भावुकता से भरपूर कहानी – The Signature
दिवस गौड़
भावुकता से भरपूर कहानी – The Signature
4 अक्टूबर, 2024 को ZEE5 OTT पर रिलीज हुई फिल्म The Signature, जो कि 2013 में आई एक मराठी फिल्म ‘अनुमति’ का हिन्दी रूपांतरण है, अरविन्द पाठक (अनुपम खेर) पर केन्द्रित एक कहानी है जो अपनी ब्रेन हेमरेज से पीड़ित एवं वेंटीलेटर पर जीवित पत्नी माधवी पाठक (नीना कुलकर्णी) को बचाने के प्रयास में लगा है। डॉक्टर (मनोज जोशी) ने अरविन्द की आर्थिक स्थिति को देखते हुए DNR form पर signature करने के लिए पूछा, ताकि अरविन्द अपनी पत्नी को वेंटीलेटर सपोर्ट से हटा ले क्योंकि उसका बचना कठिन है। परन्तु नौकरी से सेवानिवृत्त मध्यमवर्गीय अरविन्द यह निर्णय नहीं ले पाता। पूरी फिल्म इस signature पर ही आधारित है, जिसके लिए सभी अरविन्द को समझाते हैं। यहां तक कि उसका अपना बेटा भी उसे signature के लिए समझाता है परन्तु अरविन्द अंत तक यह निर्णय नहीं ले पाता और आर्थिक तंगी से जूझते हुए, अपने दोस्तों व रिश्तेदारों से सहायता की गुहार लगाता रहता है।
जब बेटा भी साथ छोड़ देता है तो बेहद शर्मिन्दगी के साथ वह अपने दामाद से सहायता मांगता है। परन्तु दामाद भी अपनी विवशता बता देता है। बेटी चुपके से अपने गहने दे देती है। विवशता में चूर अरविन्द अपनी बेटी के गहने ले लेता है।
पत्नी को वेंटीलेटर के सहारे जीवित रखने भर के लिए वह अपना घर बेचने का निर्णय लेता है। परन्तु उस घर में हिस्सेदार बेटा उसे घर नहीं बेचने देता।
छोटा भाई भी अवसर का लाभ उठाकर केवल एक लाख रुपए के बदले अरविन्द की लाखों की पैतृक संपत्ति हड़प लेता है।
भावनात्मक रूप से बहू साथ देती है। परन्तु धन की आवश्यकता वह भी पूरी नहीं कर पाती। हर ओर से निराश व परेशान अरविन्द बहुत दयनीय स्थिति में दिखाई देता है।
बचपन का दोस्त प्रभु (अन्नू कपूर) अपना कीमती सामान बेचकर अपने दोस्त अरविन्द की थोड़ी बहुत सहायता कर पाता है। परन्तु वह भी पर्याप्त नहीं है।
स्वयं आर्थिक तंगी से जूझता हुआ भी अरविन्द अपनी मानवता को नहीं छोड़ता। दवाइयां खरीदते हुए एक गरीब महिला अपने छोटे से बीमार बच्चे के इलाज के लिए दवाइयों की भीख मांगती है तो अरविन्द उसकी भी सहायता कर देता है।
वर्षों बाद वह अपनी कॉलेज के समय की दोस्त अंबिका (महिमा चौधरी) से मिलता है, जो स्वयं कैंसर से जूझ रही एक बहुत जिन्दा दिल महिला है। वह अरविन्द की सहायता करती है।
वैसे तो अरविन्द की दुखभरी कहानी कहती यह फिल्म दर्शकों को भी दुखी कर देती है, परन्तु फिर भी इस फिल्म में सीखने योग्य बहुत से पाठ मिल जाते हैं। यह फिल्म पूरी तरह से भावनाओं पर आधारित है।
फिल्म में एक दृश्य ऐसा है जो दर्शकों के समक्ष एक प्रश्न छोड़ देता है। अरविन्द को पता चलता है कि एक मां बाप अपने जवान लड़के के हृदय के ऑपरेशन के लिए एक न्यूज़ एजेंसी से सहायता मांगते हैं। वह न्यूज एजेंसी सहायता का विज्ञापन निकालती है। जिसके कारण उस लड़के का ऑपरेशन हो पाता है और उसकी जान बच जाती है। अरविन्द भी उस एजेंसी के पास सहायता के लिए जाता है। परन्तु एजेंसी वालों का कहना है कि वह लड़का अभी जवान था। अभी उसके सामने पूरा जीवन पड़ा था। वह समाज के लिए बहुत कुछ योगदान दे सकता है। इसलिए लोगों ने उसकी सहायता की। परन्तु आपकी पत्नी अपनी आयु जी चुकी हैं। अब तक उन्होंने समाज को ऐसा कोई योगदान नहीं दिया है और ना आगे कभी दे पाएंगी। ऐसे में उनको सहायता मिलना कठिन है। ऐसे में अरविन्द प्रश्न करता है कि समाज को योगदान देने योग्य दो बच्चे उसने समाज को दिए हैं, क्या यह समाज को उसका योगदान नहीं है?
