क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त : स्‍वाधीनता के बाद आजीविका चलाने के लिये कभी गाइड बने तो कभी सिगरेट कंपनी के एजेंट

क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त : स्‍वाधीनता के बाद आजीविका चलाने के लिये कभी गाइड बने तो कभी सिगरेट कंपनी के एजेंट

रमेश शर्मा 

इतिहास स्मृति/ 20 जुलाई 1965/ सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त का निधन

क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त : स्‍वाधीनता के बाद आजीविका चलाने के लिये कभी गाइड बने तो कभी सिगरेट कंपनी के एजेंटक्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त : स्‍वाधीनता के बाद आजीविका चलाने के लिये कभी गाइड बने तो कभी सिगरेट कंपनी के एजेंट

भारतीय इतिहास में कुछ ऐसे प्रसंग हैं, जिन्हें पढ़कर आँखें शर्म से झुक जाती हैं। जिन लोगों ने हमें स्वतंत्र बनाने के लिये अपना जीवन न्योछावर किया, अंग्रेजों की अमानवीय यातनाएं सहीं, उनके साथ स्वाधीनता के बाद भी अमानवीय व्यवहार हुआ। इनमें से एक हैं सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त। जिन्हें स्वाधीन भारत में भी आजीविका के लिये भीषण संघर्ष करना पड़ा। परिवार चलाने के लिये कभी गाइड बने तो कभी सिगरेट कंपनी के एजेंट। हद तो तब हुई जब पटना कलेक्टर ने उनसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने का प्रमाण पत्र माँगा।

सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को बंगाल के वर्धमान जिले में हुआ था। बचपन से उनमें राष्ट्र और संस्कृति के लिये प्रेम था। यह भाव उनको पारिवारिक विरासत में मिला। उनके कई नाम थे। बटुकेश्वर दत्त के अतिरिक्त मोहन और बट्टू उनके बचपन का नाम थे। पिता बिहारी दत्त समाज सेवा से जुड़े थे और माता कामिनी देवी अपनी परंपराओं से जुड़ी घरेलू महिला थीं। जब बटुकेश्वर बहुत छोटे थे, तब परिवार कानपुर आ गया था। इसीलिए इनका बचपन कानपुर में बीता। वे जब हाईस्कूल में पढ़ाई कर रहे थे, तभी इनका संपर्क क्राँतिकारी गतिविधियों से जुड़े सुरेंद्रनाथ पांडे और विजय कुमार सिन्हा से हुआ। और वे क्राँतिकारी गतिविधियों से जुड़ गये। एक तो परिवार की पृष्ठभूमि भारतीय समाज और परंपराओं से जुड़ी थी, दूसरे बचपन की एक घटना ने उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध कर दिया था। 

यह घटना कानपुर के मॉल रोड की थी। इस रोड पर अंग्रेज सिपाही ने एक मासूम बच्चे को इसलिए बुरी तरह पीटा कि वह उस सड़क पर चला गया था जहां भारतीयों को चलने की मनाही थी। इस घटना ने बटुकेश्वर दत्त को बुरी तरह झकझोर दिया और जब क्राँतिकारी आँदोलन से जुड़ने का अवसर आया तो उत्साह से सक्रिय हो गये। 

भगत सिंह से संपर्क और मित्रता 

उन दिनों कानपुर क्रान्ति का एक प्रमुख केन्द्र था और समाचार पत्र “प्रताप” इन क्राँतिकारियों का संपर्क केन्द्र था। समय के साथ बटुकेश्वर दत्त का संपर्क प्रताप के संपादक सुरेशचंद्र भट्टाचार्य से बना और उनके माध्यम से वे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े और यहीं उनकी मित्रता सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी भगत सिंह से हुई और 1924 में चंद्रशेखर आजाद से मिले। काकोरी कांड के बाद हुई गिरफ्तारियों के चलते वे कानपुर से यहाँ वहाँ घूमते रहे। बटुकेश्वर दत्त पहले बिहार और फिर कलकत्ता गये। 1927 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रखा गया। एसोसिएशन ने बटुकेश्वर दत्त को बम बनाने का प्रशिक्षण दिया। थोड़े समय में ही बटुकेश्वर दत्त बहुत उत्कृष्ट बन बनाना सीख गये। उस दौर के क्राँतिकारी आँदोलन में अधिकांश बम या तो बटुकेश्वर दत्त के बनाये होते थे अथवा उनके द्वारा प्रशिक्षित युवाओं द्वारा। 1929 में हुये असेम्बली बम कांड में वे सरदार भगतसिंह के साथ बंदी बनाये गये। भगतसिंह को फाँसी की सजा हुई और बटुकेश्वर को उम्रकैद। उम्रकैद की सजा के लिये उन्हें पहले कालापानी भेजा गया। फिर हजारीबाग, दिल्ली और बांकीपुर जेल। जेल में उन्हें क्रूरतम प्रताड़ना मिली, जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। इस कारण 1938 में इस शर्त पर कि वो किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं लेंगे, रिहा कर दिये गये। बटुकेश्वर दत्त ने यह लिखकर तो दिया पर जेल से रिहा होकर गांधीजी के अहिंसक आँदोलन से जुड़ गये और 1942 बंदी बनाये गये। आँदोलन समाप्त होने के बाद सभी आँदोलनकारी रिहा हुए पर बटुकेश्वर दत्त को रिहाई नहीं मिली। वे 1945 में रिहा हुए। स्वतंत्रता के बाद उन्होंने विवाह किया और पटना आ गये। यहाँ उन्होंने आजीविका के लिये कठोर संघर्ष किया। कभी गाइड बने और कभी सिगरेट कंपनी के एजेंट। यही नहीं कलेक्टर ने उनसे स्वाधीनता संग्राम सेनानी होने का प्रमाणपत्र भी माँगा। 1958 में पहली बार उन्हें सम्मान मिला और वे विधान परिषद के सदस्य मनोनीत किये गए, पर जल्दी ही बीमारी ने उन्हें जकड़ लिया। इलाज के लिये बिहार से दिल्ली लाया गया। पर बीमारी ने पीछा न छोड़ा और 20 जुलाई 1965 को उन्होंने अपने जीवन की सांस ली।

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