बाबा रामदेव का प्रसिद्ध रामदेवरा मेला
कन्हैया लाल चतुर्वेदी
बाबा रामदेव का प्रसिद्ध रामदेवरा मेला
युगाब्द 4264 (ईस्वी 1162) में सम्राट पृथ्वीराज चौहान के परास्त होने के बाद दिल्ली में मुस्लिम सुल्तानों की सत्ता स्थापित हो गई। उस समय भी भारत में छोटे-छोटे राज्य बने हुए थे। दिल्ली में जमे सुल्तानों ने राज्यों की आपसी फूट का लाभ उठाकर छल-बल से पूरे उत्तरी भारत में अपने पैर पसारने शुरू कर दिए। इसी के साथ मन्दिरों का विध्वंस तथा भारतीय समाज का इस्लामीकरण भी जोरों से प्रारम्भ हो गया। दिल्ली के मुस्लिम सुल्तानों की बढ़ती ताकत से हिन्दू समाज पर दो तरह के परिणाम हुए। एक तो समाज का मनोबल कुछ टूटने लगा तथा समाज में कट्टरता बढ़ने लगी। विदेशी आक्रमणकारियों को ‘म्लेच्छ’ मानने के साथ अपने ही समाज के कुछ वर्गों को भी अस्पृश्य माना जाने लगा। समाज की इस हताशा की स्थिति को दूर करना तथा विदेशी आक्रमणकारियों के आतंक के बीच समाज का मनोबल बनाए रखना उस समय अत्यंत आवश्यक था। चार सौ वर्षों के पठान, अफगान, तुर्क, तातार, मुगल आदि आक्रमणकारियों से संघर्ष के काल में इस काम का बीड़ा उठाया भक्त कवियों, संन्यासियों, धर्माचार्यों तथा देश के स्वातंत्र्य के लिए संघर्ष करने वाले योद्धाओं ने। ऐसे ही एक महापुरुष में पश्चिमी भारत के मारवाड़ प्रदेश में जन्मे बाबा रामदेव, जो एक वीर योद्धा, उत्कृष्ट योगी तथा भक्त कवि के साथ-साथ क्रांतिकारी समाज-सुधारक होने के कारण लोक देवता और पूरे पश्चिमी भारत के जन जन के श्रद्धा केन्द्र बन गए।
पुत्र के पैर पालने में ही
रामदेव जी का जन्म जैसलमेर जिले के पोकरण के पास रुणीचा गाँव (अब रामदेवरा के नाम से प्रसिद्ध) में भाद्रपद शुक्ल द्वितीया (दोज) को हुआ। उनके जन्म के वर्ष के बारे में इतिहासकारों में मतभेद है। उनके चित्रों में विक्रमी संवत् 1462 या 1465 उनके जन्म का वर्ष बताया गया है। बाबा रामदेव पर काफी शोध करने वाले डॉ. सोनाराम विश्नोई के अनुसार युगाब्द 4454 (विक्रमी 1406) उनके जन्म का वर्ष है। रुणीचा के तंवर वंशीय ठाकुर अजमाल के कोई संतान नहीं थी। अजमाल जी और उनकी पत्नी मैणादे के काफी समय तक श्रीकृष्ण की आराधना करने के बाद उनके दो पुत्र बीरमदेव तथा रामदेव हुए। भगवान द्वारिकाधीश की तपस्या के फलस्वरूप जन्म लेने के कारण लोक कथाओं में दोनों भाइयों को बलराम और कृष्ण का अवतार माना गया।
कुछ बड़े होते ही गुरु बालकनाथ के दिशा-निर्देशन में दोनों भाइयों की शिक्षा- दीक्षा शुरु हुई। इतिहास, धर्म दर्शन आदि के साथ अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा भी दोनों बालक लेने लगे। इन सब विषयों के साथ रामदेव की योग-साधना में भी गहन रुचि थी। बाल्यावस्था में ही वे ध्यान करने बैठते तो घंटों उसी स्थिति में बैठे रहते। विभिन्न विषयों के ज्ञान के साथ-साथ रामदेव को देश-काल की परिस्थितियों का ज्ञान भी हो रहा था। मुस्लिम आक्रमणकारियों के कारण देश पर आया संकट तथा हिन्दू- समाज का बिखराव उन्हें समझ में आ रहा था। तलवार और लालच के जोर पर हिन्दू- समाज के एक वर्ग का तेजी से मुसलमान बनना भी उन्हें अशुभ और चिन्ताजनक लग रहा था। अध्ययन के साथ-साथ वे इन सारी स्थितियों का भी चिंतन कर रहे थे। उस समय समाज में व्याप्त ऊँच-नीच और छुआ-छूत के भाव को रामदेव ने बिखराव का कारण माना। इसे मिटाने के लिए तुरन्त कोई पहल करने की जरुरत भी उन्हें महसूस हुई। इसलिए उन्होंने उस समय अछूत और पिछडे माने जाने वाले वर्ग के बालकों से मित्रता करनी शुरु कर दी। हरसू और पाबू भी इस काम में उनके सहयोगी बन गए। धीरे- धीरे रामदेव के साथ सामाजिक समरसता के लक्ष्य को लेकर चलने वाला एक समूह खड़ा हो गया।
