औपनिवेशिक मानसिकता का दिवालियापन

औपनिवेशिक मानसिकता का दिवालियापन

प्रशांत पोळ

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मध्य प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री, श्री इंदर सिंह परमार जी ने विगत दिनों एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में, ‘भारत की खोज क्या वास्को डि गामा ने की?’ ऐसा प्रश्न पूछा। उनका आशय था, ‘भारत तो समुद्री परिवहन में हजारों वर्षों से आगे था। भारत अनेक देशों से व्यापार करता था। इसलिए, ‘वास्को डि गामा ने भारत की खोज की’ ऐसा कहना, यह इतिहास से की गई विडंबना है।’

इसको विस्तार से कहते हुए उन्होंने कहा कि ‘वास्को डि गामा जब भारत आया, तो उसको भारत का रास्ता दिखाया चंदन नाम के एक भारतीय व्यापारी ने’। उन्होंने इस संदर्भ में मेरी पुस्तक, ‘भारतीय ज्ञान का खजाना’ का भी संदर्भ दिया। उनके इस वक्तव्य पर, दैनिक भास्कर ने अपने वेब एडिशन में एक स्टोरी की। उस स्टोरी का शीर्षक है, ‘भारत की खोज क्या वास्को डि गामा ने नहीं की?’ विनय प्रकाश पांडे जी ने यह स्टोरी की है। हालांकि यह स्टोरी तीन दिन पुरानी है। मैंने आज पढ़ी। स्टोरी प्रकाशित होने के बाद कोई फोन मुझे नहीं आया। तो निश्चित रूप से इसको बहुत अधिक किसी ने पढ़ा नहीं होगा। किंतु यह डाक्यूमेंटेड है, इसलिए इसका खंडन (rebuttal) करना आवश्यक है।

इसमें से दो-तीन बातें निकलकर आती हैं। पहली बात, दैनिक भास्कर की स्टोरी यह पूर्णतः औपनिवेशिक मानसिकता (colonised mind) का एक उदाहरण है। अभी भी हम में से कईयों के मस्तिष्क में यह रच बस गया है कि भारत का अतीत तो कुछ था ही नहीं। हमें जो कुछ सिखाया – पढ़ाया, वह सब यूरोपियन लोगों ने ही किया और इसीलिए ‘भारत की खोज वास्को डि गामा ने की’ यह पाठ्य पुस्तकों में हमें पढ़ाया गया।

दूसरी बात – इस स्टोरी के संदर्भ में दैनिक भास्कर ने वास्को डि गामा की जिस डायरी का संदर्भ दिया है, यह संदर्भ सर्वप्रथम पद्मश्री हरिभाऊ वाकणकर जी ने दिया था, जब वह लंदन में गए थे। वहां के संग्रहालय में उनको, वास्को डि गामा के प्रवास से संबंधित, अंग्रेजी में अनुवादित की गई एक डायरी मिली। उसके आधार पर उन्होंने लिखा कि ‘वास्को डि गामा को भारत की दिशा और भारत का रास्ता बताया, एक भारतीय व्यापारी ने’। दैनिक भास्कर की स्टोरी में, उस डायरी को पूरा ना पढ़ते हुए, दो-चार इधर-उधर के संदर्भ लिखते हुए, यह बताने की चेष्टा की गई है कि वह भारतीय व्यापारी तो था ही नहीं। वास्को डि गामा ने स्वतः ही भारत को ढूंढ निकाला। हां, किसी क्रिश्चियन ने उसको भारत का रास्ता दिखाने में सहायता की। यह बिल्कुल गलत है। अगर हम डायरी ठीक से पढ़ें, तो उस डायरी में ही स्पष्टता के साथ लिखा है कि अफ्रीका खंड में प्रवेश करते ही वास्को डि गामा और उसके जहाज के सभी लोग, बड़ी बेसब्री से (desperately) किसी न किसी ऐसे व्यक्ति को चाहते थे, जो उन्हें भारत तक का रास्ता दिखाए। इसके लिए उन्होंने अलग-अलग देशों से, जहां-जहां वह रुके, वहां लोगों का अपहरण किया, कि उन्हें रास्ता दिखाएं। मोझंबीक के राजा ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया। लेकिन फिर भी आखिरी दिन, वास्को डी गामा ने, मोझंबीक के ही एक व्यक्ति का अपहरण कर लिया, ताकि वह उन्हें भारत तक का रास्ता दिखाए।

डायरी में यह भी वर्णन है कि, आगे जाकर उनको एक भारतीय व्यापारी, जो गुजरात का है, (उसका नाम भी उन्होंने दिया है) उस व्यापारी ने उनको भारत का रास्ता दिखाया। रविवार, 22 अप्रैल का डायरी का पृष्ठ अगर हम देख लें, तो उसमें यह सब उल्लेख है। इसलिए, यदि दैनिक भास्कर मंत्री जी को झूठा साबित करना चाहता है, तो वह गलत बातों का आधार देकर गलती कर रहा है। एक औपनिवेशिक मानसिकता के आधार पर इस प्रकार की स्टोरी प्लांट की जा रही है। (मैंने डायरी के पृष्ठों के फोटो, इस पोस्ट के साथ दिये हैं।