अरविन्द के रूप में अनुपम खेर ने शाय़द अपने जीवन भर के दुखों को इस फिल्म में जी लिया होगा। उनके अभिनय में अभिनय था ही नहीं। सब कुछ सच लग रहा था। अरविन्द के दर्द को दर्शकों के सामने यथावत रख देना किसी भी अभिनेता के लिए सरल ना होता। परन्तु अनुपम खेर ने इस किरदार के साथ पूरी तरह से न्याय किया है। बाथरूम में शॉवर के नीचे खड़े खड़े आंसू बहाना हो या अस्पताल में लगभग मृत पड़ी पत्नी से बात करना, ये कुछ दृश्य इस फिल्म में ऐसे हैं जो सामान्यतः आपने कई फिल्मों में देखे होंगे। परन्तु जब अनुपम खेर को इस फिल्म के इन दृश्यों में आप देखेंगे तो आपकी भी आंखें भीग जाना स्वाभाविक है। इस फिल्म में अनुपम खेर का अभिनय 1989 में आई उनकी ही एक पुरानी फिल्म ‘डैडी’ की स्मृतियों को ताजा कर देता है। वहां एक लाचार पिता था, यहां एक लाचार पति है। अनुपम खेर ने ना तब उस किरदार को अधूरा छोड़ा था और ना इस किरदार को।
प्रभु के रुप मे अन्नु कपूर ने अनुपम खेर को अभिनय में टक्कर तो दी है, परन्तु अरविन्द का किरदार, प्रभु के किरदार से अधिक असरदार है। लम्बे अंतराल बाद अंबिका के रूप में महिमा चौधरी को देख कर बहुत आश्चर्य हुआ। पहली बार में देख कर तो उन्हें पहचाना भी नहीं जा सकता। कुछ देर बाद कुछ सुनी सुनी सी आवाज़ से पहचाना। चेहरा मोहरा सब पूरी तरह से बदल गया है। सहसा देखकर तो विश्वास ही नहीं हुआ कि यह 1997 में आई सुभाष घई की फिल्म ‘परदेस’ की वही गंगा है, जो ‘I love my India’ गाने पर नाचती दिखाई दी थी। हालांकि चेहरे पर जितनी परिपक्वता दिखाई दी, अभिनय में उससे थोड़ी सी कम ही लगी।
फिल्म में एक और किरदार था, जिसका कोई नाम नहीं था। केवल कुछ मिनटों का ही किरदार था परन्तु उसे निभाने वाले अभिनेता ने उसे अपने दमदार अभिनय से ना भूलने वाला किरदार बना दिया। उस अभिनेता का नाम है ‘रणवीर शौरी’ पूरी फिल्म में पार्श्व संगीत किसी ग़ज़ल जैसा लगता है जो फिर से अनुपम खेर की पुरानी फिल्म ‘डैडी’ की याद दिलाता है। बीच बीच में अरविन्द की कुछ कविताएं भावुकता को और बढ़ा देती हैं।
वैसे तो यह फिल्म पूरी तरह से मायूसी में डूबी दिखाई देती है परन्तु इसका अंत उससे भी दुखद है। परन्तु अंत वह नहीं है जिसका अनुमान लगाया जा सके, बल्कि उससे भी कहीं अधिक दर्दनाक है।
गजेन्द्र अहिरे का निर्देशन बहुत अच्छा रहा। मूल मराठी फिल्म ‘अनुमति’ का निर्देशन भी गजेन्द्र अहिरे ने ही किया था। मराठी फिल्मों में जाना पहचाना नाम है परन्तु हिन्दी फिल्मों में अब तक कोई बहुत बड़ा प्रोजेक्ट नहीं किया था। शायद यह फिल्म उन्हें हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में एक बड़ी पहचान दिला सके।
इस फिल्म की USP है अनुपम खेर का अभिनय। इस अभिनय के लिए इस फिल्म को एक बार तो देखा जाना चाहिए।
बहुत ही बेहतरीन फ़िल्म समीक्षा है। इस समीक्षा को पढ़कर न केवल सिग्नेचर फ़िल्म के बारे में जानकारी मिली, बल्कि फ़िल्म देखने की इच्छा भी शुरू हो गई है।