तांत्रिक
भैरव का वध करने से रामदेव की एक योद्धा और सिद्ध के रूप में प्रसिद्धि दूर दूर तक हो गई। रामदेव ने भैरव के आतंक से उजडे पोकरण को पुनः आबाद कर दिया।
‘जम्मा-जागरण’ अभियान
भैरव-वध के बाद रामदेव जी का ऐसा सिक्का जमा कि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भी उनके भय से आस-पास के पूरे इलाके में लूटपाट बन्द कर दी। अब रामदेव जी ने शोषण और भेदभाव के विरुद्ध जन-जागरण शुरु किया। जाति-व्यवस्था पर वे कड़ा प्रहार करते और हरिजनों को गले का हार, हीरे मोती और मूंगा बताते। वे कहते-
“हरिजन म्हारे हार हियेरा,
मोयौं मूंगा कहावे म्हारो लाल”
दिन में वे किसी गाँव में जाते और अछूत कहे जाने वाले व्यक्ति के घर पर ही ठहरते। रात में भजन-कीर्तन के लिए लोगों को इकट्ठा करते और भजनों के द्वारा हिन्दू समाज की एकता और सुदृढ़ता पर बल देते। रात के इस समागम को उन्होंने जम्मा जागरण नाम दिया। उनके इस अभियान से पिछड़े माने जाने वाले लोगों का आत्म विश्वास जगा, उन्हें समाज में अपना बराबरी का स्थान मिलने लगा और वे रामदेव के भक्त हो गए। रामदेव भी अब बाबा रामदेव के नाम से विख्यात हो गए। उनके इस जन जागरण अभियान में उनके बाल-मित्र पूरा सहयोग कर रहे थे। मातृ-वर्ग में भी जागृति लाने के लिए उन्होंने मेघवाल जाति की डाली बाई को अपनी धर्म-बहिन बनाकर आगे किया। बाबा रामदेव की बहिन की बात भला कौन नहीं मानता?
बाबा रामदेव के इस अभियान का चमत्कारी परिणाम हुआ। समाज में न केवल शोषण के खिलाफ मजबूती से आवाज उठने लगी, बल्कि पिछड़े माने जाने वालों के साथ मी सम्मान का व्यवहार होने लगा। इसका एक सुपरिणाम यह भी हुआ कि हिन्दू समाज के लोगों के इस्लामीकरण की जो प्रक्रिया तेजी से चल पड़ी थी, उन पर एकदम से रोक लग गई। पश्चिमी भारत में उस काल में मात्र रोकने में सबसे प्रभावी भूमिका बाबा रामदेव और पाबूजी राठौड़ ने ही निभाई।
पृष्ठतः सशरम् धनुः
अच्छे सिद्धान्तों को दुनिया तब तक मानती जब तक उनके पीछे शक्ति न हो। बाबा रामदेव धर्म जागरण के लिए एक संगठन खड़ा कर सके तथा भेदभाव मिटाने के उनके आह्वान को लोगों ने माना, यह इसीलिए हो सका कि वे योग-बल से प्राप्त आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न थे। फिर भी उनका उपहास करने वालों की कमी नहीं थी। हरिजनों के बीच उनका उठना-बैठना, उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार का प्रयत्न करना कई लोगों को सुहा नहीं रहा था। ऐसे ही लोगों में उनके बहनोई पुंगलगढ़ के पडिहार राव विजय सिंह भी थे। बाबा रामदेव की बहिन सुगना बाई का विवाह उनसे हुआ था। बाबा रामदेव का विवाह जब अमरकोट की राजकुमारी से तय हो गया तो विवाह में आने के लिए दोनों बहिनों को भी न्यौता भेजा