जम्मू-कश्मीर चुनाव परिणाम के मायने 

जम्मू-कश्मीर चुनाव परिणाम के मायने 

अवधेश कुमार 

जम्मू-कश्मीर चुनाव परिणाम के मायने जम्मू-कश्मीर चुनाव परिणाम के मायने 

जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के परिणाम लगभग पूर्व अनुमानों के अनुरूप ही हैं। चुनाव की घोषणा से लेकर अभियान तक यह स्पष्ट हो गया था कि जम्मू क्षेत्र में भाजपा प्रभावी है, लेकिन कश्मीर में उसका जनाधार नहीं बढ़ा है। दूसरी ओर नेशनल कांफ्रेंस का जनाधार कश्मीर के साथ जम्मू क्षेत्र में भी है। हालांकि जम्मू के 43 में से भाजपा को 29 सीटें मिलने से उनके समर्थकों को निराशा हो सकती है। सच्चाई व जमीनी वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता। वैसे तीन-चार सीट भाजपा काफी कम अंतर से हारी है। चूंकि जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 समाप्त होने एवं संक्रमणकालीन व्यवस्था के अंतर्गत केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव था, इसलिए भी इसको इसके परिणाम देखने के दृष्टिकोण में अंतर हो सकता है। भाजपा समर्थकों एवं कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियों के स्वाभाविक विरोधियों के अंदर निराशा इसलिए है कि वहां के लोग ही खुलकर बता रहे थे कि 370 हटाने के बाद जम्मू कश्मीर का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने जितना विकास किया उसकी पहले कल्पना नहीं थी। आतंकवाद के भय से सहमे रहने वाले दूरस्थ क्षेत्रों तक भी विकास पहुंचा। स्थानीय निकायों के चुनाव से निचले स्तर पर विकास एवं कल्याणकारी कार्यक्रमों में भागीदारी बढ़ी। शिक्षण संस्थान सुचारू रूप से चलने लगे। सांस्कृतिक गतिविधियां, खेलकूद आदि सामान्य गतिविधियों की तरह हो गए, जिनकी पिछले तीन दशकों से कल्पना भी नहीं थी। यह सच है कि भाजपा ने ब्लॉक डेवलपमेंट काउंसिल, डिस्ट्रिक्ट डेवलपमेंट काउंसिल और 2021 में पंचों एवं सरपंचों के चुनाव कराए। बावजूद कश्मीर में उसका खाता न खुलना चिंता का विषय होना चाहिए। किंतु इसे अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता। भाजपा ने जम्मू में 41 तथा कश्मीर में 19 सीटों यानी कुल 60 स्थानों पर चुनाव लड़ा। पार्टी ने पहली बार 23 मुस्लिम प्रत्याशी दिये। दूसरी ओर कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के गठबंधन में कांग्रेस 32 और नेकां 51 पर चुनाव लड़े, 5 सीटों पर दोनों के बीच मुकाबला था। प्रदेश में पूर्व कांग्रेसी नेता गुलाम नबी आजाद की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी, अल्ताफ बुखारी की जम्मू कश्मीर अपनी पार्टी, सज्जाद लोन की पीपुल्स कांफ्रेंस, आतंकवाद के वित्त पोषण के मामले में जेल में बंद इंजीनियर राशिद की अवामी इत्तेहाद पार्टी आदि मैदान में थे। महबूबा मुफ्ती की पीडीपी तो थी ही। मतदाताओं को इनमें से ही चुनाव करना था।

