बेबसी और विवशता की उपज है त्यागपत्र की घोषणा

बेबसी और विवशता की उपज है त्यागपत्र की घोषणा

अजय सेतिया

बेबसी और विवशता की उपज है त्यागपत्र की घोषणाबेबसी और विवशता की उपज है त्यागपत्र की घोषणा

जमानत पर बाहर आने के बाद अरविन्द केजरीवाल ने नैतिकता का नया चोला पहन लिया है। जमानत में लगी शर्तों के कारण वह मुख्यमंत्री तो रह नहीं गए थे, क्योंकि उनसे सारे अधिकार छीन लिए गए थे। इसलिए उन्होंने नया दांव चला है कि वह तब तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठेंगे, जब तक दिल्ली की जनता उन पर लगे आरोपों पर निर्णय नहीं सुनाती। छह महीनों के लगभग जेल में रहने के बावजूद उन्होंने मुख्यमंत्री पद से नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र नहीं दिया था। अब जब उनसे मुख्यमंत्री के सारे अधिकार छीन लिए गए तो उन्होंने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने का निर्णय लिया है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जिस सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत पर रिहा किया है, उसी सुप्रीम कोर्ट को ठेंगा दिखाते हुए उन्होंने कहा है कि उन पर भ्रष्टाचार के आरोपों पर निर्णय अदालत नहीं, दिल्ली की जनता करेगी यानि संविधान के अंतर्गत बनी देश की अदालतों और जांच एजेंसियों का कोई काम नहीं। जब देश के कई नेताओं पर जैन हवाला डायरी के हवाले से पैसा लेने के आरोप लगे थे, तब नेताओं ने नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र दे दिए थे। जिनमें कांग्रेस के माधव राव सिंधिया, अर्जुन सिंह, विद्याचरण शुक्ल, नारायणदत्त तिवारी, जनता दल के शरद यादव और भाजपा के लालकृष्ण आडवानी के अलावा मदनलाल खुराना भी थे, जो उस समय दिल्ली के मुख्यमंत्री थे, उन्होंने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था, लालकृष्ण आडवानी ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देते हुए घोषणा की थी कि वह तब तक चुनाव ही नहीं लड़ेंगे, जब तक बरी नहीं हो जाते। इनमें से किसी ने नहीं कहा था कि उनकी बेगुनाही का निर्णय अदालत नहीं करेगी। हम नरसिंह राव की कितनी भी बुराई करें, लेकिन वह उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे और उन्होंने हवाला कांड के किसी आरोपी को लोकसभा चुनाव का टिकट नहीं दिया था। केजरीवाल जिस इंडी एलायंस के घटक हैं, उसने संविधान और लोकतंत्र की रक्षा का एजेंडा पकड़ा हुआ है, लेकिन अरविन्द केजरीवाल घोषणा करके संविधान और देश की न्यायपालिका को चुनौती दे रहे हैं। वह लोकतंत्र को भीड़तंत्र बनाने पर तुले हुए हैं। इससे पहले जब वह बीस दिन के लिए अंतरिम जमानत पर बाहर आए थे, तब भी उन्होंने कहा था कि अगर जनता उनकी पार्टी के प्रत्याशियों को जिता देती है, तो उन्हें जेल नहीं जाना पड़ेगा। वह संविधानेत्तर व्यवस्था खड़ी करने का प्रयास कर रहे हैं, जिसमें नेताओं के भ्रष्टाचार का निर्णय संविधान के अनुसार न्यायपालिका नहीं करेगी, बल्कि जनता के वोट से निर्णय होगा कि कोई भ्रष्ट है या नहीं। यह लोकतंत्र को नष्ट करके भीड़तंत्र बनाने का षड्यंत्र भी है। अरविन्द केजरीवाल कई बार स्वयं को अनार्किस्ट कह चुके हैं और अब उनके नए कदमों से प्रमाणित हो रहा है कि वह देश का लोकतंत्र और संविधान नष्ट करके अनार्की फैलाने के किसी बड़े एजेंडे पर काम कर रहे हैं। जिस तरह उनकी गिरफ्तारी के समय दुनियाभर में बावेला खड़ा हुआ था, उससे यह आशंका बलवती होती है कि उनके पीछे अंतर्राष्ट्रीय ताकतें हैं।