लेकिन यह मूल मुद्दा नहीं है कि वास्को डि गामा को भारत का रास्ता दिखाने वाले व्यक्ति का नाम क्या था। मूल मुद्दा यह है कि वास्को डि गामा के पहले भी भारतीयों ने, विश्व के अनेक देशों में, लैटिन से अमेरिका तक, सबसे पहले अपने कदम रखे हैं। भारतीय नाविक, भारतीय कप्तान वहां तक गए हैं। उन्होंने व्यापार किया है। प्रोफेसर अंगस मेडिसिन ने जो अपने पुस्तकों में आंकड़े दिए हैं, उनके अनुसार, पहली शताब्दी में, पूरे विश्व के व्यापार का एक तिहाई से अधिक हिस्सा भारत के पास था। ईसा के पहले के आंकड़े उनके पास नहीं हैं, अन्यथा हमारा व्यापार बहुत बड़ा था और उसके लिए अलग-अलग इतिहासकारों ने, (उस समय के वह सारे इतिहासकार यूरोपीय है) यह लिखकर रखा है कि, भारत का व्यापार किस प्रकार का था। ईसा से दो सौ वर्ष पहले का स्ट्रोबो नाम का इतिहासकार है। उसने सारा लिखकर रखा है। अनेक जहाजों के नाम तक दिए हैं, जो यूरोप में व्यापार करने जाते थे। एक जहाज में कितना माल जाता था, वह भी दिया गया है। भारत को कितना पैसा मिलता था, यह भी दिया गया है। मजेदार बात, उस समय रोमन साम्राज्य बहुत बड़ा माना जाता था। लेकिन उस रोमन साम्राज्य के साथ भारत का जो व्यापार था, उस व्यापार से भारत इतना अधिक कमाता था कि रोमन साम्राज्य से भी कई गुना वैभव हमारे देश में था। रोमन साम्राज्य (प्रमुखता से आज का इटली) के सोने के सिक्के पूरे विश्व में मिले हैं। महत्व की बात, इटली के बाद सबसे अधिक सिक्के यहां भारत में मिले हैं। अकेले दक्षिण भारत में रोमन साम्राज्य के सोने के 6000 सिक्के मिले हैं।

वास्को डि गामा की डायरी में यह उल्लेख है कि भारतीय लोग मरीन कंपास का प्रयोग करते थे। यूरोप ने मरीन कंपास की खोज बहुत बाद में की है। लेकिन हमारे यहां कुछ हजार वर्ष पहले से मरीन कंपास का उपयोग होता आया है। उसको ‘मच्छ यंत्र’ कहते थे। आज भी संग्रहालयों में, पुराने जहाजों में मिले हुए मच्छ यंत्र सुरक्षित रखे गए हैं और सिर्फ मरीन कंपास ही नहीं, तो जहाज को ठीक दिशा में रखने के लिए जो सेक्सटेंट इक्विपमेंट का उपयोग होता है, हम उसका भी हजारों वर्षों से उपयोग कर रहे हैं। उसे हमारे पूर्वज, ‘वृत्तशंख भाग’ कहते थे। आज भी संग्रहालयों में पुराने ‘वृत्तशंख भाग’, अर्थात सेक्सटेंट, उपलब्ध है। वास्को डि गामा की डायरी यह भी कहती है कि, जब वास्को डि गामा मरीन कंपास लेकर पुर्तगाल गया, तो वहां के लोगों ने उसका विरोध किया। लेकिन जहाज के सारे लोगों के मानते थे, की ‘यह अत्यंत उपयोगी है। इतना अच्छा और अचूक उपकरण हमारे पास नहीं है’।

ये सारी बातें, इस बात की ओर इंगित करती हैं कि हम सबको गलत इतिहास आज तक पढ़ाया गया‌ और उस इतिहास को अगर कोई ठीक करना चाहता है या ठीक से, सत्य इतिहास लिखना चाहता है, तो ऐसे मंत्रियों पर, ऐसे किसी भी अधिकारी पर, यह सारे, जो यूरोपियन मानसिकता को लेकर बैठे हैं, पश्चिम की मानसिकता को लेकर बैठे हैं, औपनिवेशिक मानसिकता को लेकर बैठे हैं, उनका विरोध करेंगे। इसलिए हमें फिर से यह कहना चाहिए कि भारत के पास अत्याधुनिक तकनीक थी। ‘भारत की खोज वास्को डि गामा‌ ने की’ इस प्रकार के दुर्भाग्यपूर्ण और गलत संदेश हमारे विद्यार्थियों को ना दें। अगर कोई इसको ठीक करना चाहता है, तो उनके विरुद्ध इस प्रकार की गलत स्टोरी प्लांट करना पत्रकारिता पर एक धब्बा है।

इस स्टोरी में मेरे उपर भी आक्षेप लगाया गया है कि मैं एक अभियंता होकर भी इतिहास पर लिखता हूं। मेरी खुली चुनौती है कि मेरी लिखी किसी भी पुस्तक में, मैंने यदि गलत लिखा है, तो उसे बताएं, साबित करें, मैं हमेशा ही सप्रमाण लिखता हूं।

कुल मिलाकर, अंग्रेजी मानसिकता से हम बाहर आएं, औपनिवेशिक चश्मा निकाल फेंके। खुले मन से, असली इतिहास को पढ़ें। बस इतना ही..!

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