जम्मू क्षेत्र के बारे में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वहां एक तिहाई जनसंख्या मुस्लिम है। केवल चार जिले जम्मू, कठुआ, सांभा और उधमपुर में हिन्दू बहुमत में हैं, चिनाब घाटी के तीनों जिले मिले-जुले हैं तथा पीर पंजाल के पूंछ और डोडा मुस्लिम बहुल हैं। हिन्दू मुस्लिम मजहबी समीकरण के अलावा जम्मू में जाति, जनजाति व भाषा आदि अस्मिता का भी प्रभाव है। जम्मू कश्मीर आतंकवादी, अलगाववादी हिंसा की अस्थिर स्थिति में लंबे समय रहा। उसमें 370 हटाने के बाद परिस्थितियों को एकाएक सामान्य करना तथा प्रशासनिक व राजनीतिक -सामाजिक सांस्कृतिक -गतिविधियों से लोगों तक पहुंचकर उन्हें समझा पाना असंभव था। उतना बड़ा कदम, जो अकल्पनीय था तथा लंबे समय की यथास्थिति को एकाएक धक्का देकर प्रदेश को आमूल रूप से बदलने का कदम था। भाजपा घाटी में कहीं थी नहीं और मुसलमानों के बीच उसे लेकर हमेशा गलतफहमी बनाई गई। जम्मू-कश्मीर को मुस्लिम पहचान से जोड़ने का षड्यंत्र स्वाधीनता के पूर्व से आरंभ हुआ और केन्द्रीय सत्ता ने नीतियों और व्यवहार से उस मानसिकता को सशक्त किया। भाजपा स्थापित की गयी भारत की अखंडता सिद्धांत के विपरीत धारणा के विरुद्ध रही है। इस विचार की सहयात्री नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस वहां की स्थापित पार्टियां रहीं हैं । बाद में पीडीपी भी मुख्य पार्टी बन गई और इनका जनाधार दोनों क्षेत्रों में रहा है। उनको काट पाना आसान नहीं था। हालांकि कांग्रेस जम्मू कश्मीर से समाप्त पार्टी साबित हुई क्योंकि उसे 5 सीटें घाटी से मिलीं, जिनके कारण नेशनल कांफ्रेंस के साथ गठबंधन है और एक सीट केवल पीर पंजाल से। बाकी जम्मू में वह कहीं भी जनाधार साबित नहीं कर पाई।

भाजपा को अकेले सबसे अधिक 25.64% मत मिले हैं। इसके समानांतर नेशनल कांफ्रेंस का मत 23.43 प्रतिशत तथा कांग्रेस का 11.27 प्रतिशत है। इनको मिलाकर निश्चित रूप से दोनों मतों के आगे निकल जाती हैं। किंतु कांग्रेस का अपना हमेशा एक अलग जनाधार जम्मू और घाटी दोनों क्षेत्रों में रहा है, जो इस चुनाव में लगभग समाप्त है। अगर नेशनल कांफ्रेंस के साथ गठबंधन नहीं होता तो संभव था उसे सीटें नहीं आती। पीडीपी केवल 8.7% मत पाने वाली पार्टी रह गई और उसके बाद एकमात्र एनपी है, जिसे 1 प्रतिशत से अधिक मत मिले। अन्य सभी पार्टियों को इनसे कम मत मिला है। भाजपा का यह आज तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन है।