गया। एक बहिन तो आ गई, पर सुगना बाई के ससुराल वालों ने उसे नहीं भेजा। पुंगलगढ़ के पडिहारों को बाबा रामदेव का नीच समझे जाने वाले लोगों में आना-जाना अच्छा नहीं लगता था। बाबा रामदेव के जो सहयोगी उस क्षेत्र में जम्मा-जागरण के लिए गए थे उन्हें भी मार-पीटकर भगा दिया गया था। बहिन की ससुराल होने के कारण मर्यादा का पालन करते हुए अभी तक रामदेव जी यह सब चुपचाप देख रहे थे, लेकिन जब उनके विवाह का न्यौता देने गए उनके सर्वप्रिय सहयोगी रतना राईका को ही पुंगलगढ़ में कैद कर लिया हैं। गया, तो उन्होंने शठ को शठता से समझाने का निश्चय किया। रतना राईका के बन्दी बनने का समाचार मिलते ही रामदेव जी ने सेना सजाई और पुंगलगढ़ पर चढ़ाई कर दी। पडिहारों ने भी युद्ध का डंका बजा दिया। घमासान युद्ध में पडिहारों को मुँह की खानी पड़ी। बाबा रामदेव ने अपने बहनोई को जीवित ही न छोड़ा, उसे सभी सभाया। कला के कार्य का महत्व भी सुयाधाया। फलस्वरूप बाबा रामदेव का अनुयायी बन गया।
परावर्तन के अग्रदूत
विवाह के बाद भी उनका ‘जम्मा. जागरण’ अभियान लगातार चलता खा। बाबा रामदेव का महल तो सामाजिक, समरसता का जीता-जागता उदाहरण बना हुआ था। हिन्दू समाज के इस्लामीकरण क रोकने के साथ-साथ उन्होंने ‘परावर्तन (मुसलमान बने हिन्दुओं की शुद्धि) का अभियान भी शुरु कर दिया। दिन-रात बिन् रुके परिश्रम करने से उनकी वज्र सी काया है थकने लगी थी। अपना जीवन-लक्ष्य पूर होता देख अब उन्होंने शरीर छोडने का मर बनाया। भाद्रपद शुक्ल एकादशी को वे रुणीचा के रामसागर की पाल पर समाधि लगाकर हैर गए तथा योग-बल से अनन्त में विलीन गए। डॉ. सोनाराम ने इसे वि.सं. १४४२ का वर्ष बताया है। उनके साथ उनकी धर्म-बहिन डाली बाई ने भी समाधि ले ली।
बाबा रामदेव जी का मेला
रामदेव जी का मुख्य मेला (रामदेवरा) रूणीचा में लगता है। (रामदेवरा) रूणीचा बाबा रामदेव की कर्मस्थली रही है। यहाँ रामदेव जी के समाधि स्थल पर रामदेव जी का भव्य मन्दिर बना हुआ है। यह स्थान पोकरण (भारत के नाभिकीय परीक्षण का स्थान, जैसलमेर जिला) से १३ किलोमीटर दूर है। यहाँ प्रतिवर्ष माघ व भादवे में मेले भरते हैं। भाद्रपद शुक्ला द्वितीया से एकादशी तक यहाँ बड़ा मेला लगता है, जिसमें श्रद्धालु भारत के कोने-कोने से बाबा के दर्शनार्थ आते हैं।
यह भारत के सबसे बड़े मेलों में से एक है। विशाल जनसमूह, विस्तृत क्षेत्र में पसरी दुकानें, नाचते गाते भोपा-भोपी, कामड़ियों का तेरहताली नृत्य, रंग-बिरंगी विविध राजस्थानी पोशाकों से सुसज्जित यह मेला राजस्थानी समृद्ध संस्कृति की सुन्दर झाँकी प्रस्तुत करता है। मनौती पूर्ण होने पर लोग यहाँ पैदल आकर भी दर्शन करते हैं। बोल रामसापीर की जय, खम्मा हो घणी रूणीचा रा धणिया के बोल और दर्शनार्थियों का उत्साह मेले में भक्ति का अद्भुत दृश्य उपस्थित कर देते हैं। इस मेले में राजस्थान के अतिरिक्त गुजरात, मालवा व अन्य दूरस्थ प्रदेशों से भी भक्त बाबा रामदेव का आशीष पाने आते हैं। इस अवसर पर बाबा रामदेव जी के दर्शन के लिए भक्त लम्बी-लम्बी कतारों में घण्टों खड़े रहते हैं। श्रद्धालु रामदेव जी की समाधिस्थल के निकट ही बने रामसरोवर में स्नान करते हैं और इस सरोवर के पास बनी हुई एक बावड़ी के जल को ग्रहण करते हैं।
