्ष्मी बाई केलकर : एक प्रेरक व्यक्तित्व

 

14 अगस्त, 1947, भारत विभाजन की त्रासदी की उस रात में कराची के घर की छत पर, एक 40 वर्षीय, श्वेत वसना , युवा, भारतीय हिन्दू महिला अपनी तेजस्वी, मातृवत्सला वाणी द्वारा 1200 सेविकाओं को संकट की घड़ी में धैर्य धारण कर अपने शील की रक्षा हेतु उनमें साहस का संचार कर रही थी। वह तेजस्वी नेत्री थीं राष्ट्र सेविका समिति की संस्थापिका लक्ष्मी बाई केलकर, जिन्हें स्नेहसिक्त संबोधन से सभी वंदनीय मौसी जी कहते थे। बीज को स्वयं नहीं पता होता है कि उसमें विशाल विटप बनने की असीम संभावनायें विद्यमान हैं। ताप और दबाव सहते हुए अंकुरण के पश्चात अनेकों विघ्न बाधाओं को झेलते हुए वह एक छायादार वृक्ष बन जाता है। जिसकी छाँव प्रत्येक व्यक्ति के लिए सहज सुलभ होती है। वंदनीय मौसी जी का जीवन भी साधारण से असाधारण हो जाने की कहानी है। 

एक साधारण गृहणी जिसे विद्यालय की औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने का कम अवसर मिला, मराठी के अतिरिक्त और किसी भाषा का बहुत ज्ञान नहीं था। जीवन में एक के बाद एक स्वजनों की असामयिक मृत्यु, आठ संतानों की भरी पूरी गृहस्थी और दो विधवाएं, जिन पर आर्थिक और सामाजिक दबाव था, लेकिन वे बीज रूप में कुशल नेतृत्व के गुणों के कारण ही राष्ट्र और हिन्दू समाज की समसामयिक परिस्थिति और समस्याओं के प्रति पूर्ण सजग और संवेदनशील थीं। स्त्रियों की दयनीय स्थिति उनके मन को व्यथित कर देती थी। मध्यकाल में घटित घटनाओं ने स्त्रियों के जीवन को सर्वाधिक प्रभावित किया था। जिसके कारण वे आत्मविस्मृति के गर्त में यूँ गिरीं कि राष्ट्र जीवन से कटती चली गईं। मौसीजी यह देखकर बहुत व्यथित होती थीं। उन्हीं दिनों वे डॉ. हेडगेवार से मिलीं और उनकी प्रेरणा से राष्ट्र सेविका समिति का गठन किया।

“कीर्ति श्री वाक्चनारीनां, स्मृतिर्मेधा धृति क्षमा।” श्रीकृष्ण द्वारा बताये इन सातों गुणों का दर्शन हमें उनके व्यक्तित्व में होता है। उनकी सहज आत्मीयता किसी को भी अपना बना लेती थी। नूतन प्रयास व प्रयोग करने से भी वे हिचकती नहीं थीं। फिर भाषण देना सीखना हो या बौद्धिक क्षमता बढ़ाने हेतु विभिन्न ग्रंथों का पठन, साइकिल चलाना सीखना हो या तैराकी, वे सब कुछ पूरे मन से करती थीं। स्वाध्याय उनकी विशेषता थी, राम कथा उन्होंने किसी एक पुस्तक से नहीं वरन् अलग अलग स्रोतों से पढ़ी। अपनी गृहस्थी व समाज कार्य में संतुलन किस प्रकार किया जाता है, उनका जीवन इसका प्रमाण है। अपनी सगी बहिन सदृश्य उमा काकू की मृत्यु उपरांत भी अगले दिन समिति स्थल पर उपस्थित होना सेविकाओं के लिये सदा प्रेरणादायी रहेगा। अपने गृहकार्यों में सहयोग हेतु हरिजन महिला को रखना एक क्रांतिकारी कदम और सामाजिक समरसता का उत्कृष्ट उदाहरण था। जौहरी की तरह पारखी उनकी आँखें, सेविकाओं में छिपे गुणों को पहचान लेती थीं। एक कुशल शिल्पकार की भाँति वे संगठन को गढ़ रही थीं। नयी नयी योजना कर बहिनों को संगठित करतीं फिर चाहे शाखा हो, वर्ग या सम्मेलन करना हो। सेविकाओं में नैतिकता व कर्तव्य बोध हो इस हेतु प्रयास कर प्रार्थना, नित्य स्मरण की रचना करवाई। देवी अष्टभुजा की कल्पना को मूर्त रूप दिया। मातृत्व, कर्तृत्व और नेतृत्व के तीन आदर्श सेविकाओं के सामने रखे। वे परिस्थिति का मूल्यांकन कर दूरदर्शिता से निर्णय लेने की नैसर्गिक प्रतिभा की धनी थीं, पर निर्णय सामूहिकता से विचार करके लेती थीं। विनम्र इतनी की अपने से छोटी वय की सेविकाओं की बात भी ध्यान से सुनतीं और मान्य होती तो अपनाने में संकोच नहीं करतीं। 