हालांकि यह चिंता का विषय है कि धारा 370 हटाने के बाद आम आदमी भी मीडिया में बोल रहे थे कि उन्हें शासन में भागीदारी का अवसर मिला, शैक्षिक- सांस्कृतिक -खेलकूद आदि गतिविधियां बढ़ीं, विकास के जबरदस्त काम हुए, लेकिन ये भाजपा को मत देने के लिए तैयार नहीं थे। कश्मीर की मुस्लिम पहचान की विरोधी पार्टी की छवि के साथ पूरे देश में इस समय मुसलमानों की सामूहिक प्रवृत्ति भाजपा के विरुद्ध मतदान की है। इसी कारण सभी मतदाताओं ने लगभग रणनीतिक मतदान किया। विकल्प के रूप में नेशनल कांफ्रेंस ही मजबूत दिख रही थी। इसीलिए प्रभावी निर्दलीय और शेष दल वहां नकारे गये। पीडीपी केवल तीन सीटों तक सिमट गई और महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुक्ति बीजबेहरा जैसे परंपरागत क्षेत्र से चुनाव हार गई। पीपुल्स कांफ्रेंस के सज्जाद लोन कुपवाड़ा से हारे और हौदवाड़ा से भी केवल 662 मतों से जीते। राशिद इंजीनियर का न्यायालय के आदेश पर जेल से बाहर जाकर प्रचार करना काम नहीं आया। जमात ए इस्लामी से लेकर हुर्रियत से जुड़े प्रत्याशियों को भी लोगों ने समर्थन नहीं दिया क्योंकि उनके सामने वोट बंटने और भाजपा के मजबूत होने का खतरा दिखाया जा रहा था। मुस्लिम बहुल एक क्षेत्र जम्मू के किश्तवाड़ से भाजपा की शगुन परिहार की जीत थी, जिन्होंने नेशनल कांफ्रेंस के सज्जाद अहमद किचलू को 521 मतों से हराया। हालांकि किचलू 2002 और 2008 में यहां से जीते थे और उनके पिता भी तीन बार विधायक रह चुके थे। 2018 में शगुन के पिता और चाचा की आतंकवादियों ने हत्या कर दी थी। सो उनके प्रति थोड़ी सहानुभूति थी। भाजपा ने पीर पंजाल के क्षेत्र में गुर्जरों और पहाड़ियों के लिए भले तीन दशक पुरानी अनुसूचित जनजाति के दर्जे को पूरा किया, आरक्षण दिया लेकिन वहां की आठ में से एक सीट नहीं जीत पाई। भाजपा ने दूसरी पार्टी से आने वाले नेताओं को प्रत्याशी बनाया। वे भी नहीं जीत सके। यहां तक कि नौशेरा से भाजपा प्रदेश अध्यक्ष रविंद्र रैना और प्रदेश महासचिव वीबोध गुप्ता भी हार गए। किसी सीट पर पहाड़ी समुदाय के मत भाजपा को नहीं मिले। ध्यान रखिए, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन में केवल दो हिन्दू ही जीत पाए। उन्होंने 30 उम्मीदवार हिंदू और सिख समुदाय से उतारे थे। भाजपा के विजयी 29 में से 28 हिन्दू और एक सिख है।

नेशनल कांफ्रेंस सहित सभी पार्टियों ने अलगाववादी वायदे किए थे, जिनमें धारा 370 की वापसी, 1954 के पहले की स्थिति की बहाली, राजनीतिक कैदियों की रिहाई, उन सारे कानूनों को समाप्त करना जो जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति को प्रभावित करते हैं। भूस्वामित्व संबंधी बदले कानूनों का अंत, पाकिस्तान के साथ बातचीत आदि शामिल थे। नेशनल कांफ्रेंस ने तो शंकराचार्य पर्वत को तख्त ए सुलेमान तथा हरी पर्वत को कोहे मारन तक में बदलने की घोषणा कर दी। इस तरह के कट्टर मजहबी घोषणाओं का भी वहां असर हुआ। भाजपा ने इसके विपरीत विकास, भविष्य के निर्माण, आतंकवाद, अलगाववाद, भ्रष्टाचार, परिवारवाद आदि को समाप्त कर सच्चा लोकतंत्र कायम करने जैसी सकारात्मक घोषणाएं कीं। अब नेशनल कांफ्रेंस कांग्रेस की सरकार बन रही है तो देखना होगा अपने वादों को लेकर वो कितना आगे बढ़ते हैं। बढ़ते भी हैं या नहीं। केंद्रशासित प्रदेश होने के कारण अधिकांश मामलों में उन्हें उपराज्यपाल की स्वीकृति की आवश्यकता होगी। भाजपा सशक्त रूप में विधानसभा में उपस्थित है तथा केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार है। इसलिए आसानी से अलगाववादी कट्टर मजहबी एजेंडा या पाकिस्तान परस्त विषयों को शामिल करना कठिन होगा या कहें कि असंभव होगा। उमर अब्दुल्ला ने केंद्र सरकार के साथ संबंध बनाकर काम करने की बात कही है, जिसमें अभी तक किसी तरह की आक्रामकता या विरोध की भाषा नहीं है। संभव है यह बयान रणनीतिक भी हो। इसलिए उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार की रीति नीति, व्यवहार तथा भविष्य के राजनीतिक समीकरणों का स्पष्ट स्वरूप आने में थोड़ा समय लगेगा।

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