मेला परिसर में ही जगह-जगह बाबा की कथाएँ भी होती हैं, जिन्हें श्रद्धालु बड़े ही भक्ति भाव से सुनते हैं। मेले में दूर-दूर से व्यापारी आ कर अपनी दुकानें लगाते हैं। यात्रियों के आवास हेतु अनेक धर्मशालाएँ हैं। प्रशासन की व्यवस्थाओं व जनसहयोग से मेले की सभी व्यवस्थाएँ बड़े सुचारू रूप से सम्पन्न हो जाती है।
इसके अतिरिक्त भी रामदेव जी के अन्य मेले राजस्थान और गुजरात के अनेक स्थानों पर लगते हैं। इन में से कुछ निम्न हैं-
भाकरवासी का रामदेव जी का मेला
राजस्थान के सीकर जिले के गाँव माकरवासी में गत १०५ वर्षों से निरन्तर बाबा रामदेव जी का मेला लगता आ रहा है। यह मेला हर वर्ष भाद्रपद सुदी दशमी को लगता है।
इस मेले के इतिहास के विषय में कहा जाता है कि ग्राम भाकरवासी में लालदास नाम का एक ग्वाला रहता था। एक बार भाद्रपद शुक्ल दशमी को बाबा रामदेव एक घुड़सवार के रूप में लालदास के पास आये और उन्होंने लालदास से बकरियों का दूध माँगा। लालदास की कोई भी बकरी उस समय दूध नहीं दे रही थी अतः उसने असमर्थता जताई। घुड़सवार ने एक पात्र लालदास को दिया और बकरी से दूध निकालने का आग्रह करने लगा। उसके आग्रह पर लालदास ने एक छोटी व अनब्याही बकरी पर ही दूध निकालने का उपक्रम किया। परन्तु बकरी के थनों से स्वयमेव दूध बहने लगा और पात्र भर गया। तब रामदेव जी ने अपना परिचय दिया और कहा कि अपने घर के बाहर की कुरड़ी (कचरा डालने के स्थान) की खुदाई करो, वहाँ तुम्हें मेरी मूर्ति मिलेगी, वहीं एक छोटा सा मन्दिर बनाओ और मेरी पूजा करो।
उपरोक्त स्थान पर मूर्ति प्राप्त हुई व व लालदास जी मन्दिर बना कर उनकी पूजा करने लगे। आज भी लालदास जी के वंशज ही मन्दिर के पुजारी हैं। बाद में रामदेव जी ने कई अन्य लोगों को भी यहाँ अपना पर्चा (परिचय) दिया एवम् अनेकों के कष्टों को भी दूर किया।
यह मेला भाद्रपद शुक्ला नवमी से एकादशी की शाम तक चलता है। मेले में आसपास के साठ-सत्तर गाँवों के लोग सम्मिलित होते हैं। मेले में विविध खेल-कूद एवम् सांस्कृतिक आयोजन होते हैं। मेले का प्रबन्धन ‘मेला प्रबन्ध समिति’ प्रशासन व जनसहयोग से करती है।
बराठिया का मन्दिर
अजमेर जिले के अन्तर्गत गाँव बर के पास भी खम्भों पर रामदेवजी का एक विशाल मन्दिर निर्मित है। जहाँ पर भादवा सु. ११ को मेला लगता है।
रामदेव धाम सुरता खेड़ा
के ग्राम भव्य चित्तौड़गढ़ जिले की पंचायत आकोला सुरता खेड़ा में श्री रामदेव जी का एक मन्दिर बना हुआ है, जहाँ पर माद्रपद शुक्ला एकम् से त्रिदिवसीय मेला भरता है। आस-पास के श्रद्धालु हजारों की संख्या में बाबा के दर्शनार्थ आते हैं, रात्रि में कथा, कीर्तन व भजनों आदि के सांस्कृतिक कार्यक्रम रखे जाते हैं।
नवानिया रामदेव जी का मन्दिर
यहाँ भी रामदेव का मन्दिर निर्मित है। भाद्रपद मास में यहाँ भी रामदेव जी का मेला भरता है। इसके अलावा भी अनेक स्थानों पर रामदेव जी के मेले लगते हैं, जिनमें भाग ले कर श्रद्धालु अपने आराध्य के प्रति अपना समर्पण व्यक्त करते हैं।
रामदेव जी के ये मेले उनके विशाल श्रद्धालु वर्ग को समवेत एकत्रित होने का अच्छा अवसर प्रदान करते हैं। सामाजिक सांस्कृतिक एकता के भाव के प्रसार के भी ये श्रेष्ठ कारक सिद्ध हुए हैं।