दिल्ली की पढ़ी लिखी जनता मुफ्त बिजली, पानी और स्कूलों अस्पतालों के झूठे नैरेटिव के जाल में फंस चुकी है। सच यह कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस लोकसभा चुनाव में भ्रष्टाचार और परिवारवाद के विरुद्ध लड़ाई हार चुके हैं। परिवारवादी तीन पार्टियों कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की सीटें बढ़ी हैं। लोकसभा चुनावों के बाद दिल्ली के शराब घोटाले के सारे आरोपियों को जमानत मिल गई है। जमीन घोटाले में फंसे झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भी जमानत मिल गई। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी ने हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में चुनावी बिगुल बजाते हुए वही पुराने मुद्दे फिर दोहराए। जिसे लोकसभा चुनावों में देश की जनता ने ठुकराया, और अब न्यायपालिका ने भी ठुकरा दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शायद यह समझ नहीं आ रहा कि जब तक न्यायपालिका भ्रष्टाचार के विरुद्ध सख्त नहीं होगी, तब तक वह कुछ नहीं कर सकते। देश की अदालतें, विशेषकर सुप्रीम कोर्ट, भ्रष्टाचार को लेकर बिल्कुल गंभीर नहीं है। वह सीबीआई और ईडी को ईमानदारी और गंभीरता से काम करने ही नहीं दे रही। शराब घोटाले को ही लें, पिछले छह महीने से ये दोनों एजेंसियां हर रोज अदालतों में ही बुलाई जाती रहीं। अदालतों ने उन्हें गंभीरता से जांच करने और जल्द से जल्द ट्रायल शुरू करने का समय ही नहीं दिया। फिर उसी आधार पर अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसौदिया को छोड़ दिया कि ट्रायल में तो बहुत समय लगेगा। अगर सुप्रीम कोर्ट जरा भी गंभीर होती, तो केजरीवाल की गिरफ्तारी की कानूनी पड़ताल में छह महीने बर्बाद करने की बजाए एजेंसियों को काम करने देती। सुप्रीम कोर्ट के जजों की सहायता से केजरीवाल और उनके सहयोगियों के वकील अभिषेक मनु सिंघवी जांच एजेंसियों को कभी इस कोर्ट और कभी उस कोर्ट में नचाते रहे। सुप्रीम कोर्ट बड़े संवैधानिक मुद्दों पर निर्णय करने की बजाए, प्रभावशाली लोगों को जमानत देने वाली कोर्ट बन गई है। प्रभावशाली लोगों को जमानत देते हुए हाईकोटों की आलोचना करने का नया फैशन शुरू हो गया है। कायदे से केजरीवाल को जमानत देने की बजाए, सुप्रीम कोर्ट को उन्हें ट्रायल कोर्ट में जाने को कहना चाहिए था। लेकिन जस्टिस भुईयां ने तो हाईकोर्ट और सीबीआई के विरुद्ध ही टिप्पणी कर दी, वह सीबीआई की गिरफ्तारी को अवैध ठहराना चाहते थे। जबकि जस्टिस सूर्यकांत ने गिरफ्तारी को उचित माना है। आप जस्टिस भुईयां की टिप्पणियां देखिए, पहली टिप्पणी कि सीबीआई अभी भी पिंजरे का तोता बनी हुई है। दूसरी टिप्पणी, केजरीवाल की गिरफ्तारी इसलिए की गई, क्योंकि इंडी के केस में उन्हें जमानत मिल गई थी। तीसरी टिप्पणी, आरोपी को उन प्रश्नों पर चुप रहने का अधिकार है, जिनका वह उत्तर नहीं देना चाहते। आम आदमी भी इस बात को समझता है कि अगर कोई आरोपी लगाए गए आरोपों पर सफाई नहीं देता, तो इस का अर्थ है कि वह उसके पास कोई उत्तर नहीं है, लेकिन जस्टिस भुईयां ऐसा नहीं मानते। केजरीवाल को जमानत देने वाले जज की इस दलील से कोई भी सहमत नहीं हो सकता कि आरोपी की चुप्पी अपराध स्वीकार करना नहीं होता। जस्टिस भुईयां की चौथी टिप्पणी जमानत की शर्तों से संबंधित थी, जिसमें उन्होंने कहा कि वह जमानत की शतों के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन क्योंकि दो अन्य जजों ने ईडी के मामले में शर्ते लगाई हुई हैं। इसलिए वह शर्तों का समर्थन करते हैं। लेकिन शर्तों के बावजूद जेल के दरवाजे पर जमानत का जश्न मनाया गया। जेल के दरवाजे पर ही केजरीवाल ने केस के मेरिट पर टिप्पणी की शर्त को तोड़ते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया कि उन्होंने उन्हें झूठे मामले में फंसाया है। यही बात उन्होंने अंतरिम जमानत के समय चुनाव प्रचार के दौरान भी कही थी, अगर सुप्रीम कोर्ट ने उस समय संज्ञान लिया होता, तो केजरीवाल का साहस नहीं होता कि वह दोबारा केस की मेरिट पर टिप्पणी करते, जबकि उन्हें ट्रायल में अधिक समय लगने के कारण जमानत दी गई है, केस की मेरिट पर नहीं दी गई। इतना ही नहीं, आपराधिक मामलों में फंसे हुए राजनीतिज्ञ जमानत पर रिहा हो कर उत्सव मनाते हैं, और न्यायपालिका मुँह ताकती रहती है। यह भ्रष्टाचार को हवा देने जैसा है। 

कुछ दिन पहले महाराष्ट्र के हत्या के एक आरोपी सोपन गाड़े ने सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने पर जुलूस निकाला था, तो सुप्रीम कोर्ट ने जमानत रद्द करने की धमकी दी थी। जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस के.वी. विश्वनाथ की बेंच ने कहा था कि नेताओं की यह आदत बन गई कि वे जमानत मिलने पर रैली निकालने लगते हैं। अदालत ने महाराष्ट्र के इस नेता सोपन गाड़े से क्षमा मंगवाई थी। लेकिन केजरीवाल जेल में जाते हुए भी रैली को संबोधित करते हैं, और जमानत पर बाहर आने पर भी सुप्रीम कोर्ट के जज उनका मुंह ताकते रहते हैं। इसी का परिणाम है कि केजरीवाल ने देश के संविधान, लोकतंत्र और न्यायपालिका की धज्जियां उड़ाना शुरू कर दिया है। उसके लिए भारत की न्यायपालिका, विशेषकर सुप्रीम कोर्ट ही जिम्मेदार है।

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