चौहानों की कुलदेवी और जन जन की पूज्य हैं जीणमाता

चौहानों की कुलदेवी और जन जन की पूज्य हैं जीणमाता

वैद्य श्रीराम शर्मा 

चौहानों की कुलदेवी और जन जन की पूज्य हैं जीणमाताचौहानों की कुलदेवी और जन जन की पूज्य हैं जीणमाता

मातृ शक्ति की उपासना भारतीय संस्कृति से अटूट रूप से जुड़ी हुई है। मातृशक्ति आद्याशक्ति व सृष्टिमूला हैं। नवरात्रों की उपासना उसी जीवनमूलक शक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन एवं उसका आह्वान है। जीणमाता राजस्थान की प्रमुख लोकाराध्य देवी है। जीणमाता का मंदिर राजस्थान के सीकर जिले में रेवासा ग्राम से दक्षिण की ओर आडाबला की पहाड़ियों में है।

पहाड़ियों के बीच मन्दिर

जीणमाता का मन्दिर उत्तर, पश्चिम और दक्षिण में पहाड़ियों से घिरा हुआ है। मन्दिर में पूर्व और दक्षिण दोनों ओर द्वार हैं किन्तु मुख्य प्रवेश द्वार केवल पूर्व की ओर है। मन्दिर के प्रवेश द्वार से सामने पहाड़ियों से घिरा घाटीपथ है। रास्ते में दोनों ओर यात्रियों की सुविधा के लिए अनेक धर्मशालाएँ बनी हुई हैं।

देवी की प्रतिमा अष्टभुजी है जो महिषासुर का वध करने के रूप में है। प्रतिमा के सामने घृत और तेल के दो अखण्ड दीपक ज्योतियाँ जलती रहती हैं। प्रसिद्ध है कि यह दीपक ज्योति की व्यवस्था दिल्ली के चौहान साम्राज्य के समय से प्रचलित है। मुगलकाल में तेल और घी भेजने की यह व्यवस्था आमेर राज्य द्वारा की जाने लगी। सभा मण्डप के पूर्व में नीचे भँवरों की रानी का मन्दिर बना हुआ है, जिसमें कंकाली की मूर्ति एवम् जगदेव पँवार का धातु निर्मित शीश स्थापित है। यात्री यहाँ भेंट-पूजा अर्पण करते हैं। मन्दिर के मुख्य द्वार के दक्षिण में ऊँची चोटी को काजल शिखर कहा जाता है। जनश्रुति है कि दीपक की अखण्ड ज्योति से यहाँ काजल बनता था जिसके कारण इसे काजल या कज्जल शिखर कहने लगे।

भगवती जीण चौहान कुलोत्पन्न देवी हैं और चौहान साम्राज्यकाल से ही पूजित हैं। मन्दिर में आठ शिलालेख लगे हुए हैं, जिनसे मन्दिर के निर्माण सम्बन्धी एवं अन्य जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। संवत् 1121 विक्रमी (महाराज पृथ्वीराज के समय का) के शिलालेख में मोहिल के पुत्र हठड़ द्वारा मन्दिर निर्माण का उल्लेख मिलता है। संवत् 1230 के महाराज सोमेश्वर के शासन काल के शिलालेख में उदयराज के पुत्र अल्हण द्वारा देवालय के सभा मण्डप के निर्माण का उल्लेख है। देवालय की छतों और दीवारों पर बौद्धों, तांत्रिकों तथा वाममार्गियों की साधनाओं से सम्बन्धित अनेक प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। मन्दिर में माँस-मदिरा का प्रयोग भी होता रहा है, इससे पता लगता है कि कभी यह तांत्रिकों और वामाचारियों का गढ़ रहा होगा। वर्तमान में देवी की पूजा-आरती पाराशर गोत्रीय ब्राह्मण और सांभरिया खांप के क्षत्रिय करते हैं। भजन-कीर्तन व सवामणियों के कार्यक्रम भी यहाँ होते रहते हैं।

माता के देवालय से दो कोस पश्चिम-उत्तर में माता के भाई हर्ष का तपस्या स्थल हर्षगिरि पर्वत है। यहाँ से प्राप्त चौहान राजा विग्रहराज (बीसलदेव) कालीन शिलालेख, सैकड़ों खण्डित मूर्तियाँ सीकर संग्रहालय में संरक्षित हैं। यहाँ पाँचों पाण्डवों की आदमकद भव्य प्रतिमाएँ भी हैं।

