मृत्यु से जीवन की ओर….

मृत्यु से जीवन की ओर….

नीलप्रभा नाहर

मृत्यु से जीवन की ओर….मृत्यु से जीवन की ओर….

बहुत ही भारी कदमों से हमने घर की ओर कदम बढ़ाये। चाबी के लिए अपने पति मुकेश की ओर मैंने अपना हाथ बढ़ाया। हाथों में रची मेहंदी मुझे आज अंगार लग रही थी। काश! काश! हमने सूर्या की बात न मानी होती। न विवाह की सिल्वर जुबली यूँ धूमधाम से मनाने की सोचते, न वो यहाँ आता। घर का ताला खोल हम दोनों भीतर दाखिल हुए। सजा घर आज शूल की तरह चुभ रहा था। आयु के हर पड़ाव पर अपने आपको युवा अनुभव करने वाले हम, बस चार दिनों में ही बूढ़े हो गए थे। दोनों निढाल से बिस्तर पर गिर पड़े। हाँ! बस चार दिन पहले की ही तो बात थी। अपने मम्मी पापा के विवाह को देखने की उसकी बचपन की ज़िद ने उन्हें विवाह की पच्चीसवीं सालगिरह मनाने पर विवश कर दिया था। स्वयं फेरे खाने लायक़ हो गया था, पर मम्मी पापा के फेरे देखने की कैसी उमंग थी उसमें। नियति का कैसा निर्दयी खेल! वो घर भी नहीं पहुँच पाया। एक फ़ोन आया था बस, तुरंत हॉस्पिटल पहुँचने का। सूर्या का एक्सीडेंट हुआ था। बदहवास से सभी हॉस्पिटल पहुँच गये थे। पूरे कुनबे को इकट्ठा करने वाला बस गहरी नींद में सोया हुआ था। आईसीयू के डॉक्टर्स पूरी जी जान से जुटे थे। एक के बाद एक जाँचें हो रही थीं, हम दोनों बस यंत्रवत देखे जा रहे थे। मॉनिटर की बीप में जीवन की आस ढूँढ रहे थे कि, दो दिन के अथक प्रयास के बाद आख़िर डॉक्टर ने कहा “हम प्रयास कर रहे हैं पर आशा बहुत कम है।“ डॉक्टर भी क्या करें, उनका चिकित्सकीय अनुभव उन्हें बता चुका था कि बस अब जीवन समाप्त पर किसी को इतना बड़ा सदमा झेलने के लिए वे मानसिक तैयारी करवाते हैं। उसके बाद के दो दिन तो और भी कष्ट कारक थे। पर आज सब कुछ साफ़ हो चला था। बेटे को यूँ छोड़ कर आने का मन नहीं था, पर सभी भाई बहिनों ने उसकी ही क़समें देकर घर भेज दिया था। सूर्या को ब्रेन डेड घोषित किया जा चुका था और उसके अंगों को निकालने की प्रक्रिया भी अब तक शायद प्रारंभ हो गई होगी।

कितना मुश्किल होता है यह विश्वास करना कि अब वो जीवित नहीं है, जबकि उसका दिल धड़क रहा था, मशीन की सहायता से ही सही, पर साँसें चल रही थीं। तो क्या प्राण निकलने के बाद भी दिल धड़कता रहता है? पर डॉक्टर इसका मॉनिटर तो चल रहा है, यह ईसी जी? ये भी तो सीधी नहीं हुई। मैं लगभग चीख पड़ी थी। जो कुछ डॉक्टर कह रहे थे, वह मेरी समझ से परे था। पर आख़िर डॉक्टर और मुकेश ने मुझे समझा ही दिया कि ब्रेन डेड क्या होता है। यह वह समय होता है जब अंग दान किया जा सकता है। भावों की लहरों में डूबते उतरते पूरा दिन निकल गया। मुकेश भी एक बार तो छटपटा गये थे। कैसे निकालने दूँ मैं उसके अंगों को? शरीर तो खंडित हो जाएगा। भावों की लहरें बुद्धि से टकरा रही थीं। गीता का ज्ञान न जाने कहाँ लोप हो गया था। परिस्थिति के आगे ज्ञानी ध्यानी भी कैसे विवश हो जाते हैं। 

मुकेश! मुकेश! क्या सचमुच सूर्या का ब्रेनडेड हो गया था? कहीं डॉक्टर्स ने गलती तो नहीं की होगी। मानसी, विश्वास करना ही पड़ेगा, डॉक्टर्स पूरी ज़िम्मेदारी से सारे टेस्ट करते हैं। बहुत सावधान रहते हैं वे। मुकेश परिस्थिति को स्वीकार कर चुके थे और उनकी बुद्धि भावों के साथ मिल कर अपने बेटे के अंगदान का निर्णय ले चुकी थी। पूरे एक दिन से वो मुझे समझाने का प्रयास कर रहे थे कि आत्मा के निकल जाने के बाद इससे बढ़िया क्या हो सकता है कि वो दूसरों को जीवन दे पाये। वो ठहरे स्थितप्रज्ञ, इसलिए शायद सो गये। पर मेरी आँखों में नींद नहीं थी। सूर्या की तस्वीर को सीने से लगाए मेरी बंद आँखों से आँसू ढलक रहे थे और मेरे बालों को भिगोये जा रहे थे। सूर्या को मेरे गीले बाल कभी पसंद नहीं आते थे। उसे जन्म देना मेरे लिये कैसा सौभाग्य था। नटखट कान्हा, मेरा बाबू, गुड्डू जाने किन किन नामों से मैं उसे पुकारती थी। पर उसे सूर्या नाम सबसे अधिक पसंद था। “माँ! मेरा यह नाम किसने रखा?“ एक दिन उसने पूछा था। तुम्हारे पापा ने, वे कहते थे सूर्य की तरह ही मेरा बेटा तप कर दूसरों का जीवन रोशन करेगा। हाँ सही तो है। एक नहीं आठ आठ जीवन रोशन करेगा वो। “माँ! फिर तुम क्यों विचलित हो रही हो। तुम्हारी यादों में मैं सदा ही रहूँगा और उनकी दुआओं में भी, जिन्हें मेरे इस शरीर से जीवन मिलेगा, जो तुम्हारा ही दिया हुआ है।” मानों तस्वीर में बैठा सूर्या बोल पड़ा। मैंने उसकी तस्वीर को कस कर भींच लिया। खिड़की से सूर्य की अरुणिमा झांक रही थी। परदा हटा कर मैंने बाहर झाँक कर देखा, बाल सूर्य के रूप में मेरा सूर्या मुस्कुरा रहा था। अब यही मेरा सहारा था। उसकी मृत्यु भी सार्थक हो गई थी। वो पुनः जीवित हो रहा था ……।

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