चूँकि तत्कालीन भारतीय समाज में राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां बहुत तेज़ी से बदल रही थीं, ऐसे में त्वरित गति से निर्णय लेकर उस पर अडिग रहने वाला व्यक्ति ही संगठन का हित कर सकता है। अपने निर्णयों को बार बार बदलने वाले अनुगामी को असमंजस की स्थिति में डाल देते हैं। “गांधी जी द्वारा किए गए असहयोग आंदोलन में राष्ट्र सेविका समिति अपने नाम से भाग नहीं लेगी पर सेविकाएँ स्वयं निजी तौर पर भाग लेने को स्वतंत्र हैं।“ इस प्रकार का स्पष्ट निर्णय हुआ क्योंकि यह राष्ट्रीय आंदोलन था और सेविकाएँ इससे अलिप्त नहीं रह सकती थीं, पर संगठन अभी सुदृढ़ स्थिति में नहीं था। अतः राष्ट्र सेविका समिति स्वयं इस आंदोलन का भाग नहीं बन सकती थी। इसी प्रकार महात्मा गाँधी जी की हत्या के पश्चात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा। उस समय लगभग सभी हिन्दू संगठनों के कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारियों का क्रम चल रहा था। ऐसे में प्रत्यक्षतः समिति का कार्य बंद करने का निर्णय हुआ, किंतु भजन कीर्तन आदि माध्यमों से सेविकाओं का एकत्रीकरण होता रहा। विपरीत परिस्थितियों में भी किस प्रकार बैठक आयोजित कर रणनीति बनानी चाहिए, यह उनसे सीखा जा सकता है। अपने पुत्र दिनकर के विवाह की निमंत्रण पत्रिका उन्होंने स्वयं लिखी, जिसके पृष्ठ भाग में सेविकाओं हेतु निर्देश लिखे थे, कहना ना होगा उनके पुत्र का विवाह समारोह अखिल भारतीय बैठक के रूप में बदल गया। कालांतर में राजनीतिक दुश्चक्रों के कारण समिति कार्य कई बार प्रभावित हुआ, किंतु नदी की धारा को कौन रोक सका है, वह नये मार्ग खोज ही लेती है। 

सेविकाओं से आत्मीय संपर्क उनके स्वभाव में था। पत्र व प्रवास ये दो ही माध्यम थे, जिनका उन्होंने भरपूर उपयोग किया। सेविका विवाह के पश्चात जिस शहर में जाती, वहाँ की सेविकाओं को इसकी सूचना के साथ उस बहिन से संपर्क के निर्देश रहते, जिससे उस बहिन को मायके जैसी अनुभूति होती और समिति कार्य से वह पुनः जुड़ जाती। इस प्रकार के सूचना तंत्र को बनाने का कार्य एक कुशल नेतृत्व का ही परिचायक है। संगठन के कार्यों को गति देने, समाज के विभिन्न वर्गों की बहिनों से संपर्क स्थापित हो और उनको भी राष्ट्रीयता के संस्कार दिए जा सकें, इस हेतु नये नये प्रयोग जैसे बाल मंदिर, उद्योग मंदिर, रामायण प्रवचन, गृहणी विद्यालय, प्रदर्शनी आदि करती ही रहती थीं। 

सेविकाओं की एक आत्मीय प्रार्थना पर, आसुरी तांडव के समय (14 अगस्त 1947, भारत विभाजन) भी एक पल में पाकिस्तान जाने का निर्णय कर उन्होंने मानों कुशल नेत्री की अग्निपरीक्षा दी थी।

मौसी जी द्वारा स्थापित राष्ट्र सेविका समिति आज महिलाओं का सबसे बड़ा संगठन है। 

6 जुलाई 1905 को कमल के रूप में जन्म लेने वाली मौसी जी, 27 नवम्बर 1978 को राष्ट्र लक्ष्मी के रूप में विदा हुईं। ऐसी महान नेत्री की स्मृतियाँ हमें सदा प्रेरित करती रहेंगी।

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