जीणमाता की कथा

जीणमाता और हर्ष विषयक इतिवृत्त ‘नीमराणा की ख्यात’ में मिलता है। इसके अनुसार अजमेर के अधिपति अर्णोराज के पुत्र गांगैव के इन्दु, चन्दु, हलकरण और हर्ष नाम के चार पुत्र और जीण नाम की एक राजकुमारी थी। जीण साक्षात् देवी का हीं अवतार थी। ‘चौहान चन्द्रिका’ में इसी बात को कुछ प्रकारान्तर से कहा गया है। बहीबन्चों की बहियों में जीणमाता के जन्म के विषय में अप्सरा के उदर से जन्म लेने की कथा आती है। जीणमाता के जीवन- चरित का उद्घाटक एक लम्बा लोकगाथा काव्य मौखिक रूप से भी प्रचलित है।

लोकाख्यान

जीणमाता का जन्म चूरू जिले के घांघू गाँव में हुआ था। इनका हर्ष नाम का एक बड़ा भाई था। दोनों भाई-बहन में बड़ा प्रेम था इनके माता-पिता का देहान्त बचपन में ही ह गया था। हर्ष के विवाह के पश्चात् जीण अपनी भाभी से उपेक्षित व अपमानित हुईं तो अपना घर छोड़कर इस पर्वत पर आ गईं। जीण के पीछे-पीछे हर्ष भी जीण को मनाने आया, परन्तु जीण किसी भी प्रकार घर लौटने को तैयार नहीं हुईं। हर्ष के जीण से आग्रह का सुन्दर वर्णन लोकगीतों में मिलता है। जीण के घर लौटने के लिए राजी न होने पर हर्ष भी दूसरे पहाड़ (हर्षनाथ भैरूँ गिरि) पर तपस्या करने बैठ गये। उनकी जीवन पर्यन्त साधना ने इस स्थान को भाई-बहन के प्रेम का तीर्थ बना दिया। इस लोकाख्यान के बाद यह स्थल जीणमाता के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जीण ने अपनी साधना से देवी का रूप धारण कर लिया।

इसी आख्यान के साथ औरंगजेब के जीणधाम पर आक्रमण, देवी के चमत्कार से उसकी पराजय तथा औरंगजेब की विनय निवेदन जैसी अनेक जनश्रुतियाँ भी जुड़ी हुई हैं। आज जीणमाता मातेश्वरी के रूप में पूजित, वन्दनीय और लाखों भक्तों की श्रद्धा का केंद्र हैं।

जीण माता का मेला

जीणमाता के दर्शनों के लिए यूं तो वर्ष भर भक्त आते रहते हैं, किन्तु प्रतिवर्ष चैत्र और आश्विन मास के नवरात्रों में यहाँ विशाल मेले भरते हैं। इन दिनों में मेले में स्थानीय भक्तों के साथ ही बंगाल, बिहार, असम और गुजरात जैसे दूरस्थ प्रदेशों से भी माता के भक्त माता का आशीर्वाद लेने जीणधाम आते हैं। श्रद्धालु मेले में विवाह की जात, बच्चों के जड़ूले (मुण्डन) भी उतरवाते हैं। अपनी मनौतियों के पूर्ण होने पर भी भक्त माता का आभार प्रकट करने आते हैं।

मेले के समय माता के दर्शनों के लिए मन्दिर में लम्बी-लम्बी कतारें लगती हैं, जिनमें घण्टों प्रतीक्षा के बाद दर्शन हो पाते हैं। लाखों लोगों के इस विशाल मेले में मेलार्थियों के लिए मन्दिर क्षेत्र से लगभग एक किलोमीटर तक है। दुकानें लगती हैं। प्रशासन एवम् अनेक स्वयंसेवी संस्थाएँ मेलार्थियों की सुविधा के लिए विशेष व्यवस्था करते हैं। सम्पूर्ण मेला क्षेत्र निरन्तर माता के जयकारों से गूँजता रहता है। मेले का यह भव्य दृश्य प्रतिपदा या नवरात्रि स्थापना से अष्टमी तक सतत बना रहता है। जीणमाता का मेला वर्ष में दो बार नवरात्रों में लगता है।

इस मेले की सबसे बड़ी विशेषता इसके सामाजिक समरसता पूर्ण वातावरण में है। राजस्थान और देश भर के दूरस्थ प्रान्तों से आए लाखों भक्तगण इस दौरान अपनी कुलदेवी, आराध्या देवी की उपासना हेतु एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। इतने बड़े संकलन में व्यक्ति विभेद के सारे उपादान खोकर उनमें एकता के भक्ति तत्व का बचा रहना अपने आप में एक बड़ा सामाजिक संस्कार है जो माता के अन्य वरदानों के साथ सहज रूप में प्राप्त हो जाता है।

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